शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

ज्ञान विज्ञान
लोगों का खाना चट कर रही हैं कारे
    दुनिया में पिछले कुछ वर्षो से जैव ईधन का काफी शोर हो रहा है । ऐसा कहा जा रहा है कि जैव ईधन का उपयोग करने से कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन कम होगा और जलवायु परिवर्तन की रफ्तार को थामने में मदद मिलेगी । मगर हाल में कुछ शोध संस्थाआें द्वारा की गई ताजा गणनाएं बताती हैं कि उत्सर्जन में जितनी कमी का दावा किया जा रहा है वह वास्तविकता से कोसों दूर है । इसके अलावा जैव ईधन के संदर्भ में एक मुद्दा यह भी है कि अधिकांश जैव ईधन का निर्माण प्रमुख खाद्य फसलों से किया जाता है । 


     यूरोप में जैव ईधन की बहस एक बार फिर शुरू हो गई है । यूरोप में २००९ की जैव ईधन नीति के मुताबिक वर्ष २०२० तक यातायात के कार्बन फुटप्रिंट में ६ प्रतिशत की कमी करने का लक्ष्य रखा गया था । इसके लिए प्रस्ताव यह था कि २०२० तक यातायात में प्रयुक्त ईधन का १० प्रतिशत नवीनीकरण स्त्रोतों से आने लगेगा । ऐसा माना गया था कि जैव ईधन कार्बन डाईऑक्साइड के संदर्भ में सामान्य जीवाश्म ईधन की तुलना में ३५ प्रतिशत की बचत   करेंगे । इस नीति के तहत यूरोप में जैव ईधन उद्योग खूब फला फूला ।
       मगर नई गणनाएं बता रही है कि कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में शायद उतनी कमी नहीं आएगी जितनी सोची गई थी । प्रिसंटन विश्वविघालय के पर्यावरण विशेषज्ञ टिम सर्चिगर का मत है कि उपरोक्त गणनाएं करते समय एक बात को अनदेखा किया गया था । जब खाद्यान्न फसलों का उपयोग जैव ईधन बनाने में किया जाएगा, तो खाद्यान्न उत्पादन के लिए नई जमीनों का इस्तेमाल करना होगा । ये नई जमीनें मूलत: जंगल काटकर या पड़ती भूमि को जोतकर प्राप्त् होगी । उनमें पहले से ही काफी सारा कार्बन स्थिर किया हुआ है । जब इन जमीनों का उपयोग किया जाएगा तो यह सारा कार्बन वातावरण में पहुंचेगा और उत्सर्जन में हुई किसी भी कमी को निरस्त कर देगा ।
    हालांकि भूमि उपयोग में परिवर्तन के ऐेसे परोक्ष असर की गणना मुश्किल काम है मगर मोटी-मोटी गणनाएं बताती हैं कि इससे जैव ईधन से मिलने वाले फायदों में दो-तिहाई तक की कमी आ जाएगी । यूरोप में इन आंकड़ों को लेकर अच्छी खासी खींचतान मची हुई है । एक तरफ पर्यावरण लॉबी है, तो दूसरी तरफ कृषि, जैव ईधन उद्योग तथा यातायात लॉबी   है ।
    इन लॉबियों के झगड़ों में एक बात छूट ही जा रही है कि जैव ईधन उत्पादन में खाद्य फसलों के उपयोग के चलते दुनिया भर में खाद्यान्न की कीमतें आसमान छू रही है । युरोप का जैव ईधन उद्योग आजकल अपने उत्पादन कार्य के लिए अरंडी और खाद्य तेल का आयात भी कर रहा है । वहीं यूएसए में जैव ईधन का उत्पादन मुख्यत: मक्का से किया जा रहा है ।

पंतगे चमगादड़ों को भटका देते हैं
    चमगादड़ और पतंगों के बीच सुरों की एक जंग पिछले करीब ६५ लाख सालों से छिड़ी हुई है और तू डाल-डाल, मैं पात-पात की तर्ज पर अभी भी अनिर्णित है । यह तो काफी समय से पता था कि टाइगर पतंगा समूह के पतंगे चमगादड़ों जैसी अल्ट्रा-ध्वनि सामने की ओर फेंकते हैं और उसके किसी चीज से टकराकर लौटने पर अंदाज लगाते हैं कि वह वस्तु कितनी दूर है, किस दिशा में है और किस तरह की है (यानी खाने योग्य है या नहीं) इसे प्रतिध्वनि से स्थिति निर्धारण या इकोलोकेशन कहते है । पतंगो द्वारा ठीक चमगादड़नुमा ध्वनि पैदा करने से इंकोलोकेशन की यह प्रणाली गड़बड़ा जाती है ।     


     पतंगो के व्यवहार को समझने के लिए व्यवहार जीव वैज्ञानिक जैसे बार्बर और जिनेटिकविद अकितो कावाहारा  बोर्नियो पहुंचे । यहां उन्होनें कुछ टाइगर पतंगों और कुछ हॉक पतंगों को प्रकाश से आकर्षित करके पकड़ा । अब इन पर चमगादड़ों की अल्ट्रा-ध्वनि की बौछार की गई तो इन पतंगो ने उसी तरह की जवाबी आवाज पैदा की । यह ध्वनि पतंगो की तीन प्रजातियों में सुनी गई ।    
    नर पतंगों ने ध्वनि पैदा करने के लिए अपनी टांगों के सिरों पर मौजूद चिमटेनुमा अंग (क्लेस्पर्स) का सहारा लिया । आम तौर पर वे इन क्लेस्पर्स की मदद से संभोग के दौरान मादा को पकड़कर रखते    है । नर पतंगो ने इन क्लेस्पर्स पर उपस्थित कड़क शल्कों को अपने पेट पर रगड़कर अल्ट्रा-ध्वनि पैदा की । दूसरी ओर मादा पतंगो ने अपने जननांग को थोड़ा अंदर की ओर खींचा ताकि उस पर मौजूद शुल्क उनके उदर से टकराएं और ध्वनि पैदा हो ।
    अभी वैज्ञानिक पक्की तौर पर नहीं कह सकते कि पतंगो में इस व्यवहार का मकसद क्या है । हो सकता है कि इस तरह की ध्वनि पैदा करके वे चमगादड़ोंसे बचने की कोशिश करते हों । यह भी हो सकता है कि यह अल्ट्रा ध्वनि चमगादड़ों के लिए एक चेतावनी होती हो, कि सामने जो पतंगा है उसकी टांगों पर सख्त कांटे हैं और वह उड़ने में दक्ष है ।
    बहरहाल, इस कीटों को व्यवहार का जो भी फायदा हो, मगर वैज्ञानिक देखना चाहते हैं कि कीटों की कितनी और प्रजातियों या कुलोंमें इस तरह का व्यवहार पाया जाता है ।
गैस भरी गेंद के संगीत से तापमापी
    ऐसा लगता है कि किलोग्राम और मीटर के बाद अब तापमान का मानक भी बदलने को है । एक गेंद में आर्गन गैस भरकर उसमें ध्वनि तरंगो को पार करके वैज्ञानिकों ने तापमान नापने का नया तरीका इजाद किया है और यह हमें तापमान का एक सटीक पैमाना देने वाला है ।
    तापमान की इकाई केल्विन है । इस पैमाने पर माना जाता है कि जिस तापमान पर पानी, बर्फ और वाष्प एक साथ साम्यावस्था में रहें वह २७३.१६ केल्विन यानी ०.०१ डिग्री सेल्सियस है । इसे पानी का ट्रिपल पॉइंर्ट कहते हैं । इसी के आधार पर शेष तापमान नापे जाते हैं । दिक्कत यह है कि जैसे-जैसे आप इस तापमान से दूर होते जाते हैं, मापन में त्रुटियां बढ़ती जाती हैं । 
 

    इस समस्या से निजात पाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय माप तौल समिति ने फैसला किया है कि केल्विन की परिभाषा एक प्राकृतिक स्थिरांक के आधार पर की जाए । यह स्थिरांक है बोल्ट्जमैन स्थिरांक । यह स्थिरांक किसी भी पदार्थ में अणुआें की ऊर्जा और उसके तापमान के बीच संबंध दर्शाता है । इसके आधार पर तापमान की गणना की जाए तो काफी ऊंचे व नीचे तापमान पर भी वह सही बैठती है ।
    अगली दिक्कत यह है कि बोल्ट्जमैन स्थिरांक का सही व सटीक मान कैसे निकाला जाए । इसका एक तरीका १९८८ में माइकल मोल्डोवर ने खोजा था । उन्होनें एक गेंद में आर्गन भरी और उसमें ध्वनि तरंगो को भेजा । अलग-अलग  आवृत्ति की ध्वनि तरंगों का आर्गन में वेग निकालकर उसकी मदद से वे अणुआें की ऊर्जा की गणना करने में सफल रहे थे ।
    इस गेंद में भरी आर्गन का तापमान तो उन्हें पता ही था । तो बोल्ट्जमैन स्थिरांक की गणना मुश्किल नहीं थी । उस समय मोल्डोवर और उनके साथियों ने कहा था कि यदि उनके द्वारा निकाले गए बोल्ट्जमैंन स्थिरांक में दस लाख भाग में १ भाग की भी त्रुटि पाई गई तो वे अपना उपकरण चबाने तक को तैयार हैं ।
    उन्हें वह उपकरण नहीं चबाना पड़ेगा । क्योंकि अब उन्हीं की विधि का उपयोग करके बोल्ट्जमैन स्थिरांक निकालकर तापमान को परिभाषित करने की कोशिश हो रही है । अब तक दो टीमों ने इस विधि से बोल्ट्जमैन स्थिरांक की गणना की है और उनमें थोड़ा अंतर आ रहा है । एक बार इस अंतर के कारण समझ में आ जाएं, तो अंतर्राष्ट्रीय नाप-तौल समिति फैसला लेने में देर नहीं  करेगी ।

कोई टिप्पणी नहीं: