बुधवार, 9 नवंबर 2011

कविता

मुझे अच्छे लगते है जंगल
हेमन्त गुप्त पंकज
मुझे अच्छे लगते है जंगल
जंगलों का घनापन
पेड़ों के पुरसुकून साये
रंग-बिरंगे सुरभित कुसुम
और उन पर
अठखेलियां करते प्रेमाकुल भ्रमर
इठलाती तितलियाँ
मुझे अच्छी लगती हैं
मुझे अच्छे लगते है
स्वच्छ नीले आकाश में
उमड़ते-घुमड़ते बादल
विहंगो की बेफिक्र उड़ाने
उनका उच्चरित स्वर लयबद्ध
मुझे अच्छा लगता है ।
अच्छे लगते है मुझे पाषाणों पर
कल-कल बहते झरने
चलती-बहती बयार
निर्विकार
और बयार से हिलती
अभिवादन करती सी
फल-फूलों से समृद्ध टहनियाँ
अच्छी लगती है मुझे
मुझे अच्छे लगते हैं जंगल
क्यों कि ये जंगल ही तो हैं
जो मानव को पुरूषार्थ का पाठ पढ़ाते हैं
परामर्थ का महत्व सिखाते हैं
जंगल ही जन्मदाता है वर्षा के
अभिभावक हैं वायु के
पर्याय हैं परोपकार के
और इससे भी आगे
संवेदनशीलता के
मानक उद्वरण है ये
हर्ष का उद्बेग
प्रफुल्लित करता हैं इन्हें
आहत भी होते है ये
वेदना की अनुभूति से
मुझे अच्छे लगते है जंगल
निष्कलुष
जंगल में विचरण
अच्छा लगता है मुझे
अच्छी लगती हैं
पदार्थ और प्राण की
अनवरत के लिए-क्रीडाएँ
मनभावना
यह प्रकृति की मनोरम नाट्यशाला
अच्छी लगती है
अच्छा लगता है
हरियाली का
उत्साहमय अनुपम संसार
जो करता है
मेरे अंतस में
निरन्तर
जीवन का संचार
मुझे अच्छे लगते है जंगल

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