बुधवार, 17 अगस्त 2011

सामयिक

सामयिक
पॉस्को : विकास विरूद्ध विकास
सुश्री सुनीता नारायण

यह विचार का विषय है कि ठीक ठाक मुआवजे के बावजूद लोग अपनी जमीन को छोड़ना क्यों नहीं चाहते । हम शहरी जो कि जमीन को महज लाभ या भविष्य के लिए निवेश के रूप में जानते है और इसे मात्र खरीदने-बेचने की वस्तु समझते है, वे आदिवासी और किसान की अपनी जमीन से लगाव के पीछे की संवेदना को समझ ही नहीं सकते है ।
टेलीविजन में वह दृश्य देखकर दिल दहल जाता है जिसमें बच्च्े धधकते सूर्य के नीचे खुले आसमान तले दक्षिण कोरिया के विशाल पास्को संयंत्र के खिलाफ मानव ढाल बने कतारबद्ध बैठे है । उनके सामने राज्य सरकार द्वारा भेजा गया सशस्त्र पुलिस बल है जो कि इस ऑपरेशन में मदद कर रहा है । ओडिशा के समुद्र तट के नजदीक स्थित यह इस्पात संयंत्र एवं बंदरगाह परियोजना और ऐसे लोग जिनकी जमीन अधिग्रहित की जानी है पिछले ६ वर्षो से आमने-सामने हैं । अब जबकि पर्यावरणीय स्वीकृतियां प्राप्त हो गई है।
राज्य सरकार किसी भी कीमत पर अधिग्रहण पर उतारू है । उसने इस हेतु ऐसा आर्थिक पैकेज भी देने की बात कही है जिसमें अतिक्रमित भूमि का भी मुआवजा दिया जाएगा । सरकार का विश्वास है कि यह एक ऐसा सुनहरा मौका है जो लोगों को जीवन में दोबारा नहीं मिलेगा । अतएव उन्हें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए । सभी को आगे बढ़ना चाहिए और अब परियोजना का निर्माण हो जाना चाहिए क्योंकि इससे इस गरीब राज्य के समुद्र तट पर बहुमूल्य विदेशी निवेश की आवक संभव हो पाएगी ।
हमें स्वयं से यह प्रश्न एक बार पुन: पूछना चाहिए कि ये लोग जो अत्यधिक गरीब दिखाई देते हैं, इस परियोजना के खिलाफ संघर्षरत क्यों है? वे नकद मुआवजा स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं जो कि न केवल उन्हें एक नया जीवन प्रारंभ करने का मौका देगा बल्कि उनके बच्चें को सुपारी उगाने में कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहने से भी छुटकारा दिलवाएगा । क्या यह वृद्धि और विकास विरूद्ध पर्यावरण का संघर्ष है या ये महज गैर जानकार, अशिक्षित व्यक्ति हैं, या ये राजनीतिक रूप से उद्वेलित लोग है ? मेरे ख्याल से ऐसा नहीं है ।
पॉस्को परियोजना विकास विरूद्ध विकास है । यहां रहने वाले लोग गरीब है लेकिन वे जानते है कि ये परियोजना उन्हें और अधिक गरीब बनाएगी । यही वह सच्चई है जो कि हम आधुनिक अर्थव्यवस्था में रहने वाले नहीं समझ पाते । यह ऐसा क्षेत्र है जहां अधिकांश ऐसे वनों में सुपारी की खेती होती है जो कि सरकार के हैं । परियोजना के लिए आवश्यक १६२० हेक्टेयर भूमि में से ९० प्रतिशत यानि १४४० हेक्टेयर भूमि इसी विवादास्पद वन में है ।
जब परियोजना के लिए इस स्थान का चयन किया गया तो सरकार ने इस बात पर विचार ही नहीं किया कि उसे इस जमीन के लिए मुआवजा भी देना पड़ सकता है । क्योंकि उसका विचार था कि इस पर लोगों ने अतिक्रमण कर लिया है और सरकार इस विशाल इस्पात संयंत्र के लिए आसानी से इसे अपने कब्जे में ले लेगी । परन्तु यह वन भूमि थी और वे लोग अनादिकाल से वहां रह रहे थे और खेती कर रहे थे । इसी बीच वन अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत निहित शर्तो की बात भी उठने लगी जिसमें परियोजना हेतु वहां रह रहे लोगों की सहमति भी आवश्यक थी । केन्द्रीय पर्यावरण व वन विभाग ने स्वगठित कमेटी की प्रतिकूल टिप्पणियोंको रद्द करते हुए कहा कि उसे राज्य सरकार की इस बात पर भरोसा है कि यह सुनिश्चित करने में ऐसी सभी प्रक्रियागत कार्यवाहियां पूरी कर ली गई हैं जो यह सुनिश्चित करती है कि इन गांवों में रह रहे व्यक्तियों को स्वामित्व का कोई अधिकार ही प्राप्त् नहीं है क्योंकि ये पारम्परिक रूप से वन में रहने वाला समुदाय नहीं है ।
