गुरुवार, 31 मई 2007

पेड़, हमारे संस्कृति वाहक

अरण्य संस्कृति

पेड़, हमारे संस्कृति वाहक

राजेन्द्र जोशी

पेड़ कुदरत का एक ऐसा उपहार है जो पूर्वजों की स्मृतियों को अपनी डालियों, फूलों-फलों और पत्तों की तरह तरोताजा और हरा बनाये रखता है, हमारी संस्कृति में वह एक ऐसा निरंतर प्रवाह है जो एक पीढ़ी से दूसरी, तीसरी, चौथी और आगे तक की पीढ़ियों को फल, छांव और इंर्धन देता हुआ हमारी सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाता रहता है, एक तरफ जहां वह जीवनदायनी वायु ऑक्सीजन का उद्गम है, वहीं दूसरी तरफ वह आने वाली पीढ़ी को शिक्षित करने के पाठ्यक्रम का काम भी करता है - फूलों से नित हंसना सीखो/भौरों से नित गाना/फल से लदी डालियों से नित सीखो शीश झुकाना।

होता यह है, दादाजी के पिताजी ने जिस पौधे को रोपा उसे पिताजी सींचकर बड़ा करते हैं, पिताजी के जाने के बाद वह पौधा वृक्ष बन जाता है तीसरी पीढ़ी के लोग उस वृक्ष के फल खाते हैं, उसकी शीतल छांव में थकान मिटाने के लिए सुस्ता लेते हैं और बहू-बेटियां उसकी डाल पर सावन में झूलों की डोर बांध लेती हैं, जब चौथी पीढ़ी अस्तित्व में आती है तो पूर्वजों की कृपा से उसके आंगन में स्वयं पके फल टपकते हैं, उसकी छांव में पांचवीं पीढ़ी के बच्चे मई-जून की भरी गर्मी में गेंद, कंचे और गुल्ली-डंडे का खेल खेलते हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवार को आते-जाते, उतार-चढ़ाव का प्रत्यक्षदर्शी होता है आंगन में फलता-फूलता एक पेड़ ।

आंगन में पेड़ की छांव सिर्फ छांव ही नहीं है, बल्कि एक तरह से वह हमारे पुरखों की छत्रछाया है, हमारे परिवार के सिर पर जमीन में गहराई तक अपनी जड़ जमाकर और हमारे घरों की मुंडेर से ऊंचा उठकर हमारी सुख और समृद्धि के लिये कई तरह के साधन जुटाता है, जिस भी परिवार पर उसका वरदहस्त होता है उसे वह खुशहाल कर देता है, पेड़ कभी भी श्राप नहीं देता, बल्कि उसके तन-मन और आत्मा के टुकड़े-टुकड़े कर देने के बाद भी या जला-जलाकर कोयला या राख कर दिये जाने के बाद भी वह आशीर्वाद ही देता है, अस्तित्व में हरने पर तो एक तरह से वह टकसाल का काम करता ही है, अस्तित्वविहीन होने अर्थात् टुकड़े-टुकड़े होने और कोयला तथा राख हो जाने पर भी वह लोगों के बटूए भर देता हैं।

अब लगता है अस्तित्व में आती जा रही नई पीढ़ी अपने पारंपरिक संस्कारों, मानवीय संवेदनाआें, रीति-रिवाजों और जीवन मूल्यों को छोड़कर भौतिकता और विलासिता के चक्रव्यूह में फंसती जा रही है। इस दौर में आने वाली पीढ़ी के सामने जो लक्ष्य है वह है बाजारवाद में घुसपैठ। बाजारवाद जन्म दे रहा है नई पीढ़ी में स्वार्थ, लालच, लौलुपता, अनैतिकता को । इस दौर की दौड़- प्रतियोगिता में अब उसे न तो चाहिये पेड़, छांव, फल या शुद्ध वायु, उसे तो चाहिये सिर्फ पैसा और पैसा। पैसा मिलने का एक स्त्रोत दिख रहा है उसे पेड़, जिससे वह खूब पैसा कमाकर मालदार बनना चाहता हैं।

