बुधवार, 21 मई 2008

३ हमारा भूमण्डल

आटे दाल के भाव
सेव्वी सौम्य मिश्रा
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) ने अपनी खाद्य दृष्टिकोण रिपोर्ट में खाद्यानों के मूल्यों में आगामी १० वर्षो तक वृद्धि का अनुमान लगाया है । हाल ही के वर्षो में अधिकांश खाद्यान्नों की आपूर्ति में जहां कमी आई है वहीं भोजन, चारा व औद्योगिक उपभोग के बढ़ने से इनकी मांग में भी अत्यधिक वृद्धि हुई है । हालांकि २००७-०८ में वैश्विक खाद्य उत्पादन में ५ प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान तो है परंतु यह वृद्धि मक्का जो कि बायो इंर्धन में इस्तेमाल होने वाला मुख्य खाद्यान्न है, के उत्पादन में होगी । गेहूँ - दक्षिण पश्चिम अमेरिका और उत्तरी चीन में ठंड के मौसम में गेहूँ की कमजोर फसल के कारण फरवरी २००८ में गेहूँ की कीमतों में १५ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । दिसंबर २००५ व दिसम्बर २००७ के मध्य गेहूँ की कीमतों में जबरदस्त उछाल आया और इस दौरान यें प्रतिटन १६७ डालर से बढ़कर ३८१ प्रतिटन तक पहुंच गई और वर्तमान में ये ४४९ डालर प्रतिटन तक पहुंच गई है । कुल मिलाकर यह वृद्धि करीब ११५ प्रतिशत बैठती है । मूल्य वृद्धि का कारण विश्व में गेहूँ के दूसरे सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता राष्ट्र आस्ट्रेलिया में पड़ने वाला अकाल है । आस्ट्रेलिया में सामान्यता उत्पादन २५ मिलियन टन रह गया है । वही कनाडा, युरोपिय यूनियन, तुर्की और सीरिया में भी विपरीत मौसम की वजह से निर्यात में कमी आई है । गेहूँ की मांग बायोइंर्धन और चारे के रुप में बढ़ने से भी अंतराष्ट्रीय आपूर्ति प्रभावित हुई है । इस कमी की वजह से भारत को लगातार दूसरे वर्ष भी गेहूूँ का आयात करना पड़ा है । २००७-०८ में भारत ने ०.६८ मिलियन टन एवं २००६-०७ में ५.८ मिलियन टन गेंहूँ का आयात किया था । कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के अध्यक्ष टी.हक का कहना है कि २००८-०९ में भारत को गेहूँ के आयात की आवश्यकता नही होगी । वहीं एक अन्य अनुमान के अनुसार भारत को अपने भंडार में वृद्धि के लिए ३ मिलियन टन गेंहूँ का आयात करना पड़ सकता है । चावल - मार्च २००८ में चावल का मूल्य प्रति टन ५०० डालर की सीमा को पार कर गया जो कि पिछले २० वर्षो में अधिकतम है । जानकारी के अनुसार चावल की कीमत में दो गुनी से ज्यादा वृद्धि हुई है । फिलीपीन्स व अफ्रीकी देशों मेें बढ़ती मांग से भी यह मूल्यवृद्धि हुई है । साथ ही पाकिस्तान में बिजली की कमी से चावल मिलों का बंद होना और चीन एवं भारत द्वारा चावल निर्यात पर रोक लगाना भी इस मूल्य वृद्धि के अन्य कारण हैं । भारत ने जहां मेडागास्कर, मारीशस व समुद्री तूफान से ग्रस्त बांग्लादेश के लिए आंशिक छूट दी है वहीं चीन ने तो इसके निर्यात पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है । इसी दौरान वियतनाम ने फिलीपीन्स को टूटा हुआ चावल ७५० डालर प्रतिटन के भाव से बेचा । निर्यातकर्ताआें ने भी कीमतों में वृद्धि की संभावना के मद्देनजर चावल का भंडारण कर लिया है । वहीं पाकिस्तान में कुछ ही महीनों में चावल की कीमतों में ६० प्रतिशत की वृद्धि हुई है । मक्का - दिसम्बर २००५ से दिसम्बर २००७ के मध्य मक्का की कीमतें १०३ डालर प्रतिटन