गुरुवार, 22 मार्च 2012

२५ साल पहले

होली बनाम पर्यावरण की होली
पीयूष माथुर

सुपर सोनिक गति से कटते-उजड़ते वन और बैलगाड़ी से भी धीमी गति से बसते वनों भी रफ्तार को देखकर भविष्य में पर्यावरण की कल्पना मात्र से ही शरीर में भय मिश्रित सिहरन उत्पन्न हो जाती है । जो पेड़ आज हमें दिखायी देता है, वह कल नहीं दिखता और जो पेड़ हमने कल बोया था, वह आज नहीं दिखता है ।
यह तो पर्यावरण के प्रति अलगाव भावना और साथ ही काष्टोपज की बढ़ती आवश्यकता का परिणाम है, लेकिन समाज में लकड़ी में आवश्यक उपयोगों ने इस समस्या को और अधिक बढ़ाया है । नि:संदेह हम एक दिन में वन नहीं तैयार कर सकते, लेकिन लकड़ी का सही उपयोग कर के एक दिन में ही कई लाख टन लकड़ी बचा सकते है । होलिका दहन में लकड़ी का बढ़ता प्रयोग चिंताजनक है ।
होली हर्ष, उल्लास एवं पारस्परिक सौहार्द का सबसे अधिक रंग-बिरंगा त्यौहार माना जाता है, लेकिन हमारे रूढ़िवादी दृष्टिकोण, अंधविश्वास और गतवर्ष से इस वर्ष बढ़ी होली जैसे गलत प्रतियोगिता से होलिका दहन अप्रत्यक्ष रूप से वन-दहन का कार्यक्रम बन जाता है । पूरे गांव/नगर की एक होली के स्थान पर प्रत्येक नगर/गांव और मोहल्लोंमें साथ अब तो घर पर भी होली जलाने की गलत परम्परा विकसित हो रही है, इसे सीमित करने की आवश्यकता है ।
होलिका दहन एक प्रतीक की स्मृति मात्र है, इससे किसी भी जाति संप्रदाय या धार्मिक आस्था का सीधा संबंध नहीं आता है । आज जबकि वृक्षों की कमी के कारण भविष्य में ईधन और हरियाली की समस्या खड़ी हो गयी है, ऐसे में यदि हमारी किसी भावना को ठेस पहुंचती हो तो भी संपूर्ण मानवता के हित में हमें कुछ ठोस कदम उठाने होंगे ।
धार्मिक भावनाआें और प्राचीन परम्परा निर्वाह के दृष्टिकोण से प्रत्येक नगर में सामूहिक रूप से एक स्थान पर होली जलायी जा सकती है । इस प्रकार का कार्य सरल नहीं है, लेकिन शहर/नगर के पर्यावरण प्रेमी नागरिक समाजसेवी संस्थायें समाचार पत्र और महिला संगठन मिलकर प्रयास करें तो असंभव प्रतीत होने वाला यह कार्य भी संभव हो सकता है। हमारे यहां लगभग ७५ प्रतिशत नागरिक अपने मन में इस दहन में औचित्य के प्रति अविश्वास/संदेह रखते है तो फिर प्रयोग के बतौर ही सही एक बार दृढ़ होकर इस विरोध को सामुदायिक शक्ति में परिवर्तित कर दे हो सकता है, इससे लकड़ी में वार्षिक दुरूपयोग समारोह का हम नयी दिशा दे सके ।
दरअसल होली का आज जो स्वरूप हो गया है उससे पर्यावरण का नुकसान ही हो रहा है । होलिका दहन में पेड़ों की आहूति कंडे एवं रूचि अपशिष्टों का अपव्यय जहरीलें रंग-रसायनों और आईल पेंटस का चेहरे पर लगाना और उनका घुल कर पेट में जाना, चमड़ी को प्रभावित करना, लोगों में नशावृत्ति को बढ़ावा इससे लड़ाई/झगड़ों में वृद्धि और पेयजल की बर्बादी आदि बातें प्रमुख है, जो प्राकृतिक/सामाजिक पर्यावरण को बिगाड़ती है । यह भी देखने में आया है कि अधिकांश तरूणों का नशे से प्रथम परिचय होलिकोत्सव के दौरान होता है । यह परिचय बाद में आदत बन जाता है । अत: हमें मानवता के समग्र कल्याण के लिये होलिका दहन की प्राचीन परम्परा को सामयिक परिस्थितियों के अनुसार पर्यावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से नया परिवेश प्रदान करते हुए सामंजस्यकारी प्रयास करने होंगे तभी यह असंभव कार्य संभव हो सकेगा ।
(पर्यावरण डाइजेस्ट के मार्च १९८७ अंक में प्रकाशित)

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