सोमवार, 11 जून 2012

ज्ञान विज्ञान
                        खूबसूरत मगर बदबूदार फूल

    उत्तरी गोलार्ध में बसंत का आगाज हो चुका है, जहां एक ओर सूरज की चमचमाती रोशनी और खिले हुए फूलों की मनमोहक खुशबू आपको बांध लेती है, वहीं दूसरी ओर न्यूयार्क, इथाला में स्थित कॉर्नेल विश्वविद्यालय के ग्रीन हाउस मेंपहली बार टायटन एरम नामक फूल खिला है ।
    इस विशाल पौधे का नाम एमार्फोफेलस टायटेनम है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में शव पौधा कहते हैं, क्योंकि इसमें सड़े मांस-सी दुर्गंध आती है । इसका फूल गहरे जामुनी रंग का धारीदार घंटीनुमा फूल होता है, जिसकी बदबू के उड़ने से केरीयन मक्खियां आकर्षित होती हैं और इस फूल को परागण में मदद मिलती है । कार्नेल के शोधकर्ता यह जानने का प्रयास कर रहे है कि फूल के खिलते-खिलते यह दुर्गंध कैसे बदलती जाती है । इस शोध के लिए उन्होंने एक फूल के अंदर संवेदी यंत्र लगाए है । 


 शोधकर्ता इस काम में बहुत जल्दबाजी करना चाहते हैं क्योंकि यदि यह प्रयोग अभी नहीं हो पाया तो बहुत लंबे समय के इंतजार करना पड़ सकता है । वैसे कुछ ल ोगों का कहना है कि यह फूल हर दो साल बाद खिलता है ।
    हालांकि हर फूल में नर और मादा दोनों अंग होते हैं मगर टायटन एरम में स्व परागण नहीं होता । कॉर्नेल ग्रीनहाउस में खिले इस फूल का परागण हाथों से किया गया था जिसके लिए पिछले वर्ष न्यूयॉर्क के बर्मिगहैम विश्वविद्यालय में खिले फूल से पराग कण इकट्ठा करके रखे गए थे । अब कॉर्नेल के इस फूल से परागकरण तब इकट्ठे किए जाएंगे जब फूल के मादा भाग मुरझा जाएंगे और अगले दिन नर भाग नजर आने     लगेंगे । यह फूल मात्र दो दिनों तक  खिला रहेगा, फिर मुरझा जाएगा ।
   
 पहली वनस्पति कैसे अस्तित्व मेंआई ?

    कई वर्षो पहले, १९६० के दशक में जीव वैज्ञानिक लिन मार्गुलस ने सबसे पहले यह विचार प्रस्तुत किया था कि सारे वर्तमान पेड़-पौधों की कोशिकाएं सहजीवी संबंधों के फलस्वरूप अस्तित्व में आई है । उनका मत था कि सुदूर अतीत में किसी समय किसी कोशिका ने एक सायनोबैक्टीरिया को कैद कर लिया था और यह सायनोबैक्टीरिया प्रकाश संश्लेषण कर सकता था । यह संबंध कुछ इस तरह विकसित हुआ कि सायनोबैक्टीरिया के प्रकाश संश्लेषण से बने पदार्थ मेजबान कोशिका को मिलने लगे और दोनों का जीवन चल निकला । उस समय मार्गुलिस के विचार की काफी आलोचना हुई थी मगर धीरे-धीरे इसके पक्ष में प्रमाण जुटते गए और आज यह लगभग एक मान्य सिद्धांत है । 
 ताजा अनुसंधान से पता चला है कि एक नन्ही सी शैवाल कोशिका ने एक सायनोबैक्टीरिया को निगल लिया था और आज के सारे पेड़-पौधे उसी एक भक्षण के परिणाम हैं । क्वीन्सलैण्ड विश्वविघालय की डैना प्राइस के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल ने एक नील हरित शैवाल के जिनेटिक अध्ययन के आधार पर उस मूल घटना को समझने के प्रयास किए हैं । 
        ऐसा ही एक नील-हरित शैवाल है सायनोफोरो पेराडॉक्सा । इसकी विशेषता यह है कि इसमें जो सायनोबैक्टीरिया पाया जाता है वह आज भी पूरी तरह इसका अंग नही बना है । सायनोफोरा पेराडॉक्सा के जीनोम के विश्लेषण से पता चला है कि सायनोबैक्टीरिया को निगले जाने की घटना जैव विकास में एक ही बार हुई क्योंकि सारी वर्तमान वनस्पतियों में वे जीन पाए गए है जिनकी बदौलत सायनोबैक्टीरिया को शैवाल कोशिका में समाहित करना संभव हुआ था ।

सबसे बूढा जीव हरा भरा है

 भूमध्य सागर में एक समुद्री घास मिली है, जिसके बारे में माना जा रहा है कि यह शायद दुनिया की सबसे प्राचीन जीव है । यानी फिलहाल जीवित समस्त जीवों में इसकी उम्र सबसे ज्यादा है । ऑस्ट्रेलिया के वेस्टर्न विश्वविघालय के कार्लोस डुआर्टे ने स्पैन से लेकर सायप्रस तक फैले ३५०० किलोमीटर समुद्र के पेंदे में ४० स्थानों से पोसिडोनिया ओशिएनिका नामक घास के नमूने प्राप्त् किए और उनके डीएनए की श्रृंखला का निर्धारण किया । देखा गया कि फॉरमेंटेरा द्वीप के निकट करीब १५किलोमीटर के क्षेत्र में इसकी डीएनए श्रृंखला हूबहू एक-सी पाई गई । 

 बाकी समुद्री घासों के समान पोसिडोनिया ओशिएनिका भी क्लोनिंग के जरिए प्रजनन करती है यानी इसके टुकड़े ही इसे फैलाने का काम करते   हैं । इसलिए काफी दूर-दूर तक फैले घास के गुच्छे जिनेटिक रूप में समान होते हैं और इन्हें एक ही जीव माना जाता है ।
    वर्तमान में इस पौधे की वृद्धि दर को देखते हुए, कार्लोस डुआर्टे के दल का मानना है कि फारमेंटेरा के निकट फैली घास के फैलाव के आधार पर कहा जा सकता है कि यह ८०,००० से २,००,००० साल पुरानी है । यानी यह दुनिया का सबसे बूढ़ा जीव है ।
    इससे पहले सबसे बूढ़े जीव का खिताब तस्मानिया में पाई जाने वाली समुद्री घास लोमेटिया तस्मानिका के नाम था । वह ४३,००० साल से जीवित है । यह तो सही है कि दो लाख साल से जीवित इस पौधे में गजब की जीजिविषा होगी मगर डुआर्टे का कहना है कि आज यह पौधा जलवायु परिवर्तन के चलते खतरे में है । भूमध्य सागर विश्व औसत से ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है और पोसिडोनिया ओशिएनिका के फैलाव में प्रति वर्ष ५ प्रतिशत की कमी आ रही   है । 

पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुव की खोज में
    न्यूजीलैण्ड के दो वैज्ञानिक अंटार्कटिका पर गए हैं यह देखने को कि पृथ्वी के दक्षिण चुंबकीय धु्रव की हालत क्या है । यह मात्रा दरअसल १०० साल पहले शुरू किए गए अभियान का हिस्सा है जिसे रॉबर्ट स्कॉट ने शुरू किया था ।
    पृथ्वी के चुंबकीय धु्रवों का हिसाब रखना इसलिए जरूरी होता है क्योंकि ये धु्रव अपनी जगह से सरकते रहते हैं । इनके अपनी जगह पर स्थिर न रहने का कारण यह है कि पृथ्वी का चुंबकत्व उसके बाहृा तरल कोर में पेंचीदा प्रवाह के कारण पैदा होता है । पिछली एक सदी में दोनों धु्रव उत्तर-पश्चिमी दिशा की ओर खिसकते रहे हैं - उत्तरी धु्रव कनाड़ा से साइबेरिया की ओर ६० किलोमीटर प्रति वर्ष की दर से खिसका है, तो दक्षिणी धु्रव ऑस्ट्रेलिया की ओर १०-१५ किलोमीटर प्रतिवर्ष की रफ्तार से । धु्रवों का यह विचलन पृथ्वी के चुंबकीय दोलन का एक सामान्य लक्षण माना जाता है और इसकी दिशा कभी भी बदल सकती है । 

 धु्रवों की स्थिति का सटीक मापन हमें उपग्रहों से प्राप्त् आंकड़ों को ठीक करने तथा वैश्विक मॉडल्स बनाने में मदद करता है । इस मॉडल को हर पांच वर्षो में दुरूस्त किया जाता है ।
    दुनिया भर में ४०० वेधशालाएं है जो पृथ्वी के चुंबकत्व का मापन नियमित रूप से करती रहती हैं । इसके अलावा विभिन्न राष्ट्र यदा-कदा मैदानी अध्ययन करके इसमें जानकारी जोड़ते हैं । ऐसी एक वेधशाला मुंबई के पास अलीबाग में स्थित है ।

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