बुधवार, 16 सितंबर 2009

७ कविता

प्रकृति की नियति
प्रेम वल्लभ पुरोहित राहीप्रकृति केनदी, नाले, किनारे, गदेरे, रोखड़यानि जहां तक उसनेहंसना, फैलना, अठखेलियां, खेलना, झूलना, झूमना वे सब छौर किनारे, हमने बैरोक-टोक, बिना मांगे-पूछे, कब्जा लिए और इंर्ट-पत्थरों के ढेर दूर-दूर तक शैतानी उन्माद में खड़े तो कर लिए-लेकिन - जब जब प्रकृति कहर ढाती, तो सारी राते भयभीत हुए, खड़े रहते अपना तांडवी-विकराल रूप पानी - बहा ले जाता-बार-बारमिट्टी, पत्थर, घरौंदे घर में सोएंसजाये सब कुछनही सुनता बालपन की किलकारियाँ लुढकना, बहना सुदूर तक/ प्रवाह गतिमान नियति उसकीआदमी का दोष देना, प्रकृति का विस्तार में फैलना विडम्बना नहीं तो क्या ?हां, सुनो-सुनों / प्रकृति दोषी नहीं भुगतना तुझे हैं । हां रोना भी तुझे कई मरतबा । घै लगा-लगा कर चैताया कहा न प्रकृति सें नहीं जीत पायेगा वक्त हैं- संभल जा - संभल जा***

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