बुधवार, 16 सितंबर 2009

९ आवरण कथा

बालिका भ्रूण हत्या और बेटी बचाआें अभियान
वीरेन्द्र पैन्यूली
स्त्री को देवी का दर्जा देने वाले भारतीय समाज को कन्या की भ्रूण हत्या में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं होती । सोनाग्राफी के आविष्कार के पहले भी गर्भ में लिंग जांच के अनेक टोटके मौजूद थे । जिनके आधार पर भ्रूण हत्या कर दी जाती थी । इस अनर्थकारी परम्परा को सामाजिक आंदोलन से ही समाप्त् किया जा सकता है । आज जगह-जगह भ्रूण हत्या के खिलाफ नारे लिखे दिखाई देते हैं । सोनोग्राफी के माध्यम से लिंग परीक्षण कर कन्या भ्रूण हत्या की जा रही है । परंतु इन अल्ट्रासाउंड मशीनी जांचों के पहले से ही विभिन्न समुदाय व समाजों में बुजुर्ग महिलाआें अथवा दवाईयों द्वारा गलत-सही धारणाआें के आधार पर गर्भस्थ शिशु कन्या हुई तो फिर अनचाही कन्या के संदर्भ में ऐसे समुदायों में परिणामों की बहुत भिन्न अपेक्षा नहीं की जाती थी। गर्भ गिराने के खतरनाक तरीकों को भी अपनाया जाता है । बच्ची यदि गर्भ में न मारी जा सकी तो जन्म के बाद मारने में संकोच नहीं किया जाता है । यही नहीं यदि बच्ची को गर्भ में मारा भी न गया तो भी माँ जो गर्भ वहन कर रही है उसके प्रति व्यवहार में उपेक्षा का भाव आ जाता है जो उसके व बच्च्े के स्वास्थ्य पर विपरीत असर डालता है । लड़के की माँ होने का अलग सम्मान व अलग देखरेख का स्तर आज भी देखने को मिलता है । अतएव बालिका भ्रूण व बालिका शिशु की हत्या रोकने को महिला सशक्तिकरण के एक प्रमुख मानक के रूप में अपनाया जाना आवश्यक है। यह जरूरी नहीं है कि इसका अनुपातिक संबंध लड़कियों की शिक्षा, उनकी धन कमाने की शक्ति में तुरंत दिखे । भारत के कई जिले जो आर्थिक या शैक्षिक रूप से आगे है वहां भी जन्मलिंग अनुपात, खेदजनक रूप से महिलाआें के विरूद्ध जा रहा हैं इनमें पंजाब, उत्तराखंड या दिल्ली जैसे अनेक क्षेत्र शामिल हैं । शहरों में लड़के व लड़कियों के बीच जन्मसंख्या का अंतर ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा ज्यादा है । परंतु अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह अंतर बढ़ रहा है । कुछ डॉक्टर शहरों से मशीनें ले जाकर गांवों में अल्ट्रासाउड परीक्षण करने लगे है । हांलाकि दिखावे के लिए ये परीक्षण अन्य अंदरूनी बीमारियों के नाम पर हो रहे हैं । वैधानिक रूप से अल्ट्रासाउंड मशीनें व उनका स्थान जहां वो रखी गई हैं वहीं पंजीकृत होना चाहिए। यदा-कदा जब छापे मारे जाते हैं तो अपराध का खुलासा होता है । बेटे को ही महत्व देने की मानसिकता हमारे यहां विद्यमान है । पहले जब आर्थिक स्थितियां इतनी कठिन नहीं थीं तो कई बेटियों के साथ एक बेटे की ललक में यदि ज्यादा बच्च्े भी हो जाते थे तो लोग उन्हें पाल लेते थे । जीवन स्तर व जीवन की गुणवत्ता जैसे मुद्दे गौण थे । किंतु अब जब सम्पन्न परिवार वाले व पढ़े लिखे परिवार वाले भी एक-दो बच्च्े तक सीमित परिवार ही रखना चाहते हैं तो भ्रूण लिंग जांच व कन्या भ्रूण की हत्या की आशंका घटने के बजाए बढ़ती जा रही हैं । चीन में जहां दम्पत्ति केवल एक ही बच्च पैदा कर सकते हैं और दूसरे बच्च्े के लिए विशेष अनुमति व भारी धनराशी देनी पड़ती है अतएव वहां भी दम्पत्तियों का हर संभव प्रयास लड़का ही पाने का होता है । इससे महिला पुरूषों की संख्या के बीच जो भारी अंतर आ रहा है उससे परिवारों और समुदायों में कई प्रकार की सम्स्याएं पैदा हो रही हैं। अपने देश में पंजाब व हरियाणा से इस प्रकार की खबरें खासकर ग्रामीण इलाकों में स्थित खेतीहर परिवारों में आम होती जा रही हैं । यहां अन्य राज्यों से महिलाआें को खरीदकर अपना परिवार और घर-गृहस्थी चलानी पड़ रही है । एक महिला को परिवार के कई-कई पुरूषों के साथ रहना पड़ रहा है, जिससे उसके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर घातक असर पड़ रहा है । विडम्बना यह है कि सब कुछ जानते बूझते हुए भी समाज में जागरूकता नहीं आ रही है । खरीदी गई महिलाआें को वापस अपने गृहस्थी में या किसी अन्य परिवार में जाने की छूट तभी दी जाती है जब वह बेटे को जन्म दें । स्थिति की गंभीरता तब और बढ़ जाती है जब वैज्ञानिक व चिकित्सा संबंध शोधपत्र, मिडिया में ऐसी जैविक तकनीकों के परीक्षण का दावा करते नजर आते हैं जिससे माँ के गर्भ में मनचाहे लिंग का भ्रूण धारण किया जा सकता है। पहले तो कुछ अंधविश्वासी लोग ही झाड़-फूंक आदि पर विश्वास करते थे और पशु बलि, नरबलि जैसे जघन्य कृत्य पुत्र प्रािप्त् के के लिए किया करते थे । परंतु इस आधुनिक वैज्ञानिक प्रपंचतंत्र का मुकाबला कैसे किया जाए ? प्रत्येक गर्भवती महिला का पंजीकरण व प्रसव की अवस्था तक उसके विकास की जानकारी भ्रूण हत्या जैसे अपराधों में कमी लाएगी वहीं दूसरी तरफ इसमें महिलाआें के स्वास्थ्य में सुधार होगा। सरकारें भी यह जान रहीं है कि केवल पीएमडीटी एक्ट १९९४ जैसे कानूनों या इस एक्ट में संशोधन के बाद पीपीएनडीटी एक्ट जिसमें २००३ में संशोधन किया गया था, से ही लिंग असंतुलन नहीं रूकेगा । इसके लिए सामाजिक व पारिवारिक दृष्टिकोण में बदलाव लाने के लगातार प्रयासों के साथ ही साथ ऐसी वित्तीय व समाज कल्याण की सुविधाएं भी देनी होगी जिससे लड़कियों को बढ़ा करना, उन्हें घर में ही अथवा घर से दूर पढ़ना व उनका शादी करना भार न लगे । इसके लिए केन्द्र व राज्य सरकारों की इस समय कई योजनाएं काम कर रही हैं । खेद है कि इसके बावजूद अभी भी अपने देश में बेटी बचाआें जैसे अभियान चलाने पड़ रहे है। महिला सशक्तिकरण का एक संकेतक यह तो होना ही चाहिए कि बेटियों की संख्या में और कमी न आए । मूल तथ्य यही है कि महिला सशक्तिकरण वास्तविक सशक्तिकरण से ही शुरू होगा । भारत में बच्च्यिों की सुरक्षा बहुत मुश्किल है । इस दिशा में पहला कदम परिवार को ही उठाना पड़ेगा।***
विस्थापितों के बच्चें को जमीन देने का आदेश
मध्यप्रदेश उच्च् न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले मेंकहा है कि इंदिरासागर बांध के विस्थापित किसानों के वयस्क पुत्र व वयस्क अविवाहित पुत्री को ५ एकड़ जमीन तीन माह के अंदर दी जाए । मुख्य न्यायाधीश अनंगकुमार पटनायक व न्यायाधीश पंकज जायसवाल की खंडपीठ ने कहा कि विस्थापित वयस्क पुत्र या पुत्री को अलग परिवार के रूप में विशेष पुनर्वास अनुदान का भी अधिकार है । यह आदेश उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा दायर अवमानना याचिका में दिया । इंदिरा सागर बांध में विस्थापित किसानों के लगभग १६ हजार वयस्क पुत्र तथा वयस्क अविवाहित पुत्रियां हैं । ये परिवार तीन वर्षो से पुनर्वास के लाभों का बेसब्री से इंजतार कर रहे थे ।

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