गुरुवार, 31 मई 2007

कबूतर के पंख अब माप सकेंगे प्रदूषण

११ ज्ञान विज्ञान

कबूतर के पंख अब माप सकेंगे प्रदूषण

कबूतर पहले संदेश भेजते थे और आज भी प्रेमी कबूतर के गाने गाते हैं, परन्तु धूल-धुएं से भरी दुनिया में वे एक काम ओर कर सकते हैं। कबूतर के पंख प्रदूषण का स्तर माप सकते हैं। यदि यहाँ के विश्वविद्यालय के शोध पर यकीन किया जाय तो यह सही है।

जयपूर (राजस्थान) के भूमेश भदौरिया ने तीन साल के अध्ययन के बाद यह पाया है कि कबूतर के पंख उस इलाके का प्रदूषण स्तर बता सकते हैं जहाँ वे विद्यमान है। यह शोध राजस्थान विश्वविद्यालय में किया गया है। देश में यह पहला मौका है कि किसी पक्षी के पंखों का उपयोग प्रदूषण स्तर मापने के लिए किया जावेगा।

कबूतर के पंख एकत्र कर उसे प्रयोगशाला में परीक्षित किया गया। इसमें धातु और रासायनिक परीक्षण भी किया गया। रासायनिक परीक्षण में नाइट्रिक और परक्लोरिक एसीड का इस्तेमाल किया गया।

आमतौर पर कबूतर एक ही इलाके में घूमते रहते हैं। प्रारंभ में २५ कबूतरों को पकड़ा गयाऔर उनके पंख का अध्ययन किया गया। कई भारी धातु जैसे सीसा, तांबा, क्रोमियम और केडमियम उनके पंखों में मिली। यह बताता है कि शहर में घोर प्रदूषण रहा है। अध्ययन के दौरान यह देखा गया कि जयपुर शहर के सांगानेरी गेट और अजमेरी गेट पर सर्वाधिक प्रदूषण है।

'सुपर अर्थ' की खोज

अमेरिकी खगोल वैज्ञानिकों ने एक ऐसे नए ग्रह का पता लगाया है जो धरती से भी श्रेष्ठ यानी 'सुपर अर्थ' साबित हो सकता है। क्योंकि यहाँ धरती की तरह जीवन की संभावनाएँ मौजूद होने के कयास लगाए जा रहे हैं।

नया ग्रह हमारे सौरमण्डल से से बीस प्रकाश वर्ष दूर है और एक मध्यम से लाल तारे के आसपास चक्कर लगा रहा है। यह धरती से पाँच गुना बड़ा और लिब्रा (तुला) के तारामण्डल में है। अतिरिक्त सौर ग्रह हमारे नजदीक नक्षत्र पड़ोसियों में से एक लाल वामन (बौने) तारे ग्लीज ५८१ के चक्कर लगा रहा है। ग्लीज ५८१ एक लाल बौना तारा है जो सूर्य के मुकाबले कम उष्मा और कम प्रकाश का उत्सर्जन करता है। ऐसे में यह ग्रह अपने तारे के लिए तथाकथित आवास योग्य क्षेत्र में है। इस ग्रह की खोज स्विट्जरलैंड स्थित जिनेवा वेधशाला के स्टाइफन उड्री और उनके सहकर्मियों ने इस ग्रह के गुरुत्वाकर्षण की वजह से पैदा हो रही हलचल का विश्वलेषण करने के बाद की।

नेचर मैगजीन में छपी खबर के अनुसार सूर्य और धरती के बीच में जो दूरी है उसकी अपेक्षा यह ग्रह अपने तारे के काफी नजदीक है। यह सूर्य और धरती के बीच की दूरी के मुकाबले १४ गुनी कम दूरी पर अपने तारे के चक्कर लगा लगा रहा है। ग्रह का तापमान ० से लेकर ४० डिग्री सेल्सियस के बीच है जो ग्रह पर पानी और यहाँ तक कि जीवन की मौजूदगी के लिए भी अनुकूल हैं।

कैम्ब्रिज मैसाचुसेट्स स्थित हार्वर्ड स्मिथसोनियन सेंटर फार एस्ट्रोफिजिक्स के विशेषज्ञ डेविड चैरबान्यू के अनुसार नए ग्रह को संभवत: सुपर अर्थ कहा जाएगा जो काफी रोमांचित करने वाला है।

अभी तक हमारे सौरमंडल से बाहर २०० से अधिक ग्रहों की खोज की जा चुकी है। इनमें से कई तो जुपिटर ग्रह की तरह गैस पिंड हैं, जबकि कुछ ही ग्रह ऐसे हैं जिनमें पृथ्वी की तरह बड़ी चट्टानें देखी गई हैं।

जीन थैरेपी से दृष्टिबाधित देखेंगे दुनिया

उपलब्धियों की बिसात पर चिकित्सा जगत ने एक और सफलता अर्जित की है। ब्रिटेन के डॉक्टरों ने आँखों का ऑपरेशन किया है, लेकिन यह पहला मौका है, जब इसमें जीन थैरेपी का इस्तेमाल हुआ है। अभी तक ये कहा जाता है कि जो जन्म से दृष्टिहीन है, उनकी आँखों का उपचार नहीं हो सकता, लेकिन जीन थैरेपी के बाद इस दिशा में भी आशा जगी है।

लंदन के मूरफील्ड्स आई हॉस्पिटल में कुछ शोधकर्ताआें ने वर्षो अथक कार्य कर इसमें सफलता हासिल की है। विशेषज्ञों का ये भी मानना है कि यह जल्द ही पूरी दुनिया में लोकप्रिय करा दी जाएगी और इसमें खर्च भी इतना नहीं है, जितनी कल्पना की गई थी।

अपने परीक्षण को सफल बनाने के उद्देश्य से शोध करने वाले समूह ने कुछ युवाआें व कुछ बच्चों का ऑपरेशन किया। ये सभी जन्म से ही दृष्टिबाधित थे, लेकिन अब ये रंगीन सपनों की रंगीन दुनिया देख सकेंगे। इन ऑपरेशनों के दौरान यह भी पता लगाया है कि इन बच्चों और युवाआें में एक जीन है, जिसके सक्रिय होने से ये जन्म से अंधे हैं और उस जीन की असामान्यता समाप्त कर देने से ये देखने लगे।

जन्मजात दृष्टिबाधितों की प्रमुख समस्या ये होती हैं कि उनका रेटिना प्रकाश को सही तरह से पकड़ नहीं पाता है। नए प्रयोग में यह पाया गया कि गड़बड़ आरपीई - ६५ जीन को सामान्य बनाकर रेटिना की कोशिकाआें में शामिल किया जाता है। मनुष्य में इसका परीक्षण पिछले १५ सालों से चल रहा था। इसके अलावा इसमें कई बार पशुआें पर भी परीक्षण किया गया। श्वानों में ये परीक्षण करने पर कुछ आशा की किरण जगी थी, लेकिन बात नहीं बनी, परंतु जीन थैरेपी के चलते जन्म से अँधेरे में रहने को अभिशप्त लोगों के लिए आशा की किरण जग सकती है।

तेजी से पिघल रहे हैं हिमालय के ग्लेशियर

सन् २०३० तक नदियाँ सब सूख चुकी होंगी, पीने तक को पानी नहीं होगा तो किसी और कार्य की तो बात ही नहीं की जा सकती। हिमायल ग्लेशियर तेजी से पिघल रहा है और नदियों की जननी माना जाता है। यह न केवल भारत के लिए वरन पूरे उप-महाद्वीप के लिए खतरे की बात है।

इतनी आबादी का भोजन-पानी बड़ा सवाल होगा और सभी को दुर्भिक्ष लीलता नजर आएगा। दुनिया के ताजे पानी का ७० प्रतिशत भंडारण ग्लेशियरों में है। हिमालय ग्लेशियर में एशिया के कई देशों को पानी पहुँचाने की ताकत है। हिमालय से तर होने वाली नदियों में गंगा, सिधु, ब्रह्मपुत्र, मेकाँग, सलवीन, यांग्त्जे और हुआंग हो शामिल हैं। इस ग्लेशियर में से हर साल १० से १५ मीटर पिघल जाता है।

जल्द ही पहला खतरा यह होगा कि नदियों में बाढ़ आएगी और प्रलयकारी स्थिति हो जाएगी। निश्चित तौर पर बाढ़ के पानी का संग्रहण कहीं नहीं हुआ है और किया भी नहीं जा सकता।

यह पहले के एकदम विपरीत होगा। बाढ़ के बाद सूखे की स्थिति होगी और २०३० तक ये ग्लेशियर पूरी तरह से पिघल चुके होंगे। इससे न केवल पानी खत्म होगा, वरन खाने को अन्न भी नहीं मिलेगा, क्योंकि पीने को पानी नहीं मिलेगातो खेतों के गले तर करने का सवाल नहीं नहीं उठता।

अकेले गंगा के दम पर ही करीब ५० करोड़ लोग जीवन यापन करते हैं। गंगा में ७० प्रतिशत पानी नेपाल की नदियों का भी आ मिलता है। वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर की रिपोर्ट में कहा गया है कि अनेक नदियों का पानी उस समय तक करीब ९० प्रतिशत कम हो चुका होगा। हिमालय पर अध्ययन करने वाले सैयद इकबाल हुसैन का कहना है कि ग्लेशियर के पिघलने के कारण हर साल जुलाई से सितंबर माह में दो-तिहाई कम हो जाता है।

शोध करने वालों का कहना है कि हिमालय का केवल १७ प्रश हिस्सा और काराकोरम का सिर्फ ३७ प्रश हिस्सा ही हिमाच्छादित रह गाया। इस ग्लेशियर के प्रमुख क्षेत्रों में सियाचिन, गंगोत्री, जम्मू, मिलम और केदारनाथ हैं। गंगोत्री ग्लेशियर हर साल २३ मीटर की औसत दर से कम होता जा रहा है, जबकि मांउट एवरेस्ट पर चढ़ने का लोकप्रिय मार्ग खुम्बू ग्लेशियर भी बुरे हाल में है। ***

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