मंगलवार, 10 जून 2014

कविता
पर्यावरण अनमोल है
आदर्शनी श्रीवास्तव  दशी
     गर्विता, शीतल, स्वच्छ, निर्मल धारा,
    मानिनी, माँसल, क्षीण कटि गंगधारा ।
    उछलती दौड़ती रूकती भागती,
    प्रस्तर चूम जीवन लुटाती गंगधारा ।।
बहती थी जल प्रवस्विनी कल-कल कहाँ-कहॉ,
पदार्थों, रसायनों  को हमने ही छोड़ा जहाँ-तहाँ ।
उन नदियों को देखों आज कितनी है व्यथित,
भय ग्रस्त मार्ग छोड़ भटक रही यहाँ-वहाँ ।।
हरे स्निग्ध गात पर स्वयं ही रीझ-रीझ
मखमली आँचल में टाँक फूल बीच-बीच ।
मद्धम तीव्र पवन से जब डोलते है वृक्ष,
रोगी को देख उनका मन जाता है पसीज ।।
विचरता वन, में प्रेमिल किन्तु कैसे है मानव,
नष्ट करने को मुझे कभी बन जाते है दानव ।
चलती है आरियाँ तो सिसकता है मन मेरा,
दिल धड़कता, साँस चलती उन सा ही है मेरा ।।
कर्ण-विदारक ध्वनियों का भला यहाँ क्या काम,
शोर कष्ट देता तन-मन को करता बे-आराम ।
शान्त बहती सरगम से होता प्रज्ञा का विकास,
खत्म हो व्यर्थ ध्वनियाँ वरना, बस मालिक होगा राम ।।
पर्यावरण अनमोल है अपना रखना होगा ख्याल,
जल हो, वायु या फिर ध्वनि हो रखें इसे सम्हाल ।
संतुलित यदि ये नहीं रहा, मिट जायेगा संसार,
जीवन दे प्रकृतिमाँगे हमसे बस थोड़ा सा प्यार ।।

कोई टिप्पणी नहीं: