बुधवार, 9 नवंबर 2011

हमारा भूमण्डल

निर्धनतम देश : वादे हैं वादों का क्या
मार्टिन खोर

आर्थिक उदारीकरण के विनाशकारी परिणामों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चार दशकों में अत्यन्त अविकसित राष्ट्रों की संख्या २५ से बढ़कर ४७ हो गई है । इससे यह स्थापित हो जाता है कि आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था गरीब देशों के शोषण पर न केवल टिकी है बल्कि इस शोषण में दिनों - दिन वृद्धि हो रही है ।
इस्तानम्बुल में सम्पन्न हुई संुयक्त राष्ट्र संघ की बैठक का मुख्य विषय दुनिया के निर्धनतम राष्ट्रों की स्थिति पर विचार करना था । इसमें तकरीबन ५० राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों एवं सैकड़ों मंत्रियों ने भाग लिया था । दुनिया भर में ४७ अत्यन्त अविकसित देश हैं । इसमें से ३३ अफ्रीका में और १४ एशिया प्रशांत क्षेत्र में स्थित हैं । इनकी सम्मिलित जनसंख्या ८० से ९० करोड़ के मध्य है । वर्ष १९७१केवल २५ अत्यन्त अविकसित देश थे । लेकिन पिछले चार दशकों में इनकी संख्या दुगुनी हो गई है और इनमें से मात्र तीन देश विकासशील देशों की श्रेणी में आ पाए हैं । इन अत्यन्त अविकसित देशों में गरीबी, बद्तर स्वास्थय स्थितियों और बेरोजगारी की निरंतरता चिंता का विषय है ।
पिछले दशक के दौरान इन अत्यन्त अविकसित देशों में काफी अच्छी आर्थिक वृद्धि दर दर्ज की गई थी । पंरतु यह वृद्धि अत्यन्त अविकसित देशों द्वारा वस्तुआें (कच्चा माल) के निर्यात की वजह से हुई थी, न कि औद्योगिक या कृषि विकास के कारण । २००८-०९ में आई वैश्विक मंदी के कारण वस्तुआें की बिक्री में कमी आई और इस वजह से इनकी अर्थव्यवस्था बैठ गई । पिछले वर्ष कच्चे माल की कीमतों में पुन: तेजी आई थी लेकिन विश्व अर्थव्यवस्था की वर्तमान धारा से प्रतीत हो रहा है कि स्थितियां पुन: पलट सकती हैं । विश्व अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव की वजह से यह अत्यन्त अविकसित देश और भी अधिक संकट में पड़ जाएंगे । अत्यन्त अविकसित देशों के चौथे संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन ने एक बार पुन: अवसर दिया है कि एक दशक पूर्व हुए सम्मेलन के बाद समीक्षा कर सकें कि इस दौरान इन गरीब राष्ट्रों के साथ क्या हुआ और विकसित देश इनकी मदद हेतु नए सिरे से प्रतिज्ञान कर सकें ।
दुर्भाग्यवश अमीर देश अपने द्वारा जताई गई प्रतिबद्धता के नवीनीकरण की मनोदशा में ही नहीं थे । अनेक यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं ऋण संकट मेंफंसी हुई हैं, अमेरिकी राजनीतिज्ञ सरकारी खर्चो में कमी के प्रति लालायित है और जापान भूकंप और सुनामी की वजह से वैसे ही आपातकाल में है । इस तरह अमीर देश सार्थक मदद हेतु या तो अनिच्छुक या असमर्थ है ।
इस्ताम्बुल कार्ययोजना कार्यक्रम में स्पष्ट कहा गया है कि उपरोक्त देश अपने सकल राष्ट्रीय उत्पाद का ०.२ प्रतिशत अत्यन्त अविकसित देशों को देते रहे हैं और भविष्य में भी देते रहेगे । जो देश ०.१५ प्रतिशत के लक्ष्य तक ही पहुंचे है, वे वर्ष २०१५ तक अपने लक्ष्य को पूरा करने का प्रयत्न करेंगे । जिन सिविल सोसायटी समूहों ने इस सम्मेलन में भागीदारी की थी, उन्होनें इस खामी की निंदा की है । इन देशों के नागरिक समूहों के नेता अर्जुन कर्की ने कहा है कि हमे धक्का लगा है और निराशा हुई है । वहीं कंबोडिया के गैर सरकारी संगठन सिलिका के निर्देशक थिडा खस का कहना है इस सम्मेलन की असफलता का ठीकरा विकसित राष्ट्रों की आर्थिक मदद करने में असफल रहे हैं ।
वैसे भी अत्यन्त अविकसित देशों की बिगड़ती स्थिति के लिए अमीर देश कम जिम्मेदार नहीं हैं । साथ ही पिछले सम्मेलन में अपने द्वारा किए गए वादों से मुकरने से भी इन गरीब देशों को हानि पहुंची है । उदाहरण के लिए जलवायु परिवर्तन इन अत्यन्त अविकसित देशों की प्रमुख समस्या है । क्योंकि इसके कारण उन्हें बाढ़ की बढ़ती समस्या, कृषि की घटती उत्पादकता और अन्य समस्याआें का सामना करना पड़ रहा है । साथ ही कोई नया वायदा न करने से भी इन राष्ट्रों के सामने सकंट और गहरा गया है ।
विकसित राष्ट्रों द्वारा नई तकनीकों से भी इन राष्ट्रों को वंचित रखा जाना इनकी गरीबी बढ़ा रहा है । इसके बावजूद इन देशों ने जलवायु संबंधी समस्याआें को अपनी राष्ट्रीय विकास योजनाआें में समाहित किया है । ये वादे संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन के प्रस्तावों से भी आगे के है ।
इस सम्मेलन में विकासशील देशों ने प्रयत्न किया है कि इन देशों को विकसित देशों द्वारा दी गई ९७ प्रतिशत उत्पादों को कर मुक्त करने के वादे को बढ़ाकर १०० प्रतिशत कर देना चाहिए। परन्तु इस दिशा में पहल का अभाव नजर आया । जो थोड़ी बहुत प्रािप्त् इन देशों को हुई भी है उस भी यूरोपीय संघ ने मुक्त व्यापार समझौता कर लेने से पानी फिर जायएगा । इसी के साथ अपने ८० प्रतिशत आयात पर कर सीमा को शून्य पर लाने से इन राष्ट्रों पर नया सकंट आ जाएगा । इसी के साथ उन्हें अपने सेवा, निवेश एवं सरकारी खरीदी व्यापार को भी खोलना पड़ेगा ।
इन तरह इन अत्यन्त अविकसित राष्ट्रों के लिए आने वाला समय और भी संकटपूर्ण हो सकता है । क्योंकि अब तो उनकी विकास योजनाआें की भी लगातार समीक्षा की जाएगी । इस सम्मेलन की वास्तविक सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि विकसित देशों द्वारा किए गए वायदों की सतत् निगरानी की जाए ।

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