इसी प्रत्याशा के साथ पर्यावरण व वन मंत्रालय द्वारा स्वीकृति दे दी गई और परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही को आगे बढ़ाया जा सकता है । परन्तु लोगों से आीाी तक कुछ भी पूछा नहीं गया था और अंतत: उन्होनें इंकार कर दिया । ऐसा क्यों ? जबकि राज्य सरकार का कहना है कि उसने अपने प्रस्ताव में सभी मांगों को समाहित कर लिया है । वह इस बात पर राजी हो गई है कि निजी रिहायशी भवनों और गांव की भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा । लोगों के पास अपने घर होगें, केवलउनकी जीविका का ही नुकसान होगा । परन्तु उसका भी मुआवजा दिया जाएगा । इस पर भी सहमति जताई गई कि वन भूमि का उपयोग न कर पाने से होने वाली हानि की भी क्षतिपूर्ति की जाएगी, जबकि तकनीकी तौर पर लोगों को उस पर कोई हक नहीं है ।
ओडिशा से आई जमीनी रिपोर्ट के अनुसार अतिक्रमित पान/सुपारी के खेतोंपर प्रति हेक्टेयर २८.७५ लाख रूपए का मुआवजा दिया जाएगा । इसके बाद उन दिहाड़ी मजदूरों के लिए भी प्रावधान किया गया है, जिनकी जीविका पान/सुपारी की खेती बंद होने से खतरे मेंपड़ जाएगी । यह क्षतिपूर्ति वेतन भी लाभदायक है । इसके अन्तर्गत सरकार अधिकतम एक वर्ष तक रोजगार ढूंढने के लिए भत्ता प्रदान करेगी । इसके अलावा जिन ४६० परिवारों को अपने घरों से हाथ धोना पड़ रहा है उन्हें कॉलोनियों में पुन: बसाया जाएगा । तो फिर ऐसे प्रस्ताव को लोग खारिज क्यों कर रहे हैं ?
क्या यह केवलकुछ लोगों खासकर एक ग्राम पंचायत धिंकिया के नेताआें का दुराग्रह हैं ? इस गांव ने पिछले तीन वर्षो से प्रशासन के लिए स्वयं के दरवाजे बंद कर रखे हैं। इस गांव को जाने वाली सभी सड़कों पर रूकावटें खड़ी कर दी गई है । यह एक तरह से विद्रोह, उत्कट जिजीविषा और पक्का इरादा ही है । यह गांव अकेला ही पॉस्को का मुकाबला कर सकता है क्योंकि इस इस्पात संयंत्र हेतु बनने वाले केप्टिव विद्युत संयंत्र और निजी बंदरगाह के लिए चिन्हित कुल भूमि में से ५५ प्रतिशत इसी ग्राम पंचायत के अन्तर्गत आती हैं, लेकिन वे छोटी है और उनका नेतृत्व भी उतना दमदार नहीं हैं । परन्तु जब मेरे सहयोगियों ने ट्रांजिट कैम्प में अपने नए घरो के बनने और उन्हें सौंपे जाने की राह देख रहे लोगों को असंतोषजनक स्थिति में शराब के नशे में चूर पाया । उन लोगों ने पूछा, हमारी जीविका (रोजगार) कहा है ? हम क्या करेंगे ?
देशभर में जहां-जहां भी विकास के नाम पर लोगों की जीविका (रोजगार) छीने जाने के खिलाफ लड़ाई चल रही है वहां यही सवाल पूछे जा रहे हैं । अभी यह जमीन पास्को की नहीं हुई है, लेकिन सुपारी/पान की खेती से यहां प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष १० से १७.५० लाख रूपए की आमदनी हो जाती है जो मुआवजा मिल रहा है वह तो दो-तीन वर्षो की आमदनी के बराबर है । इसके अलावा धान, मछलियों के तालाब और फलदार वृक्ष भी आमदनी के अन्य जरिए हैं । यह भूमि आधारित अर्थव्यवस्था अत्यधिक रोजगार मूलक भी है । हालांकि लौह और इस्पात संयंत्र देश के आर्थिक विकास के लिए आवश्यक हैं लेकिन वे स्थानीय रोजगार उपलब्ध नहीं करा पाते । इसके लिए पहला तर्क है कि इस तरह के संयंत्रों के लिए स्थानीय लोग नौकरी पर रखे जाने लायक नहीं है । दूसरा है कि इन आधुनिक सुसज्जित संयंत्रों के परिचालन में बहुत ही सीमित संख्या में कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ती है ।
इस तरह पॉस्को विकास विरूद्ध विकास है । हम सब लम्बे समय से इस भूमि आधारित अर्थव्यवस्था को समझने का प्रयास कर रहे है लेकिन अभी तक हम शायद यह नहीं समझ पाए हैं कि इसके क्या कार्य है और भारतीय समाज में यह क्या मायने रखती है । यह सिर्फ इतना है कि हम सब यह भूल गए हैं वह विकास, विकास ही नहीं है जो उन्हें लोगों को जीवन छीन रहा हो, जिनके लिए इसे (विकास) किया जा रहा हो । संदेश एकदम स्पष्ट है, अगर हम उनकी जमीन चाहते हैं तो हमें उन्हें बदले में एक जीवन तो देना ही पड़ेगा ।

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