सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

विज्ञान हमारे आसपास
पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत कैसेहुई ?
डॉ. अरविन्द गुप्त्े

    सब जीवों की विशेषता यह है कि वे प्रजनन कर सकते हैं यानी अपनी प्रजाति की संख्या बढ़ा सकते हैं । इसका कारण यह है कि जीवों के शरीर में ऐसे पदार्थ से बने होते हैं जिनमें अपने आसपास से पोषण से लेकर अपने शरीर में वृद्धि करने की और फिर  इस शरीर से अपने समान अन्य जीवन बनाने की क्षमता होती है । प्रश्न यह है कि पृथ्वी पर ऐसा पदार्थ सबसे पहले बना कैसे ? दूसरे शब्दों में, पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत कैसे हुई ?
    इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए कई वैज्ञानिक वर्षो से जुटे हुए हैं । रसायन शास्त्री अरेनियस ने यह सुझाव दिया था कि जीवन की शुरूआत किसी अन्य ग्रह पर हुई थी और फिर वहां से जीव बीजाणुआें यान स्पोर्स के रूप में पृथ्वी पर आए । किन्तु यह जीवन की उत्पत्ति की नहीं बल्कि इस बात की व्याख्या है कि जीव कैसे फैले । 
     उन्नींसवीं शताब्दी तक कई लोग यह सोचते थे कि निर्जीव पदार्थो से जीव अपने आप पैदा हो जाते है, जैसे गोबर से इल्लियां या कीचड़ से मेंढ़क बन जाते हैं । किन्तु फ्रांस के वैज्ञानिक लुई पाश्चर ने दिखा दिया कि यह संभव नहीं है । केवल एक जीव से ही दूसरा जीव पैदा हो सकता है । सन १८७१ में अंग्रेज वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने सुझाव दिया कि जीवन की शुरूआत संभवत: गुनगुने पानी भरे एक ऐसे उथले पोखर में हुईर् होगी जिसमें सब प्रकार के अमोनिया और फॉस्फोरिक लवण होंगे जिन पर प्रकाश, ऊष्मा और विद्युत की क्रिया होती रही होगी । इससे एक प्रोटीनयुक्त यौगिक बना होगा जिसमें और परिवर्तन होकर पहले जीव बने होगे ।
    वर्ष १९२४ में रूसी वैज्ञानिक अलेक्जेड़र ओपारिन ने यह तर्क दिया कि वातावरण में स्थित ऑक्सीजन कार्बनिक अणुआें के संश्लेषण को रोकती है और जीवन की उत्पत्ति के लिए कार्बनिक अणुआें का बनना अनिवार्य है । किसी ऑक्सीजनरहित वातावरण में सूर्य के प्रकाश की क्रिया से कार्बनिक अणुआें का एक आदिम शोरबा (प्राइमीवल सूप) बन सकता है । इनसे किसी जटिल विधि से संलयन (फ्यूजन) हो कर नन्हीं बूंद बनी होगी जिनकी और अधिक संलयन से वृद्धि हो कर ये विभाजन के द्वारा अपने समान अन्य जीव बना सकती होगी । लगभग इसी समय अंग्रेज वैज्ञानिक जे.बी.एस. हाल्डेन ने भी इसी से मिलता-जुलता सुझवा दिया है । उनकी परिकल्पना के अनुसार उस समय पृथ्वी पर स्थित समुद्र आज के समुद्रों की तुलना में  बहुत भिन्न रहे होंगे और इनमें एक गरम पतला शोरबा बना होगा जिसमें ऐसे कार्बनिक यौगिक बने होगे जिनसे जीवन की इकाइयां बनती    है ।
    सन् १९५३ में स्टेनली मिलर नामक विद्यार्थी ने अपने प्रोफेसर यूरी के साथ मिलकर एक प्रयोग किया जिसमें उन्होनें मीथेन, अमोनिया और हाइड्रोजन के मिश्रण में अमीनो अम्लों का निर्माण करवाने में सफलता पाई । इससे ओपारिन के सिद्धांत को लगभग सभी वैज्ञानिकों के द्वार मान्य किया जाता है । फिर भी समय-समय पर नए-नए सिद्धांत प्रस्तुत किए जाते हैं । अलबत्ता, कुछ बातों पर आम सहमति है, जैसे :-
    पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत लगभग ४ अरब वर्ष पहले हुई थी । उस समय के समुद्रों के पानी का संघटन आज के समुद्रों के पानी से बहुत भिन्न था । शुरूआत में पृथ्वी के वातावरण में ऑक्सीजन नहीं थी, धीरे-धीरे ऑक्सीजन बनती गई और अंतत: वह वर्तमान स्तर तक पहुंची । ऑक्सीजन बनाने का काम हरे पौधे करते हैं जो प्रकाश संश्लेषण के दौरान वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड ले कर ऑक्सीजन छोड़ते हैं । पृथ्वी पर सबसे पहले विकसित होने वाले हरे पौधे सायनोबैक्टीरिया नामक हरे शैवाल थे । अत: यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सबसे पहले बनने वाले जीव ऑक्सीजन की सहायता से श्वसन नहीं करते थे, अपितु अनॉक्सी श्वसन में काम चलाते थे । आजकल के अधिकांश जीवों को ऑक्सीजन की आवश्यकता पड़ती है ।
    पृथ्वी पर शुरूआती कार्बनिक अणुआें के निर्माण के पीछे निम्नानुसार तीन प्रकार की शक्तियां काम कर रही होगी :
    १. अकार्बनिक पदार्थो से कार्बेनिक पदार्थो का निर्माण पराबैंगनी किरणों या आसमानी बिजली की चिंगारियों से संभव हुआ होगा ।
    २. अंतरिक्ष से आने वाले उल्का पिण्डों के साथ जीवाणुआें का आना ।
    ३. उल्का पिण्डों के लगातार गिरने से होने वाले धमाकों की ऊर्जा से कार्बनिक पदार्थो का संश्लेषण ।
    जीवन की उत्पत्ति के बारे में सबसे ताजा सिद्धांत अमेरिका की जेट प्रोपल्शन प्रयोगशाला से आया है । यहां कार्यरत प्रोफेसर माइकल रसल का तर्क है कि जीवन की शुरूआत समुद्र की गहराइयों में स्थित गरम पानी के फव्वारों में हुई । किस्सा यह है कि १९७७ में प्रशांत महासागर में कार्यरत एक तैरती प्रयोगशाला ने पाया कि बहुत गहरे समुद्र के तल में दरारें है । इन दरारों में से निकलने वाले पानी का तापमान ४००० डिग्री सेल्सियस होता है । इन दरारों को ऊष्णजलीय दरारें (हाइड्रोथर्मल वेन्ट्स) कहते है । पृथ्वी का तल कई प्लेटों से मिलकर बना है । ये प्लेटे खिसकती और एक-दूसरे से टकराती रहती है । जब दो प्लेंटे टकराती है तब पृथ्वी की सतह हिलती है यानी भूकंप होता है ।
    किन्तु समुद्र की गहराइयों में दो प्लेटों के बीच स्थित ऊष्णजलीय दरारों में से रिस कर समुद्र का पानी अंदर जाता है । यहां उसका सामना पृथ्वी की गहराइयों में स्थित पिघली हुई चट्टानों (मैग्मा) से होता है । इनके मिलने से पानी का तापमान ४००० डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है किन्तु वह उस गहराई में स्थित विशाल दाब के कारण भाप नहीं बन पाता और ऊपर की ओर उठता है । जब यह बहुत अधिक गरम और क्षारीय पानी बाहर आकर गहरे समुद्र में स्थित बहुत अधिक ठंडे पानी से मिलता है तब कई खनिज पदार्थ अवक्षेपित हो जाते हैं और एक के ऊपर एक जमा होकर मीनार के समान रचना बनाते हैं । समुद्र के पेदे में इस प्रकार सैकड़ों फीट ऊंची मीनारें बनी हुई है । सन २००० में अटलांटिक महासागर के पंेदे ऐसे पर ऐसी ही मीनारों का एक पूरे शहर के समान जमावड़ा पाया गया ।
    जब इन मीनारों का और अधिक विस्तार से अध्ययन किया गया तब प्रोफेसर रसल को उनके सिद्धांत का आधार मिल गया । होता यह है कि खनिज पदार्थो की मीनारों में स्पंज के समान छिद्र होते हैं । इन छिद्रों में होने वाली रासायनिक क्रियाआें के कारण ऊर्जा बनने लगती है । प्रोफेसर रसल के अनुसार इन छिद्रों में स्थित अकार्बनिक पदार्थो में इस ऊर्जा के कारण कई प्रकार की रासायनिक क्रियाएं होने लगी एवं इनसे पहला जीवित पदार्थ बना । इस जीवित पदार्थ के लिए ऊर्जा का स्त्रोत छिद्रों में ही उपलब्ध होने के कारण उनमें वृद्धि और प्रजनन होने लगे । आज भी समुद्र के पेदे पर स्थित गरम पानी की इन मीनारों में ऐसे जीव पाए जाते हैं जो पृथ्वी की सतह पर और कहीं नहीं मिलते ।
    सवाल यह उठा कि इस सिद्धांत का प्रमाण कैसेजुटाए जाए ? तब प्रोफेसर रसल और उनकी टीम ने अपनी प्रयोगशाला में एक अनोखा प्रयोग शुरू किया । उनकी प्रयोगशाला में ये शोधकर्ता उस क्षण को दोहराने की कोशिश कर रहे हैं जो जीवन के शुरू होने से पहले का क्षण था । समुद्र के पानी से भरे कांच के कई बर्तनों के तलों में लगाई गई सिरिजेस के द्वारा रसायनों का ऐसा मिश्रण छोड़ा जा रहा है जिसका संघटन लगभग उस क्षारीय द्रव के समान है जो ऊष्णजलीय दरारों से निकलता है । जब ये दोनों द्रव मिलते हैं तब खनिज पदार्थ अवक्षेपित हो जाते हैं और मीनार के समान एक रचना बनाते हैं ।  प्रोफेसर रसल को ये मीनारें उनकी परिकल्पना के परीक्षण करने का अवसर दे रही है । उनका कहना है कि केवल कार्बनिक अणुआें का बनना जीवन के निर्माण का आधार नहीं हो सकता । इन अणुआें का केवलबनना पर्याप्त् नहीं है, उनके लिए ऊर्जा के एक स्त्रोत की भी आवश्यकता होती है और इस प्रकार की ऊर्जा उष्णजलीय दरारों पर बनी खनिजों की मीनारों से ही प्राप्त् हो सकती है ।

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