शनिवार, 15 दिसंबर 2007

३ विशेष लेख

पर्यावरण और भारतीय दर्शन

डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

दर्शन का अर्थ अमूर्त का चिंतन करने का प्रयास है । जिसके द्वारा आत्मा, परमात्मा, प्रकृति और संपूर्ण जीवन के रहस्य को परिभाषित और उद्भाषित किया जाता है । दर्शन अनेकानेक जिज्ञासाएं जगाता है जैसे जीवन क्या है ? जीवन का हेतु क्या है ? संसार की प्रकृति क्या है? मनुष्य का इस संसार में अवतरण का उद्देश्य क्या है ? ईश्वरीय स्वरूप क्या है ? विकृति क्या है? जीवन-मृत्यु का रहस्य क्या है ? क्या इस दृश्यमान जगत से इतर कोई और लोक भी है ? यथार्थ क्या है? कल्पनाएं क्या है? पूर्नजन्म क्या है? कैसे रह पायेगी प्रकृति हमारी चिर संगनी ? कैसे संरक्षित और सुरक्षित रह सकेगा हमारा पर्यावरण ? इन्हीं तमाम जिज्ञासा मूलक प्रश्नों के गूढ़ार्थो पर चिंतन मनन करना और किसी निष्कर्ष पर ठहरना ही दर्शन है । सत्य से साक्षात्कार ही दर्शन है । सम्यक दृष्टि को पाना ही दर्शन है । संसार का प्रत्येक व्यक्ति अपने संचित अनुभवों के साथ सत्य को जानने का जिज्ञासु होता है । अत: सभी जन जन्मजात दार्शनिक ही होते है । आर.डब्ल्यू. सेलर्स नाम के विचारक ने दर्शन को वह प्रयास बतलाया है जिसके द्वारा हम अपनी प्रकृति के संबंध में क्रमबद्ध ज्ञान द्वारा सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त् करने की चेष्टा करते है । सृष्टि मेंसूक्ष्मदर्शी से विशालकाय सभी जीवों में जीवन का अक्षिम मिलता है किंतु जीवन यापन की जीवन जीने की कला जानने वाला ही तो सच्च योगी होता है । वह जीवन को सुंदरतम, अक्षय एवं पर्यावरण तथा प्रकृति से प्रतिपालित अभिव्यक्ति देता है । वह प्रकृति के अन्तरण चेतन्य और प्रकृतिमान बर्हिरंग, दोनों ही रूपिकाआे में सत्य शिव सुन्दर होता है । वह यर्थाथ जीवी होता है । परमार्थ कर्म करता है । शुभाशुभ दोनों ही स्थितियों में सत्य बोलता है । धर्म का आचरण करता है । लोभ का संभरण करता है वह स्वयं को जानता है ब्रह्म को जानता है समस्त सृष्टि में ब्रह्म का दर्शन करता है । आत्म प्रकाशित ओर आत्म प्रभाषित रहता है । वहीं व्यक्ति दूसरों को जान सकता है जो स्वयं को जानता हो , अपनी प्रकृति और पर्यावरण को जानता हो । वह जिज्ञासु होता है तथा उसे अपनी क्षमताआे का ज्ञान होता है । उसे इस बात का भी अनुमान होता है कि वह क्या कुछ और जान सकता है। वह संभावनाशील होता है। वह महिमावंत होता है । वह जानता है कि उसके जीवन का हेतु क्या है, उसे क्या करना चाहिए, उसका पुरूषार्थ क्या है, उसका धर्म क्या है । वस्तुत: वह मर्मज्ञ प्रकृति योगी होता है वह अपने कंधोंपर मृत संवेदनाएं नहीं ढोता है वरन वह आशान्वित रहता है और आशा ही जगाता है । यथार्थ का दर्पण दिखाता है और आदर्श का रास्ता भी । वह भक्ति में विश्वास रखता है विभक्ति में नहीं । वह संघात में विश्वास रखता है आघात में नहीं । वह परमात्मा में अटल विश्वास रखता है । जो परमात्मा में श्रृद्धा रखता है वहीं परात्पर प्रकृति और पर्यावरण को संरक्षित रख सकता है और उसे परिबर्धित कर सकता है । वस्तुत: यही षड् दर्शन का मूल है किंतु हम मूलत्व को भूलकर आकाश कुसुम सजाना चाहते हैं और दूसरी ओर पर्यावरण घ्वंस में संलग्न है । हमें अपनी कुत्साआे को विराम देना ही होगा । प्रकृति को संजोना ही होगा। दर्शन का संबंध विज्ञान से घनिष्ठता का होता है । चूंकि विज्ञान हमें वास्तविकता से परिचित कराता है । यथार्थ का दर्पण दिखाता है । विज्ञान का आधार सुविकसित सुव्यवस्थित ज्ञान होता है जो सदैव प्रकृति