मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

१० कविता

पर्यावरण प्रदूषण
पेटवाल नागेन्द्र दत्त शर्मा
ये धरती तो है, सभी जीवों-निर्जीवों की जननी ।त्रस्त सब प्रदूषण से, ये सब मानव की करनी ।।उजड़ रहे हैं कही पहाड़, तो कहीं वन कट रहे ।कही रोक कर जल प्रवाह, बांध वहां बन रहे ।।हो रही वनस्पतियां विलुप्त्, धरा वृक्ष विहीन कहीं ।हो रही नष्ट वन-सम्पदा, पशु-पक्षी विहीन कहीं ।।जहरीला धुंआ उगलें है, काली चिमनियां यत्र-तत्र ।असंख्य वाहन छोड़ते हैं, रोज काला धुंआ सर्वत्र ।।कभी लहलहाया करते थे, हरे-भरे खेत जहां-तहां ।इन्सान उगा रहा हैं अब, कंक्रीट के जंगल वहां ।।मकानों की तो जैसे, हर तरफ बाढ़ सी आ गयी हो ।मानो सारे खेत-खलियान, बहा कर ले गयी हो ।।हो गया है छिद्र भी देखों अब तो, ओजोन लेयर मे ।आबादी की गाड़ी चल रही हो मानों, टॉप-गीयर मे ।।मानव ही कर रहा है, यह तहस-नहस चारों ओर ।लालच में फंसकर मारा उसके प्रपंचों ने पूरा जोर ।।फैला होता एक प्रदूषण, तो कोई सही जुगत लगाते ।और अपनी सारी कसर, उस दूर करने पर निकलवाते ।।ध्वनि, वायु, जल प्रदूषण की तो क्या और क्या न कहें ।जो है विचार तथा भ्रष्टाचार प्रदूषण उसे अब कैसे सहें ??न समझ आये ``नागेन्द्र'', कैसे रूकेगा प्रदूषण का तूफान ।ढूंढो कोई मंत्र ऐसा, फूंक दे जो पर्यावरण में पूरी जान ।।***

कोई टिप्पणी नहीं: