विशेष लेख
खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण एवं दाले
तारादत्त जोशी
दालें पूरे विश्व में भेाजन का महत्वपूर्ण अवयव हैं । स्वास्थ्य को पोषकता प्रदान करने, भूमि की उर्वरता बनाये रखने और पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करने की दालों में अद्भूत शक्ति है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष २०१६ को अन्तर्राष्ट्रीय दाल वर्ष घोषित किया है ताकि जनमानस में दालों की पोषकता, भूमि की उर्वरता एवं खाद्य सुरक्षा की दृष्आि से जागरूकता पैदा की सके ।
जहाँ तक खाद्य सुरक्षा का प्रश्न है किसी क्षेत्र या देश विशेष को तब खाद्य सुरक्षित माना जा सकता है जबकि उस देश या क्षेत्र विशेष में पर्याप्त् मात्रा में खाघान्न उपलब्ध हो, खाद्यान्न की देश के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँच और प्रत्येक व्यक्ति के पास खाद्यान्न क्रय करने की क्रय शक्ति हो ।
खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण एवं दाले
तारादत्त जोशी
दालें पूरे विश्व में भेाजन का महत्वपूर्ण अवयव हैं । स्वास्थ्य को पोषकता प्रदान करने, भूमि की उर्वरता बनाये रखने और पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करने की दालों में अद्भूत शक्ति है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष २०१६ को अन्तर्राष्ट्रीय दाल वर्ष घोषित किया है ताकि जनमानस में दालों की पोषकता, भूमि की उर्वरता एवं खाद्य सुरक्षा की दृष्आि से जागरूकता पैदा की सके ।
जहाँ तक खाद्य सुरक्षा का प्रश्न है किसी क्षेत्र या देश विशेष को तब खाद्य सुरक्षित माना जा सकता है जबकि उस देश या क्षेत्र विशेष में पर्याप्त् मात्रा में खाघान्न उपलब्ध हो, खाद्यान्न की देश के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँच और प्रत्येक व्यक्ति के पास खाद्यान्न क्रय करने की क्रय शक्ति हो ।
स्थाई खाद्य सुरक्षा तब होगी जबकि खाद्य सुरक्षा वर्तमान पी़़ढी के साथ-साथ भावी पीढ़ी को भी उपलब्ध होगी । यह तब संभव है जबकि संसाधनों का इस प्रकार दोहन किया जाये, जिससे वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताआें की पूर्ति होने के साथ-साथ वे भावी पीढ़ी के लिए भी बचे रहे ।
स्थाई खाद्य सुरक्षा प्राप्त् करना पूरे विश्व के लिए एक चुनौती है क्योंकि एक ओर तो पूरे विश्व में उत्पादन की आधुनिक तकनीकों के प्रयोग से जनसंख्या की वर्तमान आवश्यकताआें को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है । किन्तु फिर भी पूरे विश्व में जनसंख्या के बड़े भाग को पर्याप्त् खाघान्न और आवश्यक कैलोरी प्राप्त् नहीं है । दूसरी ओर ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि उत्पादन क्षमता से अधिक उत्पादन लिये जाने के कारण भूमि की उर्वरता में लगातार गिरावट हो रही है जिससे भविष्य में बढ़ती हुई जनसंख्या की मांग के अनुरूप खाद्यान्न का उत्पादन बहुत बड़ी चुनौती है । जबकि कृषि योग्य भूमि का लगातार निम्नीकरण हो रहा है ।
सन २०५० तक विश्व की जनसंख्या लगभग १० अरब होने का अनुमान है । यदि अभी से खाद्य सुरक्षा हेतु पोषणीय प्रयास नहीं किये गये तो भविष्य में गंभीर खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ सकता है । ऐसी स्थिति में दालों का उत्पादन स्थाई खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से लाभकारी सिद्ध हो सकता है क्योंकि दालों में भूमि को पोषण प्रदान करने की अद्भूत क्षमता है ।
भूमि की उर्वरता और दालें -
स्थाई खाद्य सुरक्षा के लिए भूमि की उर्वरता को बनाये रखना आवश्यक है । किन्तु वर्तमान में रासायनिक खादों के प्रयोग में निरन्तर वृद्धि से भूमि की उर्वरता में लगातार गिरावट हो रही है । दालें भूमि की उर्वरता को बनाये रखने का महत्वपूर्ण साधन हैं । क्योंकि
(१) अधिकाश दालों की जड़ों में गाँठनुमा संरचनाएं होती हैं । इन गाठों में राइजोवियम जीवाणु होते हैं । ये जीवाणु वायुमण्डल में उपस्थित नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदलकर नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर देते हैं जिससे धरती की उर्वरता बनी रहती है । अत: फसलचक्र में दालों के उत्पादन द्वारा रासायनिक खादों में निर्भरता को कम करके भूमि की उर्वरता को बनाये रखा जा सकता है ।
(२) दालों के उत्पादन के लिये अन्य फसलों की तुलना में कम पानी की आवश्यकता होती है । सतही अपवाह के असमान वितरण और अनियमित वर्षा के कारण फसलों की सिंचाई के लिए भूमिगत जल पर निर्भर रहना पड़ता है । एक अनुमान के अनुसार विश्व में कुल आहरित जल का ७० प्रतिशत कृषि क्षेत्र में प्रयुक्त होता है । दालों के उत्पादन से सिंचाई हेतु भूमिगत जल पर निर्भरता कम होगी और पानी की बचत होगी ।
(३) अनेक दालें सूखारोधी होती हैं । इन्हें ३०० से ४०० मिमी तक सीमान्त वर्षा वाले क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है । इन क्षेत्रों में अन्य फसलों का उत्पादन या तो नहीं होता है या फिर वे बहुत कम उत्पादन देती है । ऐसे क्षेत्रों में दालों के उत्पादन द्वारा खाद्य सुरक्षा को प्राप्त् किया जा सकता है । क्योंकि दालें अपनी जड़ों द्वारा वर्षा जल को अवशोषित कर भू-जलस्तर में वृद्धि करती है जिससे आगामी फसल के लिए धरती में नमी बनी रहती है । अत: ऐसे सूखे क्षेत्रों में जहाँ पर खाद्य सुरक्षा प्राप्त् करना एक चुनौती है दालों का उत्पादन लाभकारी हो सकता है ।
पोषक तत्व और दालें :-
आज कुपोषण एक विश्वव्यापी समस्या बनी हुई है । दालों में सभी पोषक तत्व भरपूर मात्रा में पाये जाते हैं । अत: दालों का उत्पादन बढ़ाकर कुपोषण की समस्या को आसानी से दूर किया जा सकता है क्योंकि -
(१) विश्व के अधिकांश देशों में मांस, मछली, अण्डा, दूध तथा दुग्ध उत्पाद जैसे प्रोटीन के स्त्रोत महंगे होने के कारण गरीब जनसंख्या की पहॅुंच से बाहर होते हैं । इन स्त्रोतों के लिए दालें प्रोटीन का सबसे सस्ता और सुलभ स्त्रोत हैं । अत: दालों के उत्पादन में व्यापक रूप से वृद्धि करके उनकी गरीब जनसंख्या तक पहॅुंच बनाकर उसकी कैलोरी संबंाी आवश्यकताआें को आसानी से पूरा किया जा सकता है ।
(२) माँस, मछली, दूध आदि प्रोटीन के स्त्रोतों को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखना संभव नहीं हो पाता है । जबकि प्रोटीन के स्त्रोत के रूप में दालों का जीवनकाल लम्बा होता है । इन्हें दो-तीन वर्ष तक आसानी से बचाया जा सकता है । ग्रामीण क्षेत्र में लोग पारम्परिक पद्धति से दालों को बचा लेते है और इनकी पोष्टिकता में कमी नहीं होती है ।
(३) दालों में लगभग सभी पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं । सामान्यतया आहार में प्रयुक्त होने वाली प्रमुख दालों में निम्नवत पोषक तत्व उपलब्ध होते हैं :-