से बढ़कर १८० डालर प्रतिटन तक पहुंच गई । २००७-०८ में मोटे अनाजों के उत्पादन में ९ प्रतिशत की रिकार्ड वृद्धि हुई जिसमें मक्का का सर्वाधिक योगदान है । इसके बावजूद इसकी कीमतें पिछले १० वर्षो के अधिकतक स्तर २३० डालर प्रतिटन पर पहुंच गई । इसकी वजह है मक्का का बायोइंर्धन और चारे के लिए किया जाने वाला उपयोग । मक्का के निर्यात में अमेरिका की हिस्सेदारी ६० प्रतिशत से भी अधिक है । परंतु इस दौरान उसने इसकी एक चौथाई खपत बायो इंर्धन के उत्पादन में कर ली । इस कार्य में उसने २००६-०७ में बढ़कर ८१.३ मिलियन टन हो जाने के अनुमान है । तिलहन - पिछले डेढ़ वर्षो में सोयाबीन तेल और पाम आईल के भावों में जबरदस्त तेजी आई है । खाद्य पदार्थो में सर्वाधिक मूल्य वृद्धि इसी वर्ग में हुई है एवं इसके जारी रहने की संभावना भी है। पिछले एक वर्ष में पाम आईल की कीमतें ३५० डालर से बढ़कर १२५० डालर पर पहुंच गई यानि की इनमें करीब ३.५ गुना वृद्धि दर्ज की गई है । वहीं सोयाबीन तेल की कीमतें बढ़कर ४९९.४३ डालर पहुंच गई है । साथ ही सोयाबीन और सूरजमुखी के उत्पादन मेंं कमी भी इसके लिए जिम्मेदार है । वही पाम, पाम गिरी, गिरी, (खोपरा), रेपसीड व मुंगफली के तेल के उत्पादन में वृद्धि का अनुमान है। वैसे खाद्य तेलों की कीमतों में वृद्धि पामआईल के सबसे बड़े उत्पादक मलयेशिया में आई बाढ़ भी इसके लिए जिम्मेदार है । वहीं यूरोप में पामआईल को अधिक स्वास्थ्यवर्धक मानने से भी इसकी मांग में वृद्धि हुई है । स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चीन के एक स्टोर में प्रोत्साहन मूल्य पर तेल बेचे जाने के दौरान हुई भगद़़ड में ३ व्यकित्यों की मृत्यु हो गई और ३१ घायल हो गए । मलयेशिया में तो पारम्परिक वन क्षेत्रों को साफ करने वहां पाम का रोपण किया जा रहा है जिससे कि यूरोप की बायोइंर्धन की मांग का पूरा किया जा सके । डेरी एवं पोल्ट्री - प्रति व्यक्ति आय बढ़ने से डेरी उत्पाद की मांग में वैश्विक वृद्धि हुई है । चीन और भारत इसमें सबसे आगे हैं । जानवरों द्वारा अनाज की चारे के रुप में बढ़ती खपत से भी खाद्यानों की आपूर्ति को उस ओर मोड़ना पड़ रहा है । एफ.ए.ओ. के अनुसार २० वर्ष पूर्व के मुकाबले आज २००-२५० मिलियन टन अनाज की चारे के रुप में मांग बढ़ चुकी है । साथ ही इसने यह भी भविष्यवाणी की है कि विकासशील देशों में गाय, भेड़ और बकरी के मांस की मांग में वृद्धि होगी । वहीं विकसित देशों के मांस उत्पादन में कमी की आशंका है । एशिया खासकर भारत और चीन में दूध के उत्पादन में अधिकतम बढ़ोत्तरी हुई है । २००७ मेें जहां दूध की कीमतोंं में १२ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । वहीं २००८ में इसके उत्पादन में मात्र २.७ प्रतिशत की वृद्धि की संभावना है । दूसरी ओर मात्र यूरोप में सन् २०१४ तक ८ मिलियन टन अतिरिक्त दूध की आपूर्ति संभावित है । मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर बढ़ता ही जा रहा है । इसके लिये सिर्फ जनसंख्या वृद्धि को ही उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है, वृद्धि के लिये आंचलिक परिस्थितियां भी जिम्मेदार हैं। समाधान खोजने वाले भी दो समूहों जिनमें से एक जैव संवर्धित (जी.एम.) खाद्यान्नों की मूल्य वृद्धि का प्रमुख कारण है । सन् १९७३ में जब इन तेलों की कीमतों में वृद्धि हुई थी तब भी ऐसे ही परिणाम निकले थे । अमेरिका को कुल मकई / ज्वार उत्पादन का २५ प्रतिशत व मक्का का २० प्रतिशत सिर्फ बायोइंर्धन के उत्पादन में लग रहा है। अमेरिका अगले १५ वर्षो में इस उत्पादन मेंं दुगने से अधिक की वृद्धि चाह रहा है । इसके परिणाम स्वरुप खाद्य पदार्थो के मूल्यों में वृद्धि चाह रहा है । इसके परिणाम स्वरुप खाद्य पदार्थो के मूल्यों में वृद्धि तो होगी ही । विश्वबैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार एक मध्य आकार के वाहन में एक बार में जितना इथनाल भरा जाता है । वह एक व्यक्ति के साल भर के भोजन के लिए पर्याप्त् होता है । यूरोप के पर्यावरण आयुक्त स्टाव्रोज डिमास ने स्वीकार किया है कि यूरोपीयन युनियन द्वारा सन् २०२० तक `ग्रीन इंर्धन' की १० प्रतिशत की अनिवार्यता खाद्य पदार्थो की कमी एवं वर्षा वनों की समािप्त् से उत्पन्न होने वाले खतरों को कमतर आकना ही है । भारत भी इस ओर तेजी से कदम बढ़ाने की फिराक में है । गत् अक्टूबर में भारत सरकार ने तय किया है कि अगले वर्ष से पेट्रोल मे १० प्रतिशत इथनाल अनिवार्य रूप से मिलाया जाए । यह वर्तमान से दुगना होगा । इसके लिए भारत को गन्ने का १६ प्रतिशत अतिरिक्त उत्पादन करना होगा । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रवीण झा का कहना है कि ``हमें बायोइंर्धन उत्पादन की लागत को समझना चाहिए । बायोइंर्धन संयंत्र के लिए न केवल हम खनिज इंर्धन का अतिरिक्त प्रयोग करेंगे बल्कि जंगलों और मैदानी इलाकों की सफाई कर बायोइंर्धन फसल उगाएंगे ।'' दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन को भी महसूस किया जाने लगा है । हाल ही प्रकाशित रिपोर्टो के अनुसार मध्यपूर्व व उत्तरी अफ्रीका में बढ़ते तापमान से कृषि को नुकसान पहुंचने लगा है । साथ ही मांस व अन्य डेयरी उत्पादों की मांग में असाधारण वृद्धि ने भी खाद्यान्नों की कीमतों में बढ़ोत्तरी की है । एफ.ए.ओ. का अनुमान है कि अमेरिका, ब्राजील और मेक्सिको में मोटे अनाज के उत्पादन में रिकार्ड वृद्धि बायोइंर्धन एवं चारे की जरूरत की वजह से की गई है। युगांडा, अंगोला और मोजाम्बिक जैसे उच्च् आर्थिक विकास वाले अफ्रीकी देश भी अब अपने भोजन में चावल को प्राथमिकता देने लगे हैं क्योंकि इसको पकाना आसान है एवं घरेलू उत्पादन के बजाए इसका आयात भी आसान है । क्या भारत बढ़ती वैश्विक खाद्य मूल्यों से स्वयं को सुरक्षित रख पाएगा ? इसका कोई निश्चित या सर्वमान्य उत्तर दे पाना संभव नहीं है । कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इस वृद्धि पर आगामी तीन महीनों में रोक लग सकती है वहीं कुछ मानते हैं कि यह प्रवृत्ति लंबे समय तक बनी रह सकती है । कृषि मंत्रालय का अनुमान है कि रबी के मौसम में ७६ मिलियन टन गेहूँ का उत्पादन होगा वहीं दिल्ली स्थित इंस्टि्टयूट ऑफ इकोनॉमिकल ग्रोथ का मानना है कि देश में अधिकतम ७३ मिलियन टन गेहँू का उत्पादन हो सकता है । कृषि लागत व मूल्य आयोग ने चेतावनी दी है कि २००८-०९ में आवश्यक वस्तुआें के मूल्यों में व्यापक बढ़ोत्तरी होगी । साथ ही उसने इनकी आपूर्ति के प्रति भी शंका जाहिर की है । प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन का कहना है कि मांग और आपूर्ति के अलावा कई अन्य