शनिवार, 15 दिसंबर 2007

७ कविता

बोधिसत्व
डॉ. किशोरीलाल व्यास
वासंती पातों के
यौवन भरे रहित रूधिर-सा
ऊर्जा-पूरित, जिजीविषा के उत्स-सा
पत्ते-पत्ते की धमनियों में
मैं बहना चाहता हँू ।
सूरज की संजीवनी ऊर्जा को
मेरे अन्तस्थल में
हरे वृक्षों की तरह समेट लँू
ऊपर से तपूँ
भीतर से धरा से जुड़ जाऊं
रूप-रस-गंध का
आत्मीयता से युक्त-पय
मेरी माता से
कण-कण पाऊं
मृत-मृत्तिका से
प्राण-मय हो जाऊं ।
जुड़ जाऊं सारे चर-अचर से
पर्वतों से, काननों से
झर झर झरते झरनों से
सरसराती गंध पगी मलय पवनों से
नील-उन्मुक्त गगन से
पशु-पक्षियों से,
कण-कण से,
क्षण-क्षण से
और अद्वैत हो जाऊं ।
पेड़ों का मौन-प्रणव-नाद
गुंजायमान हो मेरी चेतना में
अनहद - नाद-सा
ओर मैं बोधिसत्व हो जाऊं !

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