(१) अरहर - दाल के रूप में अरहर का बहुत अधिक प्रयोग होता है । यह तुर या तुअर नाम से भी जानी जाती है । इस दाल में पोटेशियम, सोडियम, विटामिन-ए, बी१२ एवं विटामिन-डी पाया जाता है ।
(२) चना - चने की दाल सबसे अधिक प्रोटीन एवं फाइबर युक्त होती है । इसमें जिंक, फोलेट और कैल्शियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है । इस दाल में मौजूद ग्लाइसमिक इंडेक्स मधमेह के रोगियों के लिये लाभदायक है । ऐनिमियाँ, पीलिया और डिसेप्थिया से चना की दाल निजात दिलाती है ।
(३) मसूर - मसूर की दाल पोषक तत्वों का खजाना कहलाती है । इस दाल में एल्यूमिनियम, जिंक, कापर, आयोडीन, मैग्नीशियम, सोडियम, फास्फोरस और क्लोरीन के साथ-साथ विटामिन बी१ तथा डी पाया जाता है ।
(४) मँुग दाल - मुँग की दाल में ५० प्रतिशत प्रोटीन, ४८ प्रतिशत फाइबर, २० प्रतिशत कार्बोहाइट्रेड और १ प्रतिशत सोडियम होता है । आइरन, सोडियम और कैल्शियम युक्त यह दाल रोगियों और गर्भवती महिलाआें के लिये लाभकारी होती है ।
(५) उड़द - उड़द की दाल सबसे अधिक पौष्टिक होती है । इसमें प्रोटीन, विटामिन बी, थायमिन, राइबोफ्लेविन, नियासिन, आइरन, कैल्शियम, घुलनशीरेशा और स्टार्च पाया जाता है ।
(६) कालीबीन - अत्यधिक फालेट युक्त इस दाल में सोडियम, कैल्शियम, विटामिन ए, बी तथा डी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । कालीबीन में मौजूद फाइबर रक्त में ग्लुकोज की मात्रा को बढ़ने से रोकता है । यह दाल मधुमेह और हाइपोग्लाइसीमियाँ के रोगियों के लिए लाभदायक है ।
(७) लोबिया - विटामिन ए, बी२ और विटामिन डी युक्त यह दाल अत्यधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है । इसमें कैल्शियम भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है ।
(८) पर्यावरण और दालें -पर्यावरण और कार्बन फूट फ्रिट की दृष्टि से भी दालों का उत्पादन लाभकारी है । क्योंकि प्रोटीन के अन्य स्त्रोतों की तुलना में दालें कम कार्बन का उत्सर्जन करती है और पानी की बचत करती है ।
भारत के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो यहाँ पर दालें कीमतों में वृद्धि के कारण चर्चा का विषय बनी हुई है । उत्पादन में स्थिरता, उपलब्धता में कमी तथा माँग और पूर्ति के बीच असन्तुलन कीमत वृद्धि का कारण है। परिणामस्वरूप देश की आय का एक बहुत बड़ा भाग दालों के आयात पर तो खर्च हो ही रहा है । साथ ही बहुत बड़ी आबादी की पोषक सुरक्षा भी प्रभावित हो रही है ।
भारत में अधिकांश जनसंख्या गरीब है । दालें, गरीबों का प्रोटीन कहलाती है । दालें भारत की जीवन शैली में सम्मिलित हैं । गरीब व्यक्ति किसी तरह दाल रोटी चल रही है, कहकर अपनी विपिन्नता को प्रकट करता है तो अमीर व्यक्ति ईश्वर की कृपा से दाल रोटी चल रही है, कहकर अपनी स्थिति को प्रकट करता है । यद्यपि सरकार दालों को आयात कर स्थिति सामान्य करने का प्रयास कर रही है। किन्तु कीमतों में फिर भी कमी नहीं हो रही है ।
भारत दालों के कुल वैश्विक उत्पादन का २५ प्रतिशत उत्पादन कर, विश्व का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश है किन्तु जनसंख्या अधिक होने और घरेलू मांग के अनुरूप उप्तदन न होने के कारण भारत विश्व का सबसे बड़ा दाल उपभोक्ता और आयातक देश भी है । कुल वैश्विक उपभोग का २७ प्रतिशत और कुल आयात का १४ प्रतिशत आयात भारत द्वारा किया जाता है । २००९ से २०१४ के मध्य देश में १६.४५ मि. टन दालों का आयात किया गया है और ३९२८५ करोड़ रूपये खर्च किये गये हैं ।
यद्यपि दालों के बोये जाने वाले क्षेत्रफल में १९५०-५१ से २०१३-१४ तक ३१ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । इसी अवधि में दालों के उत्पादन में १०० प्रतिशत वृद्धि हुई है और प्रति हैक्टेयर उत्पादन भी ४६ प्रतिशत वृद्धि के साथ ४४ किलो हेक्टेयर से ७६४ किलोग्राम/हेक्टेयर हो गया है । किन्तु इसी अवधि में जनसंख्या तीन गुना से अधिक वृद्धि हुई है । १९५०-५१ में जनसंख्या ३६.१ करोड़ थी जो २०११ में १२१.१ करोड़ हो गयी है । जिस कारण दालों की माँग में वृद्धि हो रही है । साथ ही कीमतें भी निरन्तर बढ़ रही है ।
यद्यपि १९५० से २०१३-१४ तक दालों के बोये जाने वाले क्षेत्रफल कुल उत्पादन और प्रति हेक्टयर उत्पादन में वृद्धि हुई है, किन्तु प्रति व्यक्ति दाल उपलब्धता में कमी आयी है । १९७१ में देश में प्रतिव्यक्ति दाल उपलब्धता ५१.५ ग्राम/प्रतिदिन थी जबकि २०१३ में यह घटकर ४१.९ ग्राम/प्रतिदिन हो गयी । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रतिव्यक्ति/दिन दाल उपलब्धता ८० ग्राम होनी चाहिए । ऐसी स्थिति में दालों की अनुपलब्धता और कीमत वृद्धि से गरीब जनसंख्या की प्रोटीन संबंधी आवश्यकताएं प्रभावित हो रही है । दालें गरीबों को प्रोटीन का सस्ता स्त्रोत होती हैं और इनमें गेहूं और चावल की अपेक्षा दो गुना प्रोटीन पाया जाता है ।
२०३० तक भारत की जनसंख्या बढ़कर १.६८ मिलियन (१६८ करोड़) हो जायेगी और इस समय देश को लगभग ३२ मिलियन टन दालों की आवश्यकता होगी । इस अतिरिक्त आवश्यकता की पूर्ति के लिए दालों के बाये जाने वाले क्षेत्रफल और प्रति हेक्टर उत्पादन दोनों में वृद्धि करने की आवश्यकता है ।
दालों के उत्पादन में वृद्धि करके,स्थाई खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त् करने के प्रयास करने होगे । दालों के उत्पादन और बोये गये क्षेत्रफल में वृद्धि करके भूमि की उर्वरता में तो वृद्धि होगी ही साथ ही पानी की बचत होगी । गरीब जनसंख्या की प्रोटीन संबंधी आवश्यकताआें की पूर्ति होगी और कुपोषण की समस्या से भी छुटकारा पाया जा सकता है । दलहनों का उत्पादन किसानों के लिये भी लाभकारी होगा ।
किन्तु वर्तमान समय में किसान अपनी कृषि भूमि को प्लाटों के रूप में बेचकर लाभ कमाने को आय का साधन बनाने लगे है । कृषि भूमि में रियल स्टेट का कारोबार फलने-फूलने लगा है । उपजाऊ जमीन पर कांक्रीट के जंगल विहने लगे हैं । अत: स्थाई खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त् करने के लिये कृषि योग्य उपजाऊ जमीन की बचत करने के साथ-साथ किसानों में भी कृषि के प्रति आत्मविश्वास पैदा करने की आवश्यकता है ।
स्थाई खाद्य सुरक्षा प्राप्त् करना पूरे विश्व के लिए एक चुनौती है क्योंकि एक ओर तो पूरे विश्व में उत्पादन की आधुनिक तकनीकों के प्रयोग से जनसंख्या की वर्तमान आवश्यकताआें को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है । किन्तु फिर भी पूरे विश्व में जनसंख्या के बड़े भाग को पर्याप्त् खाघान्न और आवश्यक कैलोरी प्राप्त् नहीं है । दूसरी ओर ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि उत्पादन क्षमता से अधिक उत्पादन लिये जाने के कारण भूमि की उर्वरता में लगातार गिरावट हो रही है जिससे भविष्य में बढ़ती हुई जनसंख्या की मांग के अनुरूप खाद्यान्न का उत्पादन बहुत बड़ी चुनौती है । जबकि कृषि योग्य भूमि का लगातार निम्नीकरण हो रहा है ।
