गुरुवार, 22 मार्च 2012

स्वास्थ्य

खतरे मेंहै एचआईवी अधिनियम
सोनल मथारू

संयुक्त राष्ट्र संघ का लक्ष्य है कि वर्ष २०१५ तक एचआईवी के नए मरीजोंपर रोक लग सके । लेकिन वैश्विक आर्थिक संकट के चलते इस दिशा में कार्य करने में रूकावटें खड़ी हो रही है । वहीं दूसरी ओर भारत सरकार एड्स पीड़ितों के उपचार को लेकर स्वयं को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने में हिचकिचा रही है । ऐसे में एक ओर वर्तमान में संक्रमित मरीजों और दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र संघ के लक्ष्यों की प्रािप्त् असंभव सी नजर आ रही है ।
पिछले वर्ष अक्टूबर में दिल्ली स्थित सरकारी अस्पताल में एक एचआईवी पीड़ित महिला के नवजात शिशु को नेविरापाईन की खुराक देने से इंकार कर दिया था । मां से बच्च्े को एचआईवी का हस्तान्तरण रोकने वाली इस औषधि को जन्म के ७२ घंटो के अंदर दिया जाना अनिवार्य है । राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नेक) के दिशानिर्देशों के अनुसार अस्पतालों में नेविरापाईन का मौजूद होना अनिवार्य है । लेकिन अस्पताल के अधिकारियों से यह लिखकर देने की जिद करने पर कि अस्पताल में उपरोक्त औषधि उपलब्ध नहीं है, के पश्चात ही उन्होनें बच्चें को यह औषधि दी । एक अन्य घटना में एक एचआईवी पीड़ित महिला को फुटपाथ पर ही अपने बच्चें को जन्म देना पड़ा क्योंकि अस्पताल में उसे भर्ती करने से मना कर दिया था ।
मुद्रिका जो कि दिल्ली में स्वतंत्र रूप से एड्स पीड़ितों के साथ कार्य करती हैं, ने इस घटना पर दुख जताते हुए कहा कि इस बीमारी से पीड़ित लोगों को प्रतिदिन इसी तरह के भेदभाव एवं असमानता का सामना करना पड़ता है । अन्य नागरिक समूहों के साथ मिलकर वे संघीय स्वास्थ्य मंत्रालय से मांग कर रही हैं कि वह संसद के शीतकालीन सत्र में एचआईवी/एड्स अधिनियम पारित करवाए । स्वास्थ्य विभाग द्वारा स्वास्थ्य सेवा कार्यकर्ताआें, अधिवक्ताआें, गैर सरकारी संस्थानों एवं एड्स के मरीजों के साथ चार वर्ष तक विचार विमर्श करने के पश्चात सन् २००६ में इस संबंध में एक अधिनियम का मसौदा तैयार किया था जिसमें भेदभाव के खिलाफ धारा के साथ ही साथ मुफ्त जांच एवं उपचार का भी प्रावधान था ।
लेकिन स्वास्थ्य एवं कानून, मंत्रालयों की अकर्मण्यता के चलते अधिनियम की प्रस्तुति में विलंब हो रहा है। एडवोकेसी समूह लायर्स कलेक्टिव के वरिष्ठ अधिकारी रमन चावला का कहना है संसद में इस अधिनियम को प्रस्तुत किए जाने की मांग करने गए प्रतिनिधित्व मंडल से स्वास्थ्य मंत्री गुलाब नबी आजाद ने कहा कि सरकार मुफ्त इलाज को लेकर स्वयं को कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं बनाना चाहती । इस अधिनियम को वर्ष २००७ में कानून मंत्रालय को भेजा गया था । तब से यह दोनों मंत्रालयों के बीच उलझ रहा है । विश्व एड्स दिवस (१ दिसम्बर २०११) पर आजाद ने आश्वासन दिया था कि अधिनियम जो कि वर्तमान में कानून मंत्रालय के पास है, १० दिन के भीतर स्वास्थ्य मंत्रालय के पास लौटा दिया जाएगा । नागरिक समूह इस बात से निराश है कि स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा कानून मंत्रालय को भेजे गए अधिनियम के बारे में उन्हें कुछ भी नहीं बताया जा रहा है । उन्हें यह भी डर है कि अधिनियम को इस तरह तोड़ मरोड़ दिया गया होगा जिससे कि उपचार हेतु पहुंच ही सीमित हो जाएगी । कामनवेल्थ, ह्यूमन राईट्स इनिशिएटिव (राष्ट्रमंडल मानवाधिकार पहल) के वेंकटेश नायक का कहना है कि प्रस्तावित अधिनियम को इस तरह रोके नहीं रखा जा सकता ।
सरकार के एचआईवी संबंधी वर्तमान कार्यक्रम में प्रथम चरण का एंटी रिट्रोवायरल (एआरवी) उपचार नि:शुल्क उपलब्ध है लेकिन दूसरे चरण का उपचार (उन लोगों के लिए जिनकी प्रथम चरण के खिलाफ प्रतिरक्षा पैदा हो गई है) आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता है । एआरवी की वजह से सामने आए संक्रमणों जैसे चेहरे पर निशान या अंधत्व से संबंधित औषधियां तो अस्पतालों में बहुत ही कम मिल पाती है । अंधत्व का शिकार हुए मरीजों को दिए जाने वाले इंजेक्शन गुनासायक्लोविर का मूल्य ४५००० रूपये प्रति खुराक है । गैर सरकारी संगठन नई उमंग के अध्यक्ष प्रदीप दत्ता का कहना है इस इंजेक्शन के न मिल पाने की वजह से मेरे तीन साथी अंधे हो चुके हैं । यूएन एड्स के राष्ट्रीय समन्वयक चार्ल्स गिलक्स का कहना है एक अच्छा कानून एचआईवी प्रभावित मरीजों को बिना भेदभाव के उपचार की पहुंच को सुनििचशत बना देगा ।
भारत के एचआईवी/एड्स कार्यक्रम के सामने बढ़ता वैश्विक धन संकट भी है । राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम को धन उपलब्ध करवाने वाली अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां अब केवलनिम्न आय वाले देशों को ही धन दे रही हैं । लायर्स कलेक्टिव के निर्देशक आनंद ग्रोवर का कहना है भारत को अब एक मध्य आय वर्ग देश के रूप में गिना जाने लगा है । नाको को वर्तमान दौर (२००७ से २०१२ तक) में २५ प्रतिशत धन सरकार से, बचा हुआ विश्व बैंक एवं ब्रिटेन के अंतर्राष्ट्रीय विकास एवं वैश्विक कोष विभाग (डीआईएफडी) जैसी संस्थाआें से प्राप्त् होता है । अगले दौर (२०१२ से २०१७ में) अनेक एजेंसियों द्वारा हाथ खींच लेने की वजह से धन की आवक में कमी आने की संभावना है । इस कमी को पूरा करने के लिए नाको के अन्तर्गत आने वाली कुछ गतिविधियों जैसे कंडोम को प्रोत्साहित करना, को राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में समाहित करने पर विचार चल रहा है । गिलक्स का कहना है यह अनुमान लगाया जा रहा है कि नाको के बजट को लेकर यथास्थिति बनाए रखी जाएगी । लेकिन इसके अन्तर्गत केवल रोकथाम ही रहेगा । संयुक्त राष्ट्र के वर्ष २०१५ के नए संक्रमणों के शून्य लक्ष्य की प्रािप्त् के लिए उपचार केन्द्र एवं कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने के लिए और अधिक धन की जरूरत पड़ेगी ।

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