मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

सामयिक
ग्रीन बोनस दे सकता है, सुरक्षा कवच
डॉ. भरत झुनझुनवाला

    उत्तराखंड एवं हिमाचल प्रदेश में लागू टैक्स की छूट के स्पेशल पैकेज को चार वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया है । इन पैकेजों का पर्यावरण पर भयंकर दुष्प्रभाव पड़ रहा है । उद्योगों को आकर्षित करने के लिए ये राज्य अपनी नदियों के एक-एक इंच बहाव को हाइड्रो पावर के लिए बांधों में बांधना चाहते हैं ताकि उद्योगों को बिजली मुहैया कराई जा   सके ।इस प्रकार आर्थिक विकास और पर्यावरण के बीच अंतर्विरोध पैदा हो रहा है । लेकिन पहाड़ी राज्यों को राहत देना भी जरूरी है । कठिन भूगोल के कारण इन राज्यों में उद्योग नहीं लग रहे हैं और इनका पिछड़ापन दूर नहीं हो रहा है । इस समस्या का उत्तम उपाय है कि टैक्स में छूट के स्थान पर इन्हें ग्रीन बोनस दिया जाये । 
     ग्रीन बोनस का आधार है कि मैदानी क्षेत्रों द्वारा फैलाये गये प्रदूषण को पहाड़ी क्षेत्र दूर करते हैं इसलिये उन्हे  इस कार्य को भुगतान किया जाना चाहिये । मैदानी राज्यों में उद्योगों एवं गाड़ियों द्वारा जहरीली कार्बन डाईऑक्साइड गैस को वायुमंडल में छोड़ा जाता है । पहाड़ी राज्यों के जंगलों द्वारा इस कार्बन को सोख लिया जाता है । मैदानी राज्य के लोग कार्बन उत्सर्जन के दुष्प्रभावों जैसे दूषित वायु के कारण होने वाले रोगों से बच जाते है । वायुमण्डल का तापमान कम हो जाता है और पंखा और एयरकंडीशनर को चलाने में लगने वाली बिजली की बचत होती हैं । लेकिन पहाड़ी राज्यों को हानि होती है । वे जंगल काटकर लकड़ी बेचने और खेती करने से वंचित हो जाते हैं । इसी प्रकार मैदानी राज्यों द्वारा नदियों में गन्दे पानी को छोड़ा जाता है । इस प्रदूषण को साफ करने की नदी की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि पहाड़ों में नदी का मुक्त बहाव कितना है । मुक्त बहाव में नदी का पानी पत्थरों से टकराता है और कॉपर तथा क्रोमियम सोख लेता है । इन धातुआें से नदी की प्रदूषण वहन करने की शक्ति में सुधार होता है । परन्तु नदी के मुक्त बहने के लिए पहाड़ी राज्यों को जल विद्युत परियोजनाआें से पीछे हटना पड़ता है । इससे पहाड़ को नुकसान और मैदान को लाभ होता है ।
    योजना आयोग ने कहा है कि जंगल संरक्षित करने के लिए पहाड़ी राज्यों को क्षतिपूर्ति की जानी चाहिये । सुप्रीम कोर्ट ने भी एक दशक पूर्व निर्णय दिया था कि जिन राज्यों में जंगल कम है, उनके द्वारा अधिक जंगल बचाने  वाले  राज्यों को भुगतान किया जाना      चाहिये । लेकिन मैदानी राज्यों द्वारा इस प्रस्ताव का विरोध किया गया था । तब हल निकाला गया कि केन्द्र द्वारा राज्यों को दिये जाने वाले अनुदान में पर्यावरण संरक्षण के लिए भी अंक दिये जाये । ऐसा करने से पर्यावरण का ध्यान रखने वाले राज्यों को अधिक रकम मिलेगी । हाल में योजना आयोग ने यह भी कहा है कि उत्तराखंड एव हिमाचल को प्लान खर्चो के लिए केन्द्रीय अनुदान बढ़ाकर दिया जायेगा क्योंकि वे प्राकृतिक संसाधनों का सरंक्षण कर रहे हैं जिसका लाभ पूरा देश उठा रहा है । लेकिन इस प्रकार के भुगतान से जंगलों और नदियों का संरक्षण होगा, इसमें संदेह  है । एक रपट के अनुसार बा्रजील के जंगलों को बचाने के लिए विदेशी डोनरों ने अरबों रूपये ब्राजील सरकार को दिये है परन्तु जंगलों का कटान जारी है ।
    इसी प्रकार अपने देश में पहाड़ी राज्यों को दिया जाने वाला यह अनुदान राज्य सरकारों द्वारा सामान्य खर्चो को पोषित करने में व्यय हो जायेगा और पर्यावरण की हानि पूर्ववत् बनी रहेगी । कारण यह कि दी जाने वाली रकम का संबंध वर्तमान कार्यकलापों से नहीं बल्कि पूर्व से उपलब्ध संसाधनों से है । अत: ग्रीन बोनस देने का ऐसा उपाय ढूंढना होगा कि पहाड़ी राज्यों के लिए जंगल और नदी को संरक्षित करना लाभप्रद हो जाये । इसी प्रकार वर्तमान में नदियों का जितना मुक्त बहाव है उसे बनाये रखने पर ही ग्रीन बोनस देना चाहिये । यदि राज्य द्वारा सड़क बनाने को कुछ जंगल नये स्थान पर लगाने पर ग्रीन बोनस देना चाहिये  ।
    दूसरा सुझाव है कि ग्रीन बोनस की रकम प्रभावित जनता को देनी  चाहिये । उत्तराखंड में पंचायतों की व्यवस्था है । ग्रीन बोनस इन पंचायतों को देना चाहिये । यह रकम भी जंगल और नदियों की स्थिति को नाप कर देनी चाहिये । पहाड़ी क्षेत्रों में गैस सिलेंडर की आपूर्ति घर पर और कम दाम पर करनी चाहिये । ग्रीन बोनस की रकम को सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिए उपयोग करना चाहिये ताकि जल विद्युत के लिए नदियों को नष्ट न किया जाये ।
    तीसरा सुझाव है कि निजी भूमि धारकों को खाली पड़ी जमीन पर जंगल लगाने के लिए अनुदान देना चाहिये । पहाड़ में खेती दुष्कर है जबकि जंगल लगाना सुलभ है । चीन में निजी जंगलों को लगभग २,२०० रूपये प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष दिया जाता है । पहाड़ी राज्यों द्वारा इस प्रकार अनुदान दिया जा सकता है ।    
    विषय का दूसरा पक्ष अन्य स्त्रोतों से मिलने वाली रकम है । यूरोपीय यूनियन द्वारा जारी एक पर्चे में ऐसे कई स्त्रोतों का विवरण दिया गया है । पहला कि निजी दानदाताआें द्वारा प्रकृति के संरक्षण के लिए दान दिया जाता है । दूसरा कि पर्यावरण से जुड़े राजस्व जैसे नेशनल पार्क की एंट्री फीस । तीसरा वन को लाभ पहुंचाने वाली संपदा जैसे शहद की बिक्री । मधुमक्खियां होगी तभी शहद बिकेगा । राज्य को इस प्रकार के राजस्व से जितनी प्रािप्त् हो उसके बराबर मैचिंग अनुदान केन्द्र द्वारा दिया जा सकता है ।
    पहाड़ी राज्यों को टैक्स में छूट के स्थान पर दीर्घकालीन ग्रीन बोनस दिया जाना चाहिये । टैक्स में छूट के प्रभावी होने में यंू भी संदेह हैं । गोवा में ऐसा ही छूट पूर्व में दी गई थी । पाया गया कि छूट में समािप्त् के साथ-साथ तमाम कम्पनियां गोवा छोड़कर वापस लौट गयी । उनका उद्देश्य गोवा का औघोगीकरण नहीं बल्कि टैक्स में छूट का लाभ उठाना मात्र था ।

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