अब उसके हाथ में कुल्हाड़ी है, पूर्वजों की तरह आने वाली पीढ़ी को विरासत में वह न तो कोई संस्कार देना चाहता है और न ही कोई ऐसा इतिहास जैसा पूर्वजों का था, आने वाली पीढ़ी पेड़ काटकर उसके अंग-प्रत्यंग और उसके कोयले और राख के ढेरों से पैसा कमा रही है, उसे आधुनिकता और विलासिता की शिक्षा में डिग्रियां हासिल होती जा रही है, उसके पठन-पाठन के कोर्स में संस्कार और पूर्वजों की विरासतें नहीं है, उसे पढ़ाया जा रहा है पेड़ काट दो, बेच दो, उससे धन अर्जित कर बैंक बैलेंस बढ़ा लो, कमरा तो ठंडा हो जायेगा एयरकंडीशन की शीतल हवा से, वस्तुयें सुरक्षित रखी रहेंगी फ्रीज में, उसे फल नहीं चाहिये, उसे चाहिये पिज्जा, बर्गर और फास्ट फूड के पैकेट, डिब्बों में भरे फलों का नकली जूस, इन सब वस्तुआें को खरीद सकता है वह पैसा फेंककर कहा के संस्कार, कहां के रीति-रिवाज और कहां की परंपराएं?

यह युग है पुरखों से चली आ रही परंपराआें और संस्कृति से कटकर परंपराएं शुरू करने का। संस्कृति रिश्तेनातों और रीति-रिवाजों की नई परिभाषा गढ़ने का ऐसे माहौल में किसी के पास समय नहीं है नये पौधे रोपने का, उन्हें सींचकर बड़े करने का। पेड़ कब बड़ा होगा, पल्लवित-पुष्पित होगा फिर उसमें कब फल लगेंगे और पकेंगे, इसका इंतजार करने का वक्त अब किसी के पास नहीं है। आज आदमी को चाहिये फास्ट फूड, रेडिमेड जूस। इन सबके लिये उसे चाहिये पैसा और यह पैसा एक मुश्त तभी मिलेगा जब पुरखों की संपत्ति बेच दी जाये या फिर आंगन में और खेत की मेढ़ पर लगे पेड़ काट दिये जायें।

आज के भौतिकवादी जमाने के साथ कदम से कदम वही मिला सकता है जो पुरातन को कबाड़े की वस्तुयें समझकर और उसे बेचकर धन अर्जित कर लें, आज न तो लोगों में पुरातन के प्रति आदर-सम्मान या गौरव की भावना है और न ही आने वाले समय के लिये कुछ स्वस्थ परंपरायें और आदर्श स्थापित करने की चिंता है, उसके लिये तो जो कुछ है उसका वर्तमान है जिसके लिये वह पुरातन की होली जलाकर विलासिता, वैभव और भौतिक सुखों में मदहोश होकर रंगरैलियां मनाने में व्यस्त हो गया है।

नैतिकता विनम्रता और संवेदनाआें के अर्थ आज के आदमी के लिये महत्वहीन से होते जा रहे हैं, अब वह न तो फूलों से हंसना सीखना चाहता है न भौरों से गाना सीखना चाहता है और न ही फलों से लदी डालियों से शीश झुकाने के भाव सीखना चाहताहै। अब तो वह बिल्कुल ही नहीं सीख पायेगा, सीखेगा तो तब जब पेड़ होंगे, जब पेड़ ही नहीं है तो फूल कहां से आयेंगे, फूल नहीं तो भौरें कहां से मंडरायेंगे और जब डालियां ही नहीं तो उसमें फल कैसे लगेंगे, हंसना, गाना, झुकना जैसे जीवन के आवश्यक तत्वों को बेचकर आदमी बस पैसा कमाना चाहता है, वह कमा रहा है और सफलता पूर्वक दौड़ प्रतियोगिता में जीत हासिल करता जा रहा है औरों को टंगड़ी मारते हुये।

परंपराआें की तरह पेड़ भी काटते जा रहे हैं या यूं कहें कि पेड़ के साथ-साथ परंपरायें खत्म होती जा रही हैं, जाहिर है एक तरह से संस्कृति और समृद्धि का भी विनाश होता जा रहा है। पेड़ों की भूमिका एक संस्कृति वाहक के रूप में होती है । काश ! आज के लोग पेड़ों की इस भूमिका के अर्थ का अनर्थ न करते हुये उसके महत्व को समझने में भूल नहीं करते।

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