सन २०५० तक विश्व की जनसंख्या लगभग १० अरब होने का अनुमान है । यदि अभी से खाद्य सुरक्षा हेतु पोषणीय प्रयास नहीं किये गये तो भविष्य में गंभीर खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ सकता है । ऐसी स्थिति में दालों का उत्पादन स्थाई खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से लाभकारी सिद्ध हो सकता है क्योंकि दालों में भूमि को पोषण प्रदान करने की अद्भूत क्षमता है ।
भूमि की उर्वरता और दालें -
स्थाई खाद्य सुरक्षा के लिए भूमि की उर्वरता को बनाये रखना आवश्यक है । किन्तु वर्तमान में रासायनिक खादों के प्रयोग में निरन्तर वृद्धि से भूमि की उर्वरता में लगातार गिरावट हो रही है । दालें भूमि की उर्वरता को बनाये रखने का महत्वपूर्ण साधन हैं । क्योंकि
(१) अधिकाश दालों की जड़ों में गाँठनुमा संरचनाएं होती हैं । इन गाठों में राइजोवियम जीवाणु होते हैं । ये जीवाणु वायुमण्डल में उपस्थित नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदलकर नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर देते हैं जिससे धरती की उर्वरता बनी रहती है । अत: फसलचक्र में दालों के उत्पादन द्वारा रासायनिक खादों में निर्भरता को कम करके भूमि की उर्वरता को बनाये रखा जा सकता है ।
(२) दालों के उत्पादन के लिये अन्य फसलों की तुलना में कम पानी की आवश्यकता होती है । सतही अपवाह के असमान वितरण और अनियमित वर्षा के कारण फसलों की सिंचाई के लिए भूमिगत जल पर निर्भर रहना पड़ता है । एक अनुमान के अनुसार विश्व में कुल आहरित जल का ७० प्रतिशत कृषि क्षेत्र में प्रयुक्त होता है । दालों के उत्पादन से सिंचाई हेतु भूमिगत जल पर निर्भरता कम होगी और पानी की बचत होगी ।
(३) अनेक दालें सूखारोधी होती हैं । इन्हें ३०० से ४०० मिमी तक सीमान्त वर्षा वाले क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है । इन क्षेत्रों में अन्य फसलों का उत्पादन या तो नहीं होता है या फिर वे बहुत कम उत्पादन देती है । ऐसे क्षेत्रों में दालों के उत्पादन द्वारा खाद्य सुरक्षा को प्राप्त् किया जा सकता है । क्योंकि दालें अपनी जड़ों द्वारा वर्षा जल को अवशोषित कर भू-जलस्तर में वृद्धि करती है जिससे आगामी फसल के लिए धरती में नमी बनी रहती है । अत: ऐसे सूखे क्षेत्रों में जहाँ पर खाद्य सुरक्षा प्राप्त् करना एक चुनौती है दालों का उत्पादन लाभकारी हो सकता है ।
पोषक तत्व और दालें :-
आज कुपोषण एक विश्वव्यापी समस्या बनी हुई है । दालों में सभी पोषक तत्व भरपूर मात्रा में पाये जाते हैं । अत: दालों का उत्पादन बढ़ाकर कुपोषण की समस्या को आसानी से दूर किया जा सकता है क्योंकि -
(१) विश्व के अधिकांश देशों में मांस, मछली, अण्डा, दूध तथा दुग्ध उत्पाद जैसे प्रोटीन के स्त्रोत महंगे होने के कारण गरीब जनसंख्या की पहॅुंच से बाहर होते हैं । इन स्त्रोतों के लिए दालें प्रोटीन का सबसे सस्ता और सुलभ स्त्रोत हैं । अत: दालों के उत्पादन में व्यापक रूप से वृद्धि करके उनकी गरीब जनसंख्या तक पहॅुंच बनाकर उसकी कैलोरी संबंाी आवश्यकताआें को आसानी से पूरा किया जा सकता है ।
