मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

जनजीवन
पूंजीवाद का उदय
कश्मीर उप्पल

    वैश्विक अर्थव्यवस्था पिछली दो  सहस्त्राब्दियों में अनेक मोड़ों से  गुजरी है । तमाम उतार चढ़ाव के बावजूद लगता है कि पूंजीवाद अब अर्थव्यवस्था का एक स्थायी अंग बन गया है । 
    पूंजीवाद शब्द की व्युत्पत्ति 'पंूजी` शब्द से हुई है । अत: पूंजीवाद को धन के शास्त्र के रुप में देखा जाता हैं, लेकिन अब यह पूर्णत: गलत साबित हो चुका है । पूंजीवाद का एक तत्व पूंजी है परन्तु यह इसके अन्य तत्वों के बिना एक तरह से निष्क्रिय रहता है । पूंजी के अन्य घटकों में मशीनें, तकनीक, शक्ति के साधन, कच्च माल और  ज्ञान विज्ञान का स्तर है । आजकल इन सभी तत्वों मंे तकनीक सबसे प्रमुख बन  गई  है । अमरीका और यूरोप की तकनीक ही है जो दूसरे देशों में कच्च माल और बाजार की खोज में घूम  रही है  ।  गौरतलब है विश्व के अनेक देशों के पास धन तो है पर तकनीक नहीं है  ।
     पूंजीवाद की पहली अवस्था में कोलम्बस की 'खोज` के फलस्वरुप गुलामों के सस्ते श्रम से ही यूरोप में कृषि, और यातायात का तेजी से विकास शुरु हुआ था । पूंजीवाद का अर्थ सर्वप्रथम दो ऐसी पुस्तकों के माध्यम से चर्चित हुआ था जो अपनी अवधारणा में  परस्पर विरोधी हैं । एडम स्मिथ की पुस्तक 'वेल्थ ऑफ नेशन्स` को पूंजीवादी व्यवस्था की आधारशिला माना जाता है । एडम स्मिथ ने सरकार की भूमिका को कानून व्यवस्था       और जनकल्याण तक सीमित कर आर्थिक क्रियाकलापों से दूर रखा था । उनके अनुसार राज्य का काम शासन करना है न कि व्यापार करना । इस तरह पूंजीवाद मंे निजी क्षेत्र केवल  आर्थिक कार्यकलाप सम्पन्न करता      है ।
    प्रसिद्ध लेखक मारिस डॉब के  अनुसार पूंजीवादी प्रणाली पर चर्चा के  लिए मूलत: कार्ल मार्क्स जिम्मेदार हैं । कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजिल द्वारा सन् १८४८ में 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र` (कम्युनिस्ट मेनिफोस्टो) में पूंजीवाद के विभिन्न स्वरूपों की  चर्चा की गई थी । इसी घोषणा पत्र के  माध्यम से दुनिया के सामने 'पूंजीवाद का सत्य` उजागर हुआ था । इस घोषणा पत्र` में पूंजीवाद के संबंध मंे कहा गया है कि पूंजीपति से है मतलब आधुनिक पूंजीपति वर्ग से अर्थात सामाजिक उत्पादन के साधनों के स्वामियों और उजरती श्रम के मालिकों से है । सर्वहारा से मतलब आधुनिक उजरती मजदूरों से है, जिनके पास उत्पादन का अपना खुद का कोई साधन नहीं होता, इसीलिए वे जीवित रहने के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए विवश होते है ।`
    मार्क्स की इस परिभाषा से यह बात समझ में आनी चाहिए कि महात्मा गांधी चरखे को इतना महत्व क्यों देते थे । गांधीजी ने उजरती मजदूरों को जिनके पास उत्पादन का अपना खुद का साधन नहीं होता, को चरखे से उत्पादन का एक साधन प्रदान किया था । गांधी लघु एवं कुटीर उद्योगों के माध्यम से भी मजदूरों को जीवन की सुरक्षा प्रदान करना चाहते थे । गांधीजी के  इन  प्रयोगों के फलस्वरुप ही श्रमिक जीवित रहने के लिए अपनी श्रमशक्ति बेचने को बाध्य नहीं होते हैं ।
    पूंजीवाद मंे मजदूरों के एक बहुत बड़े वर्ग को उत्पत्ति के साधनों के स्वामित्व से अलग कर दिया जाता है । इस स्थिति में प्रतीत होता है कि श्रमिकों की जीविका भूमि, कच्च माल, और  बैकों आदि के स्वामियों पर निर्भर करती है । इसलिए देश के अधिकांश लोगों की जीविका, सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता देने वालों के रूप में पूंजीपतियों की भूमिका किसी राष्ट्र की भूमिका से भी बड़ी दिखने लगती है । वैसे पूंजीवाद में दो वर्ग होते हैं । एक उत्पादन के साधनों के स्वामी और दूसरा उजरती मजदूरों का ।
    प्रसिद्ध अर्थशास्त्री सोम्बार्ट ने अपने अध्ययन मंे मध्यकाल में  सम्पत्ति के कुछ हाथों में एकत्रीकरण का अध्ययन किया था । उनके अनुसार रोम के पोप और सामंतों के आदेश से कुलीन जागीरदारों और यूरोप के  व्यापारिक केन्द्रों के कुछ व्यक्तियों के हाथों में विशाल सम्पत्ति  एकत्रित होने लगी थी ।
    मध्यकाल में सर्वप्रथम दस्तकारी पूंजीवाद प्रारंभ हुआ था ।  इसमें व्यापारी अग्रिम राशि देकर कारीगरों    का माल खरीद लेते थे। इस माल को व्यापारियों द्वारा दुनिया के बाजारों में ऊँची कीमत पर बेचा जाता था । १६वीं शताब्दी से लेकर १८वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक व्यापारियों की आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी । इतिहासकार इसका उल्लेख व्यापारिक क्रान्ति के रूप में करते हैं । इसमें  मजदूरों की  यथास्थिति बनी रही और लाभ के रूप में अतिरिक्त पूंजी व्यापारियों के  हाथ में केन्द्रित होती      रही ।
    पश्चिम यूरोप के देशों में धर्म ने भी पूंजीवाद के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । प्रोटेस्टेंट सुधारों (रिफॉर्मस्) के फलस्वरुप सम्पत्ति का अधिकार, उत्तराधिकार का नियम, अनुबंध की स्वतंत्रता, स्वतंत्र बाजार, साख प्रणाली और राजनैतिक संगठनों ने पूंजीवाद के विकास हेतु आवश्यक आधार स्थापित किया था । धार्मिक केन्द्रोंद्वारा धन अर्जित करने  वाले साहसिक कार्यों का सम्मान किया जाने लगा था । इसके फलस्वरूप लोगों मंे अधिकतम धन अर्जित करने की भावना उत्पन्न हुई ।
    औद्योगिक क्रान्ति कोई अचानक होने वाली घटना नहीं थी । पन्द्रहवीं शताब्दी  के बाद लगभग १५० वर्षो में  इसका विकास काल फैला  हुआ था । युद्ध और व्यापार मंे विजय पाने के लिए 'व्यापारिक-पूंंजीवाद` ने विज्ञान को प्रोत्साहन दिया । सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में नये बाजारों (देशों) पर अधिकार के प्रश्न पर कई युद्ध हुए । ब्रिटेन ने अपनी सामुद्रिक शक्ति के बल पर पुर्तगाल, स्पेन, हालैण्ड और फ्रांस पर विजय प्राप्त की थी । आर्थर बर्नी के अनुसार ब्रिटिश साम्राज्यवादी राज्य को प्रारंभ मेंअमेरिका और बाद मंे भारत पर अधिकार से विशाल शक्ति प्राप्त हुई थी । भारत की आर्थिक लूट से प्राप्त सम्पत्ति से ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति की नींव रखी गई थी ।

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