मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

५ वातावरण

गंदगी को नष्ट करते कीड़े
भरतलाल सेठ
शहरों से निकलने वाली अनुपचारित गंदगी पूरे वातावरण को प्रदूषित कर रही है । परंतु इसका सर्वाधिक खामियाजा हमारे जलस्त्रोतों को उठाना पड़ रहा है । सूक्ष्म जीवाणुआें के माध्यम से इसे उपचारित करने की नई तकनीक सामने आ रही है । परंतु भारत के शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों की नालियों में जिस स्तर के जहरीले रासायनिक पदार्थ मिलते हैं, क्या ये सूक्ष्म जीवाणु उनका सामना कर पाएंगें ? वैसे अब स्थिति भूल करके सीखने से आगे पहंुच चुकी है । अतएव आवश्यकता है कि जहरीले रासायनिक पदार्थोंा के प्रयोग को ही प्रतिबंधित किया जाए । उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री ने हाल ही में इस बात की मौखिक शिकायत की कि दिल्ली में कौटिल्य मार्ग स्थित उनके निवास के सामने खुले ड्रेनेज से घर में बदबू आ रही है । इतने पर ही नई दिल्ली नगर पालिका हरकत में आ गई और उसने ८.५ लाख प्रतिवर्ष के खर्च पर सीवेज का उपचार सूक्ष्म जीवाणुआें के माध्यम से करने के आदेश निकाल दिए इस प्रक्रिया के अंतर्गत एक टंकी में जीवाणुआें के एक भाग में ४० गुना अनुपचारित भूजल को डालकर इस सम्मिश्रण को ड्रेनेज में छोड़ दिया जाता है । इससे नाली का गंदा पानी साफ दिखाई देने लगता है और इसकी बदबू भी समाप्त् हो जाती है । इस नाली की खुराक करीब २.५ लीटर प्रतिदिन है और इसका मूल्य है ६०० रू. प्रति लीटर । अपशिष्ट के उपचार की यह सूक्ष्मजीवाणु निर्देशित तकनीक जैव पुन:उपचार या बायोरिमेडिकेशन कहलाती है । इस प्रक्रिया के अंतर्गत सूक्ष्म जीवाणु जैविक पदार्थोंा के नष्ट होने की प्रक्रिया को तीव्र कर देते हैं । प्रकृति जिस प्रक्रिया को वर्षोंा में करती है ये कीटाणु इस कार्य को हफ्तों में कर देते हैं । विश्व वन्य, जीव कोष भारत के द्वारा संचालित जीवंत गंगा कार्यक्रम के प्रधान सुरेश रोहिल्ला के अनुसार जिन नगर पालिकाआें और कंपनियों ने इस प्रक्रिया का इस्तेमाल किया है वे इसे वर्तमान में प्रचलित उपचार संयंत्र वाली विधि से बेहतर बता रहे हैं । इन संयंत्रों हेतु धन, बिजली एवं भूमि की आवश्यकता कम पड़ती है । इस लघु जीवाणु इकाई की स्थापना में बहुत कम समय लगता है तथा इस हेतु सामान्यतया निर्माण कार्य की भी आवश्यकता नहीं पड़ती और न ही कुशल मजदूरों की आवश्यकता नहीं पड़ती और न ही कुशल मजदूरों की आवश्यकता हैं। इस तरह के १०० प्रारंभिक संयंत्र भारत में तैयार हो चुके है अतएव अब इस तकनीक का मानकीकरण हो जानाचाहिए । इसके अलावा सीवेज उपचार विधि का गंगा की सफाई मेें भी महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है जिस पर केंद्र सरकार अब तक ३००० करोड़ रू. खर्च कर चुकी है। देश मेें पिछले ५ वर्षोंा में इस विधि की ५० प्रारंभिक परियोजनाआें को पूर्ण करने वाली कंपनी जे.एम. इनवायरनो की निदेशक ममता तोमर का कहना है कि गंगा बेसिन में प्रतिदिन जितना सीवेज या या गंदगी जाती है उसे बजाए पारम्परिक संयंत्रों से शोधन करने के यदि सूक्ष्म जीवाणुआें से यह कार्य किया जाता है तो प्रतिवर्ष १०० करोड़ रू. की बचत हो सकती है । वैसे प्रदूषण रोकने की इस पद्धति को लेकर सरकार अभी असमंजस में है । केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड के भूतपूर्व उपनिदेशक आर.सी. त्रिवेदी का कहना है कि चूंकि भूमि लगातार महंगी होती जा रही है अतएव इन लघु जीवाणुआें की भविष्य में निश्चित ही महत्वपूर्ण भूमिका होगी । इसलिए आवश्यक है कि केन्द्र सरकार इसकी अनुमति दे । वहीं केन्द्र द्वारा भारतीय शहरों में १०० प्रतिशत पानी की आपूर्ति एवं सेनिटेशन उपलबध कराने के लिए बनाई गई संस्था केंद्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं पर्यावरण अभियांत्रिकी संगठन के सलाहकार शंकर नारायणन का कहना है कि गंदगी को उपचारित करना विद्यमान नीतियों के विरूद्ध है । इसी के साथ भारतीय संघीय व्यवस्था भी एक मसला हैं। चूंकि जल आपूर्ति और सेनिटेशन राज्य का मसला है और नगरपालिकाएं इसे नियंत्रित करती हैं, अतएव इसमें केन्द्र की भूमिका महज सलाहकार की रह जातीहै । उनका मानना है कि यह एक अस्थायी हल ही है । वे अकेलेनहीं है जो कि इस तकनीक के प्रति शंकालु हैं । ब्रिटेन की एक जल कंपनी के महाप्रबंधक डेविड जॉन स्टोन का कहना है कि हमने इस तरह के दावे १९७० के दशक के अंत में सुने थे तथा हमने टेम्स नदी के पानी पर इसके कुछ प्रयोग भी किए थे । इन प्रयोगों का नतीजा यह निकला कि इससे बहुत कम या कोई सुधार नहीं हुआ तथा यह पैसे को नाली में बहाने का अच्छा माध्यम था। पिछले दिनों आईआईटी, कानपुर में इस संंबंध में वैज्ञानिकों से विमर्श करने हेतु एक गोष्ठी का आयोजन हुआ । संस्थान के प्रोफेसर विनोद तारे का कहना है कि हमारा उद्देश्य था कि इस तकनीक पर अकादमिक बहस कर इसके इस्तेमाल हेतु मानक तय करें, प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करें एवं इसकी लागत को पारदर्शी बनाएं। परंतु ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि कंपनियां अपने संकीर्ण व्यावसायिक हितों के परे देख ही नहीं पा रही थीं । इतना ही नहीं संस्थान द्वारा किए गए प्रयोगों में भी इस तकनीक को बहुत विश्वसनीय नहीं माना गया । क्योंकि इस तकनीक में बहुत कुछ तापमान, पीएच, अपशिष्ट को रोके रखने के समय, बहाव की दर और कच्च्े सीवेज के चरित्र पर निर्भर करता है । नागपुर स्थित राष्ट्रीय पर्यावरणीय अभियांत्रिक एवं शोध संस्थान के उपनिदेशक एस.आर. वाते का कहना है प्रदूषण नियंत्रण और उसमें कमी करने में मत उलझिए । वर्तमान तकनीक तालाब और झील जैसे नियंत्रित प्रणालियों को शुद्ध कर सकती है नदियोंे को नहीं । परंतु कुछ इससे असहमत हैं । वे कहते है हम प्रतिदिन नई खुराक डालते हैं । नए प्रदूषण के साथ नए जीवाणु डाले जाते हैं। जहां बहाव की गति अधिक है वहां हम लोग बाध बनाकर गंदगी के रूकने के समय को बढ़ा सकते है । जे.एम. एनवायरों ने दिल्ली के बंद पड़े अपशिष्ट उपचार संयंत्र मेंे ६ महीनों तक प्रतिदिन ५ करोड़ लिटर सीवेज को उपचारित किया । इसके नतीजों से संतुष्ट होकर दिल्ली जल बोर्ड ने कंपनी के अनुबंध को आगे बढ़ा दिया था । इस दौरान सिर्फ बिजली पर ही ६३ लाख रूपए की बचत हुई है । इसी क्षेत्र में कार्य कर रही कनाड़ा की एक कंपनी के अधिकारी आदित्य सिंघल का कहना है कि उपचार करने वाली इकाई में सर्वाधिक ऊर्जा, हवा पैदा करने वाले संयंत्र हेतु लगती है । क्योंकि जीवाणु की वृद्धि और उन्हें बचाए रखने के लिए ऑक्सीजन का स्तर बढ़ाना आवश्यक होता है । अतएव ऊर्जा की आवश्यकता ५० प्रतिशत तक घट जाती है । पारम्पारिक अपशिष्ट उपचार संयंत्रों में गंदे पानी के आने और शुद्धिकरण के बाद बाहर निकलने हेतु २४ घंटे का समय लगता है । जीवित जीवाणु इस कार्य को आठ घंटे में कर देते हैं अतएव ड्रेनेज को राके रहने का समय कम हो जाता है । इसके परिणाम स्वरूप ऊर्जा बचत होती है। इस तकनीक की मांग बढ़ने से भविष्य में इसकी लागत में कमी आ सकती है । अभी तक इसके निर्माण इकाईयां विदेशों में स्थित हैं और उत्पाद पर आयात कर एवं अन्य शुल्क भी लग रहे हैं । वैसे जे.एम. इनवायरो सन् २०१० में भारत में संयंत्र स्थापित कर देने के प्रति आशान्वित है । इससे लागत में ५० प्रतिशत की कमी आने की संभावना है । कंपनियां यह तर्क भी दे रही हैं कि जब तक उन्हें सीवेज के उपचार हेतु प्रदर्शन का पर्याप्त् मौका नहीं दिया जाएगा तब तक वे इस तकनीक की क्षमता भी ठीक से प्रदर्शित नहीं कर पाएंगी । ***

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