और पर्यावरण की चेतना संजोता है । सत्य का संबंध वातावरण से होता है । वह विचारशीलता, विश्वास, रीतियों-नीतियों तथा मूल्यों पर आधारित होता है । पर्यावरण परिरक्षण में आदर्शवाद हमारे दार्शनिक चिंतन का प्रथम सहकार है क्योंकि आदर्शवाद की धारणा है कि भौतिक जगत की अपेक्षा आध्यात्मिक जगत (स्प्रिचुअल वर्ल्ड) अधिक उत्कृष्ट एवं महान है क्योंकि भौतिक जगत मृर्त्य है मरण धर्मा है नाशवान है नश्वर है असत्य है जबकि आध्यात्मिक जगत विचार भावों, आदर्शो, मूल्यों तथा नीतियों पर आधारित है । ज्ञान मन और आत्मा से अभिव्यक्त है। जब हम गहन चिंतन करते हैं तो विचार हमें यथार्थ का बोध कराते है हम यथार्थवादी हो जाते है यथार्थवाद (रीयलिज्म) पदार्थो वस्तुआे के अस्तित्व संबंधी दृष्टिकोण देता है । जो कुछ भी जगत में दृश्य है वही सत्य है कहता है । प्रायोजनवादी (प्रेगमेटिज्म) प्रगतिशीलता को प्रमुखता देता है और क्रियाआे एवं चेष्टाआे पर आधारित होता है । इन सबको सम्यक दृष्टि से दार्शनिक रस्क ने देखा है और अपना नवयथार्थवादी दृष्टिकोण दिया है - ``नव यथार्थवाद का उद्देश्य एक ऐसे दर्शन का प्रतिपादन है जो सामान्य जीवन के सत्य तथा भौतिक विज्ञान के निष्कर्ष के अनुकूल हो ।'' यहाँ इस चिंतन की चर्चा इसलिए की गई है कि पर्यावरण अनुकूलता ही जीवन के लिए नितांत जरूरी है । प्रकृतिवादी (नेचुरेलिस्टक) प्रकृति मनुष्य तथा पदार्थो में केवल प्रकृति को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते है और प्रकृति की ओर लौटने का संदेश देते है । उनके अनुसार प्रकृति में गुरूतत्व होता है प्रकृति ही प्रथम शिक्षिका होती है । प्रकृति और पर्यावरण के कारक हमारी प्रवृत्तियों के विकास में सहायक होते हैं और वही सर्वाधिक प्रभावी भी होते है । हमारा जीवन इतना भौतिकतावादी हो गया है कि प्रकृति की ओर लौट पाना असम्भव प्रतीत होता है । रूसों ने प्रकृति की समीपता पाने पर जोर दिया है । आज आदमी कृत्रिम होकर रह गया है । यंत्रों के बीच काम करता हुआ स्वयं भी यांत्रिक होकर रह गया है । भौतिकतावादी हो गया है । रूसों ने अपनी पुस्तक ``एमील एण्ड एज्यूकेशन'' में सटीक टिप्पणी की है - ``प्रकृति के निर्माता के हाथों में सभी वस्तुएं अच्छे रूप में मिलती है, परन्तु मानव के सम्पर्क में आते ही वे सब दूषित हो जाती है।'' वास्तव में प्रकृति सत्य है शिव है सुन्दर है और महिमावंत है । यह हमारा पाप है कि हमने सौन्दर्यीपृक्त प्रकृति का चेहरा बिगाड़ा है उसमें अतिशय प्रदूषण कर डाला है । यदि दार्शनिक दृष्टि और आध्यात्मिक चिंतन से देखा जाये तो सम्पूर्ण विश्व ही वृहत परितंत्र है और मनुष्य इस तंत्र का एक घटक है साथ ही मनुष्य एक कारक भी है । यदि हमें अपने देह यंत्र को शक्ति सम्पन्न एवं महिमावंत रखना है तो दैहिक यंत्र को ब्रह्मांडीय यंत्र से तालमेल बनाये रखना होगा । गीता में भी कृष्ण ने स्वयं कहा है कि देह यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों की अर्न्तयामी परमात्मा अपनी माया से, उनके कर्मो के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है । (गीता १८/६१) हमारा समग्र जीवन दर्शन प्रभु महिमा का प्रकाशक है । सामवेद में लिखा है -``अरण्योनिर्हितो जातवेदा: ।'' अर्थात सर्वज्ञ परमात्मा रूपी अग्नि, ज्ञान और भक्ति रूपी अरणियों में अथवा देहरूपी अधरारणि में रखा हुआ है। जैसे अरिणयों की रगड़ से अग्नि उत्पन्न होती है वैसे ही ज्ञान और भक्ति के संघात से प्रभु के दर्शन होते हैं । जब हम जीवन दर्शन की बात करते हैं तो कुछ भारतीय व्यक्तित्व हमारे मानस