मंगलवार, 26 जून 2007

१२ कविता

१२ कविता
प्रार्थना के स्वर
शिवकुमार दीक्षित
अब वहाँ,
कुल जमा चार ही पेड थे
एम नीम, एक पीपल,
एक आम, एक बरगद ।
मैंने पूछा - तुम्हें भनक हैं ?
वे आ रहे हैं,
लपक कर तुम्हारी ही ओर
और चन्द मिनटों में तुम सब भी
नाम शेष रह जाओगे ?
कैसे करोगे उनका मुकाबला ?
भाग जाओगे ?, हल्ला मचाओगे ?
किसी थाने में जाओगे ?
नेताजी की अगुवाई में जुलूस बनाओगे ?
नारे लगाओगे ?,नगर बन्द करवाओगे ?
नीम बोला - नहीं, नहीं,
मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा,
मुझे मत भगाओ,
मैं तो अश्विनी हँू उनका,
अपने लिए नहीं, उन्हीं के लिए जीता हँू,
पल-पल उन्हीं की राह तकता हँू ।
फिर भी वे मुझे न चाहें, न चाहें,
वे स्वतंत्र हैं ।
पीपल बोला - मुझे भी मत उकसाओ,
उनके खिलाफ खडा हो जाने वाला खूनमेरी रंगों में नहीं है ।
मैं भी नीम का समर्थन करता हँू ।
जीवन हँू उनका, उन्हीं के लिए जीता हँू
मरते दम तक हर श्वास,उन्हीं के लिए भरता हँू ।
आम बोला - मुझे भी मत बहकाओ,बसन्त को नोतने जाना,
कोयल की तान सुनाना,मेरा फलना और गदराना,
सब उन्हीं के लिए हैं ।
उनकी राजी में, मेरी भी राजी है ।
बरगद बोला - मुझे भी मत फिसलाओ,
सभी की शोभा धर्म का धुरन्धर,
अक्षय, प्रेम से लबालब ज्ञानी हँू मैं ।
मेरी यह सबल काया,
सभी को लुभाती सघन छाया,
सब उन्हीं की है ।
वे जो भी करेंगे, मुझे मन्जूर है ।
थोडी देर बाद, मर्मान्तक आघातों के बीच,
उनकी समवेत प्रार्थना के अंतिम स्वर सुनाई दिये,
हे परम पिता ! इन्हें क्षमा करना,
ये नहीं जानते, ये क्या कर रहे हैं ।
और हो सके तो, ऐसा कुछ करना,
ऐसा कुछ करना, कि ये बिना अश्विनी,
बिना जीवन, बिना बसन्त, बिना ज्ञान,
और हम सबकी पोषक, त्रिविध ताप की शोषक,
बिना वर्षा के भी जिन्दा रह सके,जिन्दा रह सके !
आमीन !
***

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