गुरुवार, 31 मई 2007

गंदगी से फैलता जहर

वातावरण

गंदगी से फैलता जहर

कुशलपाल सिंह यादव

नागरीय निकाय अपना इलाका साफ रखने के लिए अभी तक तो अपने आस-पड़ौस को ही प्रदूषित कर रहे थे। अब तो वे दूसरे राज्यों में जंगलों इत्यादि में कचरा फेंककर पर्यावरण को जबरदस्त नुकसान पहुंचा रहे हैं। वहीं इस कचरे से बिजली उत्पादन करने वाले संयंत्र भी बड़े स्तर पर प्रदूषण फैला रहे हैं।

दिसम्बर २००६ में कोची नगर निगम ने अपशिष्ट निपटान का एक अद्भुत तरीका इजाद किया। इसके अंतर्गत उन्होंने कचरे से भरे ट्रकों को न केवल नजदीकी जिलों के गांवों में, बल्कि नजदीक के राज्यों में भी खाली करने को भेज दिया। इस कचरे को ले जाने हेतु एक ठेकेदार से १३६५ रुपये प्रति टन का भाव तय हुआ था। विचारणीय तथ्य यह है कि नगर निगम ने ठेकेदार से यह पूछने का कष्ट भी नहीं उठाया कि वह यह कचरा कहां फेंकेगा और यह कि क्या उसमें उन गांवों से अनापत्ति प्रमाण-पत्र ले लिया है जहां पर कि यह कचरा फंेका जाना है।

कुछ ही दिन पश्चात् कचरे से लगे १९ ट्रकों का काफिला पड़ौसी कर्नाटक राज्य के बंदिपुर राष्ट्रीय पार्क के मुलाहल्ला वन नाके पर पहँुचा। ये ट्रक केरल के पाँच जिलों को पार करके उस नाके से करीब २० किमी. दूर गुंडुल्पेट नामक छोटे से गांव में कचरा फेंकने जा रहे थे। वन रक्षक ने इस हेतु आवश्यक कागजों की मांग करने पर ट्रक ड्राईवरों ने कोची नगर निगम और ठेकेदारों के बीच हुआ अनुबंध उसे दिखाया। ड्राईवरों को उस रात नाके पर ही रोक लिया गया। अगले दिन मामला निपटा दिया गया और उस कचरे को वहीं पास की किसी निजी भूमि पर डाल दिया गया।

स्थानीय निवासियों ने नगर निगम को लज्जित करते हुए इसका भरपूर नैतिक विरोध किया। केरल और तमिलनाडू के सीमावर्ती क्षेत्रों जैसे कम्बामेट्टू आदि जगह तो ट्रक ड्राईवरों से झूमा-झटकी भी की गई। इस कारण ये वाहन कचरा फेंकने का स्थान ढूंढने के लिये इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहे। इसी क्रम में ४ जनवरी २००७ को आठ ट्रकों द्वारा पालक्कड़ जिले के नेल्लीप्पेली के नजदीक स्थित वीरान्दोट्टा में कचरा फंेंकने को लेकर पुलिस में रिपोर्ट करने गये व्यक्तियों ने इतना उग्र प्रदर्शन किया कि पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा। इस सबके चलते नगर निगम ने एक अन्य ठेकेदार को यह ठेका दे दिया जिसके बारे में कहा जा रहा है कि उसके पास इस अपशिष्ट के निपटान हेतु गुड्डालोटे में जमीन व आवश्यक संसाधन उपलब्ध है।

कोची नगर निगम द्वारा हड़बड़ी में लिये जा रहे कदमों पर विचार करना आवश्यक है। ७ लाख जनसंख्या के इस शहर में अपशिष्ट निपटान का कोई ठीक-ठाक प्रबंध नहीं था। पूर्व में जो भूमि इस हेतु ली गई थी वह उस पानी के स्त्रोत के मुहाने पर भी जिससे कि पानी नदी में पहँुचता है। इसके अतिरिक्त चार गांवों के निवासी न केवल पीने के पानी हेतु इस पर निर्भर हैं बल्कि ३०० मछुआरों के परिवारों की जीविका भी इसी पर निर्भर है। इसके विरोध में ग्रामवासियों ने आंदोलन किया और अंतत: वह स्थान बदल गया।

इन सब विवादों के चलते कोची नगर निगम ने कोचीन पोर्ट ट्रस्ट के नजदीक की अपने स्वामित्व की जमीन जो कि वेलिंगटन द्वीप पर स्थित भारतीय नौ सेना के दक्षिणी कमान के पास स्थित थी पर कचरा निपटान का कार्य प्रारंभ किया। नौसेना ने थोड़े समय के लिये कि जब तक निपटान का यथोचित तंत्र खड़ा न हो जाए अनुमति भी दे दी। पर जब इससे समस्या खड़ी होने लग गई तो नौसेना ने नगर निगम से चर्चा की। क्योंकि कचरे की वजह से वहाँ आ रहे पक्षियों के कारण विमान वाही पोत गरुड़ के विमानों को खतरा पैदा होने लगा था।

इसी दौरान केरल उच्च न्यायालय ने नगर निगम को निर्देशित किया कि वह ब्रह्मापुरम में अपशिष्ट निपटान का कार्य करे। साथ ही न्यायालय ने पुलिस को आदेश दिया कि गांववासियों के विरोध के चलते वे अधिकारियों को संरक्षण प्रदान करें।

दूसरी ओर न्यायालय इस बात पर भी विचार कर रहा है कि क्या निगम ने ठोस अपशिष्ट निपटान की विस्तृत योजना उसके सम्मुख प्रस्तुत न कर उसकी अवमानना की है? इसी दौरान निगम ने पुन: अपशिष्ट निपटान के स्थल में परिवर्तन का मन बना लिया है।

अनुमान है कि केरल में प्रतिदिन ३००० टन कचरा पैदा होता है। इसमें से आधे से भी कम इकट्ठा होता है और उसमें से भी बहुत ही थोड़ी मात्रा को पुर्न:चक्रण (रिसायकल) किया जाता है एवं बाकी का या तो पानी के स्थानीय स्त्रोतों या बहुत ही नजदीक के क्षेत्रों में भराव के काम में ले लिया जाता है।

शहरी भारत में अनेक स्थानों पर कचरे से निपटने की तथाकथित कार्यवाहियाँ चल रही हैं। गुजरात के सूरत नगर निगम ने शहर के पश्चिम में करीब १५ किमी. की दूरी पर ३.६ हेक्टेयर खारे पानी वाली भूमि को कचरे से भरने हेतु नियत किया है। तीन वर्ष पूर्व निर्मित यह स्थान अभी भी प्रयोग में नहीं आ रहा है। इसकी वजह यह है कि गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वहां पर कचरे के भराव की अनुमति नहीं दी है। इस संदर्भ में बोर्ड ने ठोस अपशिष्ट निवारण नियम २००० का कड़ाई से पालन करवाने का निश्चय किया है। जिसके अंतर्गत सिर्फ वो ही कचरा भरा जा सकता है जिसका पुर्न:चक्रण नहीं किया जा सकता हो। चंूकि निगम के पास दोनों तरह के अपशिष्टों को अलग-अलग करने की व्यवस्था नहीं है अतएव वह इसका उपयोग नहीं कर पा रहा है।

जहां सूरत और कोची के माध्यम से कचरे के भराव में आने वाली मुश्किलों पर प्रकाश पड़ा है वहीं इस दौरान कचरे से उर्जा जैसे संयंत्रों के प्रति भी अतिरेक भरा उत्साह भी पैदा हो गया है। इसकी खास वजह है कि इस पर सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी।