घटक जैसे खनिज तेल के मूल्यों में वृद्धि आदि भी खाद्यान्न मूल्य वृद्धि में सहायक है । कृषि में वैसे भी ऊर्जा का काफी उपयोग होता है । साथ ही खनिज तेल कीमतें ११० डालर प्रति बैरल पहुंचने से कृषि में प्रयुक्त होने वाले उत्पाद जैसे रासायनिक खाद व कीटनाशक भी महंगे हो जाएंगे । भारतीय उपभोक्ता द्वारा बढ़ती कीमतों से अधिक चुभन महसूस न किए जाने के पीछे यह कारण है कि यहां पर कीमतों को सब्सिडी के द्वारा नियंत्रण में रखा जाता है । इस क्रम में खाद्यान्न सब्सिडी जो कि २००६-०७ में २४ हजार करोड़ रूपए थी वह वर्तमान में बढ़कर ३१ हजार करोड़ रूपए तक पहुंच गई है । ऐसा ही खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी पर भी हुआ है । सब्सिडी के अलावा इसका एक अन्य कारण यह भी है कि हम धान और गेहँू दोनों ही उपजाते हैं इससे भी कीमतों को काबू में रखने में मदद मिलती है । हम हमारी घरेलू आवश्यकता का ९० से ९५ प्रतिशत तक स्वयं ही पैदा करते हैं इसलिए हमारा आयात भी कम है जिसे हम अधिक दरों पर भी खरीद सकते हैं । इंस्टि्टयूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ, दिल्ली के सी.एस.सी. शेखर का कहना है कि `निजी क्रेताआें द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक पर खाद्यान्न खरीद लेने के परिणामस्वरूप सरकार के पास इनके आयात के अतिरिक्त अन्य कोई चारा नहीं बचता हैं । आवश्यकता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य और खरीदी मूल्य को अलग-अलग किया जाए । सरकार को किसानों से बाजार मूल्य पर खाद्यान्न खरीदना चाहिए ।' वहीं एम.एस. स्वामीनाथन का कहना है कि कीटनाशक, खाद, बिजली इत्यादि जैसे विभिन्न कारकों के मूल्यांकन के पश्चात १५ प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य निकाला जाता है जबकि यह कम से कम ५० प्रतिशत होना चाहिए । किसानों के राष्ट्रीय आयोग ने भी आयात कम करने के लिए किसानों को आकर्षक प्रस्ताव देने को कहा है । कीमतों को काबू में रखने के लिए भारत सरकार को बहुत शीघ्रता से खाद्यान्नों की खरीद करना होगी । यह भी कहा जा रहा है कि यदि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय बाजार से १० से २० लाख टन खाद्यान्न खरीद लिया तो कीमतों में और भी उछाल आएगा । ठंड में तिलहनों के उत्पादन में कमी ने चिंता और भी बढ़ा दी है । क्योंकि खाद्य तेल के भाव बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं । वित्तमंत्री ने राज्यसभा को यह आश्वासन दिया है कि वे अपने तई मुद्रास्फीति को रोकने का पूरा प्रयत्न करेंगे जिससे कि गरीबों पर इसकी मार न पड़े। इस क्रम में खाद्य तेल के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया है । साथ ही गेहँू और चावल के निर्यात पर काफी हद तक रोक लगा दी है । इसी के साथ खाद्य तेलों के आयात शुल्क में भी व्यापक कमी की गई है । कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि निर्यात पर एक अल्पकालिक उपाय है एवं किसान विरोधी भी है । कृषि विशेषज्ञ स्वामीनाथन का कहना है कि पूर्वी भारत में अभी भी काफी संभावनाएं हैं । किसानों के लिए सही तकनीक, एक से अधिक फसल होने का प्रशिक्षण एवं सरकारी योजनाआें का लाभ लेना आवश्यक है ।***

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