रविवार, 24 अप्रैल 2011

जन स्वास्थ्य


दवा का मर्ज बन जाना
अंकुर पालीवाल

भारत में एलििनउाकल ड्रग ट्रायल (दवाई परीक्षण) पर सख्त नियमन न होने से अनेक दवाई कंपनियां बेरोकटोक एवं अनैतिक रूप से मरीजों को बिना संज्ञान में लिए उन पर परीक्षण कर रही है । इंदौर जैसे मध्यम आकार के शहर अब इसकी चपेट में है । संमाचार पत्रों में विज्ञापनों के माध्यम से परीक्षण के लिए मरीजों को इकट्ठा करना स्थितियों को और जटिल बना रहा है ।
अजय और पूजा उस दिन को धिक्कारते है जब वे अपने बच्चे को विशेष टीकाकरण कार्यक्रम में ले गए । अजय को पता चला कि मध्यप्रदेश के इंदौर शहर का एक सरकारी अस्पताल अनेक बीमारियां जिसमें पोलियो, स्वाइन फ्लू और पीलिया शामिल है के लिए मुफ्त टीकाकरण कर रही है । जो बात वही नहीं जानता था वह यह कि दवाई कंपनियां चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में वेक्सीन (टीकों )का परीक्षण कर रही है । दोनों अपने बेटे यथार्थ को अस्पताल ले गए । अगले ही दिन उसके पूरे शरीर पर सफेद दाग उभर आए । दूसरे ही दिन चिंतातुर होकर वे अस्पताल पहुंचे तो उनसे मात्र साबुन बदलने को कहा गया । परंतु दाग बढ़ते ही गए । उन्होनें अस्पताल से पुन: संपर्क किया तो इस बार डॉक्टरों ने उन्हें कुछ दवांइया दे दी । इसके बाद पिछले आठ महीनों से यथार्थ का लगातार इलाज चल रहा है ।
पांचवी तक पढ़ी पूजा का कहना है हमें अंग्रेजी में एक फार्म भरने का कहा गया। वहीं १० वीं उत्तीर्ण अजय का कहना है कि मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि अब मैं। क्या करूँ ? मैं नहीं चाहता कि मेरा बेटा इन सफेद दागों के साथ बढ़ा हो। वह बच्चे के उपचार में अब तक १५००० रूपए खर्च कर चुका है । साथ ही उसका कहना है कि मेरे साथ धोखा हुआ है । हम गरीब है तो क्या इसीलिए हमें जीने का हक नही है ? राज्य के स्वास्थ मंत्री महेन्द्र हार्डिया के अनुसार यथार्थ जैसे २००० बच्चोंपर इंदौर में टीकाकरण का परीक्षण चल रहा है उनमें से अनेक बुखार, चकत्ते और फोड़े फुंसियों से पीड़ित है ।
आर.टीआई का सच - यथार्थ की स्थिति की जानकारी मिलने पर एक सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता डॉ. आनन्द राय ने चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय से टीकाकरण परीक्षण के मामले में जानकारी पाने हेतु प्रार्थना पत्र दिया । प्राप्त् सूचना के अनुसार वैक्सीन से कुछ ऐसे रसायन थे जो अपनी प्रकृति में जहरीले थे । परंतु चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय के शिशु रोग विशेषज्ञ विभाग के प्रोफेसर डॉ. हेमन्त जैन का कहना है कि इन परीक्षणों की अनुमति ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीजीआई) ने दी थी और इसे वैक्सीन में प्रयोग किये गए किसी भी रसायन के कोई साइड इफेक्ट भी नहीं है । अपनी बात को विस्तार देते हुए जैन का कहना है अधिकांश ट्रायल तीसरे और चौथे दौर की है । इसमें से कुछ वैक्सीन तो बाजार में व्यापक रूप से उपलब्ध भी है ।
ट्रायल संचालित करने वाली दवाई कंपनियों के लिए अनिवार्य है कि वे संबंधित अस्पताल को वैक्सीन के विपरीत प्रभावों की जानकारी दें । इस पर डॉ. राय ने गत अक्टूबर में चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में सूचना का अधिकार कानून के अंतर्गत दूसरा प्रार्थना पत्र लगाया जिसमें दवाई कंपनियों द्वारा साईड इफेक्ट की सूची की मांग की गई थी । राय का कहना है कि सूचना का अधिकार के नियमों के अंतर्गत ३० दिन मे ं जवाब मिल जाना चाहिए । मुझे नहीं पता इतनी देर क्यों लग रहा है ।
अंतर्निहित रसायन - वेक्सीन में थियोमेरोसाल, रक्यूलीन फार्मलडिहाइड और ट्वीन - ८० का सम्मिश्रण है । डॉ. राय का कहना है इन रसायनों की सुरक्षा सिद्ध करने का कोई वैज्ञानिक तथ्य मौजूद नहीं है। उदाहरण के लिए थियोमेरोसाल जिसका प्रयोग इसे लम्बे समय तक वेक्सीन को सुरक्षित रखने के लिए होत है मैं इसके वजन का ५० प्रतिशत पारा होता है । नेशनल एक्रीडेशन बोर्ड फॉर हॉस्पीटल के सदस्य अजय गंभीर का कहना है हालांकि टीके में जितनी मात्रा पाई गई है उस मात्रा में थियोमेरोसाल हानिकारक नहींहै लेकिन अधिक मात्रा में लेने से इससे स्नायुतंत्र में गड़बड़ी हो सकती है ।
अमेरिका में ६ वर्ष और उससे छोटे बच्चें के लिए प्रति खुराक में थियोमेरोसाल की मात्रा या तो नहीं होती या बहुत कम मात्रा (०.५ मिली) ही होती है । जबकि रूस, डेनमार्क और आस्ट्रिया ने इसके उपयोग पर पूरा प्रतिबंध ही लगा दिया है । वहीं भारत में इसका स्वीकृत मात्रा २५-१०० माईक्रोग्राम प्रति खुराक है । राय का कहना है कि विकसित विश्व थियोमेरोसाल के उपोग के खिलाफ है । वहंीं भारत ने इसके मानकों में छूट दे दी है । इसी से स्वास्थ्य समस्याएं खड़ी हो रही है । भारत में सम्मिश्रण को लेकर वैसे तो कोई पैमाना ही नहीं है और यदि कही है भी तो बहुत ही लचर है ।
गंभीर का कहना है इसे स्वेअलीन, फार्मलडिहाइड और ट्वीन - ८० के मामलों में देखा जा सकता है । स्वेअलीन एक सहायक औषधि है जो कि वैक्सीन के संदर्भ मेंशरीर की प्रतिरोधक क्षकता बढ़ाती है और भारत में इकसे इस्तेमाल की सीमा परिभाषित नहीं की गई है । अमेरिका में इसका प्रयोग प्रतिबंधित है । फार्मलडिहाइड का इस्तेमाल वेक्सीन में बैक्टीरिया को असक्रिय करने के लिए होता है और ट्वीन-८० ऊपरी तनाव को कम करती है इन दोनों को भारत के अंदर ओर बाहर दोनों ही स्थानों पर इस्तेमाल होता है । जहां भारत में इन दोनों के इस्तेमाल के लिए कोई मानक तय नही है वहीं अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने इस हेतु मानक तय कर रखे है । डाउन टू अर्थ ने जब भारत के औषधि नियंत्रक से इनके प्रयोग की सीमा जानना चाही तो उन्होनें कोई जवाब नहीं दिया ।
सूचना का अधिकार के अंतर्गत चाही गई जानकारी मेंचाचा नेहरू बाल चिकित्सालय ने इन रसायनों के बीच का अंतर स्पष्ट नहीं किय । डॉ. राय का कहना है इन सबको एक औषधि के साथ मिला दिया गया है । यह आवरण धक्का पहुंचाता है । जब डाउन टू अर्थ ने औषधि निर्माताआें से जानना चाहा कि इनका वेक्सीन में क्यों प्रयोग किया जाता है तो उन्होने कोई जवाब नहीं दिया ।
मध्यप्रदेश के रतलाम नगर के विधायक पारस सखलेचा ने अक्टूबर २०१० में विधानसभा में प्रश्न पूछा था कि खतरनाक रसायन जिनका विकसित देशों में इस्तेमाल प्रतिबंधित है उनका हमारे बच्चों पर परीक्षण क्यों हो रहा है । इसके जवाब में सरकार ने अक्टूबर से मध्यप्रदेश में नए परीक्षणों पर तो प्रतिबंध लगा दिया लेकिन वर्तमान में हो रहे परीक्षणों को नहीं रोका ं सरकार ने इस संबंध में एक कमेटी का गठन भी कर दिया है लेकिन उसकी रिपोर्ट का अभी भी इंतजार है ।
नियमन की कमी - वेल्लोर स्थित क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेन के पूर्व विभागाध्यक्ष टी. जेकब जान का कहना है कि मुख्य समस्या सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के लचर नियमन की है । वहीं डॉ. राय का कहना भारत में अमेरिका की तरह वेक्सीन के दुष्परिणाम बताने हेतु वेक्सीन एडवर्स इवेन्ट रिपोर्टिंग सिस्टम भी नहीं है ।
लागत एक और बड़ी रूकावट है । भारत में बनने वाले अधिकांश वेक्सीन बहु खुराक (मल्टी डोज) होते है । जिसके लिए प्रिजरवेटिव इस्तेमाल करना आवश्यक है । जॉन का कहना है कि निर्माता को बजाए एकल खुराक (सिंगल डोस) वेक्सीन बनाने के बहु खुराक वेक्सीन बनाा सस्ता पड़ता है। विकसित देशों में प्रिजरवेटिव का इस्तेमाल न करने हेतु सिंगल डोज वेक्सीन को प्राथमिकता दी जाती है ै दिल्ली के सेंट स्टीफन अस्पताल के शिशु रोग विभाग के अध्यक्ष का कहना है कि इसका हल शोध और विकास हेतु अधिक धन मुहैया कराने में छुपा है ।
सुरक्षित विकल्प - वर्तमान में विश्वभर में पीलिया, पोलियो, टिटनेस और गर्भाश्य के कैंसल की वैक्सीन में एल्युमीनियम हाइड्रोऑक्साइड को सहायक औषधि के रूप में प्रयोग में लाया जाता है । अब दिल्ली के एक संस्थान में एक किस्म की आयुर्वेदिक सहायक औषधि की खोज कर ली है ै इसे दिल्ली स्थित रक्षा शोध एवं विकास संगठन के डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ फिजियोलॉजी एण्ड अलाइड साइंस ने विकसित किया है । इसे भारत में लेह और उत्तराखंड में पाई जाने वाली लेह बेरी की पत्तियों से बनाया गया है। इसका एक अन्य लाभ यह है कि इसके मिश्रण से वेक्सीन को ३ वर्ष तक सुरक्षित रखा जा सकता है । रासायनिक सहायक औषधि मात्र ४ माह तक औषधि को सुरक्षित रख पाती है ।
हैदराबाद स्थित भारत बायोटेक ने पहली बार हेपेटाईटिस- बी के लिए थियोमेरोसाल मुफ्त वेक्सीन का निर्माण किया है । बार - बार अनुरोध करने के बावजूद कंपनी ने वेक्सीन निर्माण में इस्तेमाल किए गए विकल्प का खुलासा नहीं किया । ***

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