(२) माँस, मछली, दूध आदि प्रोटीन के स्त्रोतों को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखना संभव नहीं हो पाता है । जबकि प्रोटीन के स्त्रोत के रूप में दालों का जीवनकाल लम्बा होता है । इन्हें दो-तीन वर्ष तक आसानी से बचाया जा सकता है । ग्रामीण क्षेत्र में लोग पारम्परिक पद्धति से दालों को बचा लेते है और इनकी पोष्टिकता में कमी नहीं होती है ।
(३) दालों में लगभग सभी पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं । सामान्यतया आहार में प्रयुक्त होने वाली प्रमुख दालों में निम्नवत पोषक तत्व उपलब्ध होते हैं :-
(१) अरहर - दाल के रूप में अरहर का बहुत अधिक प्रयोग होता है । यह तुर या तुअर नाम से भी जानी जाती है । इस दाल में पोटेशियम, सोडियम, विटामिन-ए, बी१२ एवं विटामिन-डी पाया जाता है ।
(२) चना - चने की दाल सबसे अधिक प्रोटीन एवं फाइबर युक्त होती है । इसमें जिंक, फोलेट और कैल्शियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है । इस दाल में मौजूद ग्लाइसमिक इंडेक्स मधमेह के रोगियों के लिये लाभदायक है । ऐनिमियाँ, पीलिया और डिसेप्थिया से चना की दाल निजात दिलाती है ।
(३) मसूर - मसूर की दाल पोषक तत्वों का खजाना कहलाती है । इस दाल में एल्यूमिनियम, जिंक, कापर, आयोडीन, मैग्नीशियम, सोडियम, फास्फोरस और क्लोरीन के साथ-साथ विटामिन बी१ तथा डी पाया जाता है ।
(४) मँुग दाल - मुँग की दाल में ५० प्रतिशत प्रोटीन, ४८ प्रतिशत फाइबर, २० प्रतिशत कार्बोहाइट्रेड और १ प्रतिशत सोडियम होता है । आइरन, सोडियम और कैल्शियम युक्त यह दाल रोगियों और गर्भवती महिलाआें के लिये लाभकारी होती है ।
(५) उड़द - उड़द की दाल सबसे अधिक पौष्टिक होती है । इसमें प्रोटीन, विटामिन बी, थायमिन, राइबोफ्लेविन, नियासिन, आइरन, कैल्शियम, घुलनशीरेशा और स्टार्च पाया जाता है ।
(६) कालीबीन - अत्यधिक फालेट युक्त इस दाल में सोडियम, कैल्शियम, विटामिन ए, बी तथा डी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । कालीबीन में मौजूद फाइबर रक्त में ग्लुकोज की मात्रा को बढ़ने से रोकता है । यह दाल मधुमेह और हाइपोग्लाइसीमियाँ के रोगियों के लिए लाभदायक है ।
(७) लोबिया - विटामिन ए, बी२ और विटामिन डी युक्त यह दाल अत्यधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है । इसमें कैल्शियम भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है ।
(८) पर्यावरण और दालें -पर्यावरण और कार्बन फूट फ्रिट की दृष्टि से भी दालों का उत्पादन लाभकारी है । क्योंकि प्रोटीन के अन्य स्त्रोतों की तुलना में दालें कम कार्बन का उत्सर्जन करती है और पानी की बचत करती है ।
भारत के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो यहाँ पर दालें कीमतों में वृद्धि के कारण चर्चा का विषय बनी हुई है । उत्पादन में स्थिरता, उपलब्धता में कमी तथा माँग और पूर्ति के बीच असन्तुलन कीमत वृद्धि का कारण है। परिणामस्वरूप देश की आय का एक बहुत बड़ा भाग दालों के आयात पर तो खर्च हो ही रहा है । साथ ही बहुत बड़ी आबादी की पोषक सुरक्षा भी प्रभावित हो रही है ।
भारत में अधिकांश जनसंख्या गरीब है । दालें, गरीबों का प्रोटीन कहलाती है । दालें भारत की जीवन शैली में सम्मिलित हैं । गरीब व्यक्ति किसी तरह दाल रोटी चल रही है, कहकर अपनी विपिन्नता को प्रकट करता है तो अमीर व्यक्ति ईश्वर की कृपा से दाल रोटी चल रही है, कहकर अपनी स्थिति को प्रकट करता है । यद्यपि सरकार दालों को आयात कर स्थिति सामान्य करने का प्रयास कर रही है। किन्तु कीमतों में फिर भी कमी नहीं हो रही है ।
भारत दालों के कुल वैश्विक उत्पादन का २५ प्रतिशत उत्पादन कर, विश्व का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश है किन्तु जनसंख्या अधिक होने और घरेलू मांग के अनुरूप उप्तदन न होने के कारण भारत विश्व का सबसे बड़ा दाल उपभोक्ता और आयातक देश भी है । कुल वैश्विक उपभोग का २७ प्रतिशत और कुल आयात का १४ प्रतिशत आयात भारत द्वारा किया जाता है । २००९ से २०१४ के मध्य देश में १६.४५ मि. टन दालों का आयात किया गया है और ३९२८५ करोड़ रूपये खर्च किये गये हैं ।
यद्यपि दालों के बोये जाने वाले क्षेत्रफल में १९५०-५१ से २०१३-१४ तक ३१ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । इसी अवधि में दालों के उत्पादन में १०० प्रतिशत वृद्धि हुई है और प्रति हैक्टेयर उत्पादन भी ४६ प्रतिशत वृद्धि के साथ ४४ किलो हेक्टेयर से ७६४ किलोग्राम/हेक्टेयर हो गया है । किन्तु इसी अवधि में जनसंख्या तीन गुना से अधिक वृद्धि हुई है । १९५०-५१ में जनसंख्या ३६.१ करोड़ थी जो २०११ में १२१.१ करोड़ हो गयी है । जिस कारण दालों की माँग में वृद्धि हो रही है । साथ ही कीमतें भी निरन्तर बढ़ रही है ।
यद्यपि १९५० से २०१३-१४ तक दालों के बोये जाने वाले क्षेत्रफल कुल उत्पादन और प्रति हेक्टयर उत्पादन में वृद्धि हुई है, किन्तु प्रति व्यक्ति दाल उपलब्धता में कमी आयी है । १९७१ में देश में प्रतिव्यक्ति दाल उपलब्धता ५१.५ ग्राम/प्रतिदिन थी जबकि २०१३ में यह घटकर ४१.९ ग्राम/प्रतिदिन हो गयी । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रतिव्यक्ति/दिन दाल उपलब्धता ८० ग्राम होनी चाहिए । ऐसी स्थिति में दालों की अनुपलब्धता और कीमत वृद्धि से गरीब जनसंख्या की प्रोटीन संबंधी आवश्यकताएं प्रभावित हो रही है । दालें गरीबों को प्रोटीन का सस्ता स्त्रोत होती हैं और इनमें गेहूं और चावल की अपेक्षा दो गुना प्रोटीन पाया जाता है ।
२०३० तक भारत की जनसंख्या बढ़कर १.६८ मिलियन (१६८ करोड़) हो जायेगी और इस समय देश को लगभग ३२ मिलियन टन दालों की आवश्यकता होगी । इस अतिरिक्त आवश्यकता की पूर्ति के लिए दालों के बाये जाने वाले क्षेत्रफल और प्रति हेक्टर उत्पादन दोनों में वृद्धि करने की आवश्यकता है ।
दालों के उत्पादन में वृद्धि करके,स्थाई खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त् करने के प्रयास करने होगे । दालों के उत्पादन और बोये गये क्षेत्रफल में वृद्धि करके भूमि की उर्वरता में तो वृद्धि होगी ही साथ ही पानी की बचत होगी । गरीब जनसंख्या की प्रोटीन संबंधी आवश्यकताआें की पूर्ति होगी और कुपोषण की समस्या से भी छुटकारा पाया जा सकता है । दलहनों का उत्पादन किसानों के लिये भी लाभकारी होगा ।
किन्तु वर्तमान समय में किसान अपनी कृषि भूमि को प्लाटों के रूप में बेचकर लाभ कमाने को आय का साधन बनाने लगे है । कृषि भूमि में रियल स्टेट का कारोबार फलने-फूलने लगा है । उपजाऊ जमीन पर कांक्रीट के जंगल विहने लगे हैं । अत: स्थाई खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त् करने के लिये कृषि योग्य उपजाऊ जमीन की बचत करने के साथ-साथ किसानों में भी कृषि के प्रति आत्मविश्वास पैदा करने की आवश्यकता है ।
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