पटल पर स्वयं उभर आते हैं जिन्होंने भारतीय चिंतन की धारा को वैश्विक स्तर पर प्रवाहित किया और प्रकृतिएवं पर्यावरण को व्यापक अर्थवत्ता प्रदान की। महात्मा गांधी उनमें से एक हैं जो सदैव ईश्वरवादी रहे । उन्होंने आत्मा को परमात्मा का अंश मानते हुए राम-रहीम में अभेद दृष्टि का उद्भाष किया :- ``ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान ।'' गाँधीजी ने ही कहा था कि ``प्रकृति पेट तो सबका भर सकती है किन्तु लालच किसी एक का भी पूरा नहीं कर सकती।'' उन्होंने सत्य अहिंसा प्रेम निर्भयता सजगता शालीनता सच्चिरत्रता और सत्याग्रह की शक्ति को पहचाना, यही था गाँधीजी का व्यवहारिक दर्शन जो सम्पूर्ण परिवेश के रक्षक रूप में आज भी प्रासंगिक है । महान कवि चिंतक विचारक रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन दर्शन भी आदर्शवाद पर अवलम्बित रहा । सत्यम् शिवम् सुन्दरम् को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने ईश्वर को सर्वोच्च् मानव के रूप में स्वीकार कर सृष्टि को ब्रह्म विवर्त अभिव्यक्ति के रूप में ग्रहण किया । उनका विश्वास अद्वैतवाद में अटल रहा । उन्होंने कहा कि हमें ईश्वर को खोजते हुए सत्य को वरण करने का प्रयास करना चाहिए । टैगोर ने सदैव मनुष्य और प्रकृति के बीच समन्वय की बात की, नैतिक मूल्यों को सर्वोपरि माना और राष्ट्रवाद को ऊपर माना। आध्यात्मिक चिंतक और विश्लेषक अरविन्द घोष भी आदर्शवादी थे उन्होंने अपने चिंतन में वेद-वेदान्त को पर्याप्त् महत्व दिया । उन्होंने विकास का लक्ष्य, अखण्ड चिन्मय दिव्य शक्ति और प्रकाश को माना । उन्होंने प्रकृति को संरक्षित, संस्कृति को वरणीय और विकृति को त्याज्य बतलाया । उन्होंने संशय व्यक्त किया कि भौतिक विकासवादी मानव कहीं अतिवादी होकर अपनी सहचरी प्रकृति को ही न झपटने लगे । उनका संशय सत्य सिद्ध हो रहा है यही हमारी चिंता और चिंतन का विषय है । स्वामी विवेकानंद ने जीवन को चुनौती के रूप में संघर्ष का पर्याय माना। उनके अनुसार संघर्ष में उत्तरजीवी ही विजयी होता है । समर्थ ही विजयी होता है । उन्होंने आदर्शात्मक स्थिति में रहते हुए वीरता का आव्हान किया और कहा -``याद रखें वीरता उसमें नहीं है कि हम किसको कितना डरा सकते है ।'' हमें इस बात का गर्व होना चाहिए कि ऐसे पग चिन्ह और पथरेख हमारे जीवन दर्शन की शाश्वत विभूतियों से हमें प्राप्त् हैं । फिर भी हम विनाश के बारूद के ढेर पर खड़े आक्रांत और भयाक्रांत है । इस डर का कारण हमारा अर्न्तमन है । इसी भयता को झटक कर हमें मंगलमयता का वरण करना है । सृष्टि का आदि धारक एवं भर्ता ऋत है, ऋतु चक्र है । जो नियति से निर्धारित है और वही हमारी चेतना को संपादित करता है । नियति का विधान ही भौतिक जगत को संचालित करता है और आध्याम्तिकता के मूल में स्थित परम् सत्य है । देखो ! प्रभु रचित काव्यमय सृष्टि नित्य नूतन और अक्षर जीती है ।``देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ।'' इस जैव अजैव सोमित्र जगत की गहनतम दैहिक दैविक भौतिक माँग है उन्नयन और प्रगति । यही तो प्रकृति की परात्पर गति है । यदि इसमें हमारी सन्मति हो तो सब कुछ आदर्श स्थिति में रहे । प्रकृति और पर्यावरण भी अक्षुण्य रहे प्राकृतिक उपादान भी प्रफुल्लित रहे और चहुँओर आह्लाद का प्रेमास्पद पान रहे । चराचर जगत में जो गति, प्रगति, विकास, परिवर्तन नर्तन, और हलचल है वह सब जीवन का और जीवंतता का लक्षण है। हम सभी इसके साथ श्रेयसता से जुड़े रहे और परमात्म चैतन्य रहें ।

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