सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

ज्ञान-विज्ञान
कितनी सफल और उचित है कृत्रिम वर्षा ?
    जब किसी क्षेत्र के लोग सूखे से त्रस्त हो और आसमान से गुजरते बादल पानी न बरसाएं ता ेयह इच्छा उठनी स्वाभाविक है कि किसी तरह इन बादलों से पानी बरसवा लिया जाए । मनुष्य की यही इच्छा विज्ञान के स्तर पर कृत्रिम वर्षा के प्रयासों के रूप में समय-समय पर प्रकट होती रहती   है । 
      दरअसल कृत्रिम वर्षा की तकनीक कोई नई तकनीक नहीं है । लगभग ५० वर्ष या उससे भी पहले से इसके छिटपुट प्रयास होते रहे हैं । इस तकनीक का सबसे प्रचलित रूप यह है कि बादलों पर हवाई जहाज से सिल्वर आयोडाइड का छिड़काव किया    जाए । पर उसके अन्य उपाय भी हैं । बादल पर यह बौछार या क्लाउड सीडिंग करने के लिए अमेरिका में विशेष तरह का ड्रोन विमान भी विकसित किया गया है ।
    इस समय कृत्रिम वर्षा करवाने का सबसे बड़ा कार्यक्रम चीन चला रहा है । जहां लोकतांत्रिक विरोध व न्यायिक हस्तक्षेप की संभावना अधिक है । वजह यह है कि यदि कृत्रिम वर्षा का प्रयोग सफल हो भी जाता है और अधिक वर्षा हो जाती है, तो पास के अन्य क्षेत्रों के लोग शिकायत दर्ज कर सकते हैं कि कृत्रिम ढंग से वह पानी भी बरसा लिया गया जो बादलों ने हमारे यहां बरसाना था । इस तरह की शिकायतें तो कभी समाप्त् नहीं हो सकती और इसके आधार पर मुकदमे भी दर्ज हो सकते है ।
    यह पता लगाना बहुत कठिन होता है कि जो वर्षा हुई वह प्राकृतिक थी या कृत्रिम थी । हो सकता है यह वर्षा सिल्वर आयोडाइड के छिड़काव के बिना भी हो जाती । अर्थात यह पता लगाना भी बहुत कठिन है कि छिड़काव पर जो भारी-भरकम खर्च किया गया वह उचित था या नहीं । दूसरी ओर, कई बार ऐसा भी हुआ है कि सिल्वर आयोडाइड के छिड़काव से भी वर्षा नहीं हुई । यही वजह है कि तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र में कुछ छिटपुट प्रयासों के बावूजद राष्ट्रीय स्तर पर कृत्रिम वर्षा के प्रयास अभी जोर नहीं पकड़ सके हैं ।
    इसके अतिरिक्त एक अन्य संभावना यह बनी हुई है कि युद्ध के दौरान ऐसे प्रयास किए जाएं कि शत्रु देश के किसी विशेष क्षेत्र में कृत्रिम उपायों से भीषण वर्षा करवा दी   जाए । वियतनाम के गुरिल्ला सैनिकों को परेशान करने के लिए ऐसे कुछ प्रयोग किए जाने की चर्चा रही है, हालांकि यह प्रामाणिक तौर पर नहीं पता चल सका है कि ये प्रयास कितने सफल हुए थे । ये प्रयास अधिक सफल रहे तो दूसरे पक्ष के सैनिकों के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न की जा सकती है व कृत्रिम बाढ़ की स्थिति भी उत्पन्न की जा सकती है । दूसरी ओर, अपने देश की रक्षा करने के लिए हमलावर सैनिकों को कुछ हद तक रोकने के लिए भी कृत्रिम वर्षा का उपयोग किया जा सकता है ।
    फिलहाल जहां तक शांति काल में सूखाग्रस्त लोगों को राहत देने के लिए कृत्रिम वर्षा के उपयोग का सवाल है, तो यह सुझाव अभी कई समस्याआें से भरा हुआ है । चार-पांच दशकों में यह तकनीक उपलब्ध होने के बावजूद अधिक प्रगति नहीं हुई है और किसी बड़े सूखाग्रस्त क्षेत्र को अभी इससे अधिक राहत नहीं मिल सकी है । इससे पता चलता है कि फिलहाल कृत्रिम वर्षा से बहुत उम्मीदें नहीं की जा सकती । हो सकता है इससे किसी सीमित क्षेत्र में अल्पकालीन सफलता मिल जाए, पर अभी राष्ट्रीय स्तर पर इसे एक व्यापक कार्यक्रम के रूप में अपनाना उचित नहीं होगा ।

यू.के. की आधी प्रजातियों में गिरावट
    वर्ष १९७० से २०१३ के बीच युनाइटेड किंगडम में आधी से ज्यादा जैव प्रजातियों की आबादी में कम देखी गई है । इसके अलावा उनके फैलाव में भी उल्लेखनीय कमी आई है । हालत यह है कि कम से कम १५ प्रतिशत प्रजातियों की संख्या में इतनी कमी देखी गई है कि उनकी विलुिप्त् का खतरा पैदा हो गया है । उपरेाक्त तथ्य हाल ही में प्रकाशित टेस्ट ऑफ नेचर (द्वितीय) रिपोर्ट में व्यक्त किए गए है ।
    इस अध्ययन में ५३ वन्यजीव संगठन शामिल थे । रिपोर्ट में बताया गया कि जिन ४००० जलचर व थलचर प्रजातियों का अध्ययन किया गया उनमें से ५६ प्रतिशत की संख्या अथवा फैलाव     के क्षेत्र मे कमी आई है । कुछ प्रमाण इस बात के भी मिले है कि कम से कम १२०० प्रजातियों के ग्रेट ब्रिटेन से नदारद होने का खतरा है । 
 ृृ    रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रजातियों में गिरावट का मुख्य कारण सघन खेती का प्रकृति पर होने वाला नकारात्मक असर है । रिपोर्ट के मुताबिक खेती में व्यापक बदलाव के चलते कई प्रजातियों के प्राकृतवास तबाह हुए है और पर्यावरण में रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशक रसायनों की मात्रा बढ़ी है । सरकारी कृषि नीतियों के चलते जहां गेहूं व दूध का उत्पादन इस अवधि में दुगना हो गया, वही प्रजातियों के रहवास और भोजन के स्त्रोतों का विनाश हुआ ।
    बदलती कृषि के अलावा जलवायु परिवर्तन और शहरीकरण अन्य प्रमुख कारणों के रूप में उभरे हैं । रिपोर्ट में कृषि सबसिडी पर पुनर्विचार करने की वकालत की गई है क्योंकि इससे जैव विविधता पर असर पड़ रहा है । दूसरी ओर, राष्ट्रीय किसान संगठन के अध्यक्ष ने कहा है कि कृषि में जो भी बदलाव होने थे वे १९९० के दशक तक हो चुके थे ।

एंटीबैक्टीरियल साबुन पर प्रतिबंध
    उपभोक्ताआें को लगता है कि जीवाणु रोधी साबुन और हैण्ड-वॉश सामान्य साबुनों के मुकाबले कीटाणुआें से बचाव में ज्यादा कारगर है मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ये सामान्य साबुन से बेहतर होते हैं । दरअसल प्रमाण तो यह दर्शात हैं कि ऐसे साबुन फायदे की बजाय नुकसान ज्यादा करते है । यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन की जेनेट वुडकॉक का यह कथन इस संदर्भ में आया है कि अमेरिका में ऐसे साबुनों व अन्य सौंदर्य प्रसाधन सामग्री पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया गया है । भारत में भी ऐसे साबुन और हैण्ड-वॉश काफी संख्या में बिकते हैं और इनका विज्ञापन भी जोर शोर से किया जाता है । 
     वास्तव में यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन ने एंटीबैक्टीरिया साबुनों में इस्तेमाल किए जाने वाले १९ रसायनों पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है । इनमें से एक प्रमुख रसायन ट्रिक्लोसैन है जिसका उपयोग सर्वाधिक साबुनों, टुथपेस्टों, डियोडोरेंट और क्रीम्स में किया जाता है ।
      ट्रिक्लोसैन का उपयोग १९६० के दशक में सिर्फ अस्पतालों में इस्तेमाल के लिए शुरू किया गया  था । मगर धीर-धीरे सफाई के प्रति जुनून के चलते इसका उपयोग आम उपभोक्ता वस्तुआेंमें होने लगा । २०१० में एक गैर-मुनाफा संस्था नेचुरल रिसार्सेज डीफेंस कौंसिल ने मांग की कि ट्रिक्लोसैन के लाभों और जोखिमों का आंकलन किया जाए ।
    सवाल है कि १९७० से लेकर २०१० के बीच के चार दशकों का अनुसंधान क्या दर्शाता है । जाहं तक मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव का संबंध है, परिणाम मिले-जुले रहे    हैं । 
        अनुसंधान से यह भी पता चला है कि ट्रिक्लोसैन युक्त साबुन और हैण्ड-वॉश एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या को गंभीर बना सकते हैं । जहां साधारण साबुन मात्र इतना करते हैं कि सूक्ष्मजीवों को हाथ से हटा देते हैं, वहां ट्रिक्लोसैन उन्हें मारता है । ताजा अनुसंधान से पता चला है कि ट्रिक्लोसैन बैक्टीरिया की उस प्रक्रिया को निशाना बनाता है जिस पर टीबी की दवा आइसोनि-एजिड भी क्रिया करती है । यदि ट्रिक्लोसैन के अत्यधिक उपयोग से बैक्टीरिया में प्रतिरोध विकसित हुआ तो टीबी का बैक्टीरिया भी प्रतिरोध हो जाएगा । प्रयोगशालाआें में ट्रिक्लोसैन के प्रति प्रतिरोध विकसित होते देखा भी जा चुका है ।

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