केन्द्रीय वैकल्पिक उर्जा मंत्रालय (न्यू एवं रिन्यूवेबल एनर्जी) इस हेतु ब्याज पर २ करोड़ रुपये तक की छूट उपलब्ध करवाता है। इतना ही नहीं इसमें अनेक अन्य सुविधाआें के साथ ही साथ ३० वर्षोंा तक मुफ्त कचरा उपलब्ध कराने का आश्वासन भी शामिल है। यह नीति व्यापारियों को इस तरह प्रोत्साहित करती है, जिससे सरकार और व्यापारियों की बंदरबाट चलती रहती है। इसके बावजूद इस तरह के मात्र चार संयंत्र अभी तक भारत में सामने आए हैंं। ये हैं आंध्रप्रदेश के हैदराबाद व विजयवाड़ा, उत्तरप्रदेश में लखनऊ और दिल्ली। इसमें से दिल्ली का संयंत्र सन् १९९० में प्रारंभ हुआ और मात्र २१ दिन चलकर अभी तक बंद है। लखनऊ के संयंत्र की नींव सन् १९९८ में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने रखी थी, परंतु वह अब तक प्रारंभ नहीं हो पाया है।

वहीं हैदराबाद के नजदीक सेल्को इण्डस्ट्रीज द्वारा सन् १९९० में प्रारंभ हुए संयंत्र में हैदराबाद के कचरे के निपटान के कारण समीपस्थ भू-जल पूरी तरह से दूषित हो गया है। यहां स्थित घरों में लोगों को बोतलबंद पानी खरीदकर पीना पड़ रहा है। परंतु बोतलबंद पानी से खेती संभव तो नहीं हो सकती, अतएव वहां पर खेती पूर्णतया समाप्त हो गई है। इसी के साथ खुले में पड़े कबाड़ जिसमें प्लास्टिक और अन्य जहरीले पदार्थ जैसे बैटरी, टूटे थर्मामीटर, रयासन रखने के डिब्बे आदि के जलने से आसपास का पूरा वातावरण दूषित हो गया है। सन् २००१ में आसपास की तीन छोटी बस्तियों के बाशिंदे १५ दिनों तक संयंत्र के दरवाजे पर धरने पर बैठे रहे। इसी दौरान आंध्रप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पानी की जांच में पाया कि भू-जल पूरी तरह से प्रदूषित हो चुका है। इसमें तेजाब, क्लोराईड, सल्फेट और नाईट्रेट की मात्रा अत्यधिक हो गई है जिससे कि कैंसर जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं। जिसके पश्चात् संयंत्र पर रोक लगा दी गई। परंतु संयंत्र के मालिक ताकतवर लोग थे अतएव एक महीने में ही उक्त आदेश वापस ले लिया गया।

इसी दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह के संयंत्रों की जांच हेतु कमेटी गठन करने का आदेश दिया। परंतु जो कमेटी गठित हुई उनमें से अधिकांश सदस्यों का इन संयंत्रों के विकास में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग रहा था। अतएव इसके सदस्यों ने अलग-अलग मन्तव्य की रिपोर्ट प्रस्तुत की। वहीं विशेषज्ञों का साफतौर पर मानना है कि अपशिष्ट उर्जा संयंत्र गर्म देशों में सफल हो ही नहीं सकते। दूसरी ओर आर्थिक रुप से भी ये लाभप्रद नहीं है। क्योंकि इनमें हमारे जैसे देश में यदि १०० इकाई कचरा डाला जाए तो २५ इकाई ऊर्जा मिलती है वहीं ठंडे व यूरोपीय देशों में ३४ यूनिट तक ऊर्जा प्राप्त होती है।

इसके बावजूद मंत्रालय ने सितंबर २००६ में फरमान निकाला कि बड़े शहरों के आसपास ऐसे १००० संयंत्र लगाये जाएं। दूसरी ओर योजना आयोग का कहना है कि कम्पोस्ट संयंत्रों में निर्मित जैविक खाद पर सब्सिडी देने का प्रावधान हो, क्योंकि भारत मात्र रासायनिक खादों पर ही १४००० करोड़ की सब्सिडी दे रहा है।

आज आवश्यकता है कि अपशिष्ट प्रबंधन को संस्थागत किया जाए। अभी तक अपशिष्ट प्रबंधन नगर निगम के स्वास्थ्य विभाग के अंतर्गत किया जाता है। जो कि किसी स्वास्थ्य चिकित्सक के अधीन होता है एवं वह इस विषय का विशेषज्ञ भी नहीं होता। दूसरी ओर इस निजी क्षेत्र के कई संस्थान व व्यक्ति कम्पोस्ट खाद का संयंत्र डालने को तैयार हैं, जिन्हें कि प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

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