गुरुवार, 24 मार्च 2011

विश्व वानिकी दिवस पर विशेष


वृक्ष : जीवंत परंपरा के संवाहक
डॉ.खुशालसिंह पुरोहित

पर्यावरण के प्रति सामाजिक सजगता और पौधारोपण के प्रति सतर्कता हमारे ऋषियों ने निर्मित की थी, पौधारोपण कब, कहां और कैसे किया जाये उसका लाभ और वृक्ष काटे जाने से होने वाली हानि का विस्तारपूर्वक वर्णन हमारे सभी धर्मोंा के ग्रथों में है ।
वृक्षों की पूजा प्रकृति के प्रति आदर प्रकट करने का माध्यम है, जिसकी वजह से आज तक प्रकृतिका संतुलन बना हुआ है । आज समाज सिर्फ भविष्य की ओर देख रहा है, परन्तु वह यह भूल रहा है कि अंतत: यह प्रकृति ही है जो उसे जिंदा रखेगी ।
मानव जीवन के तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी ओर उपजाऊ मिट्टी मुख्य रूप से वनों पर आधारित है । इसके साथ ही वनों से कई अप्रत्यक्ष लाभ भी हैं जिनमें खाद्य पदार्थ, औषधियां, फल-फ ूल, इंर्धन, पश्ुा आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा संतुलन, भूजल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख है ।
पर्यावरण चेतना आदिकाल से भारतीय मनीषा का मूल आधार रही है । भारतीय संस्कृति वृक्ष पूजक संस्कृति रही है । हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उसकी पूजा की परम्परा प्राचीनकाल से रही है । वनस्पतियों के महत्व से भारतीय प्राचीन ग्रंथ भरे पड़े हैं । वृक्षों के प्रति ऐसा प्रेम शायद ही किसी देश की संस्कृति में हो, जहां वृक्ष को मनुष्य से भी ऊंचा स्थान दिया जाता है, उनकी पूजा कर सुख और समृद्धि की कामना की जाती है । वैदिक संस्कृति में पौधारोपण व वृक्ष पूजन की सुदीर्घ परम्परा रही है । प्रयाग का अक्षयवट, अवंतिका का सिद्धवट, नासिक का पंचवट (पंचवटी), गया का बोधिवृक्ष और वृंदावन का वंशीवट जैसे वृक्ष केन्द्रित श्रद्धा केन्द्रों की परम्परा अनेक शताब्दियों पुरानी है ।
वैदिक काल में प्रकृति के आराधक भारतीय मनीषी अपने अनुष्ठानोंमें वनस्पतियों को विशेष महत्व देते थे । वेदों और आरण्यक ग्रंथों में प्रकृतिकी महिमा का सर्वाधिक गुणगान है, उस काल में वृक्षों को लोकदेवता की मान्यता दी गयी थी । वृक्षों में देवत्व की अवधारणा का उल्लेख वेदों के अतिरिक्त प्रमुख रूप से मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, भविष्यपुराण, मद्मपुराण, नारदपुराण, रामायण, भगवद्गीता और शतपथब्राह्मण आदि ग्रंथों में मिलता है । मोटे रूप में देखे तो वेद, पुराण, संस्कृत और सूफी साहित्य, आगम, पंचतंत्र, जातक कथाएं, कुरान, बाईबिल, गुरूग्रंथ साहब हो या अन्य कोई ग्रंथ हो सभी मंे प्रकृति के लोकमंगलकारी स्वरूप का वर्णन है ।
दुनिया में सभी प्राचीन सभ्यताआें का आधार मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और आदर का रिश्ता है । इसी कारण पेड़, पहाड़ और नदी का अवतार के रूप में मनुष्यांे,प्राणियांे की पूजा की परम्परा का प्रचलन हुआ । मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्ति पूजा के साथ पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी विद्यमान थी । भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते हैं । अजंता के गुफाचित्रों और सांची के तोरण स्तंभोंकी आकृतियों में वृक्ष पूजा के दृश्य हैं । जैन और बौद्ध साहित्य में वृक्ष पूजा का विशेष स्थान रहा है । पालि साहित्य में विवरण आता है कि बोधिसत्व ने रूक्ख देवता बनकर जन्म लिया था ।
हमारे सबसे प्राचीन ग्रंथ वेदों में प्रकृति की परमात्मा स्वरूप में स्तुति है । इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति में वृक्ष पूजा की विविध विधियों का विस्तार से वर्णन है । नारद संहिता में २७ नक्षत्रों की नक्षत्र वनस्पति की जानकारी दी गयी है । हर व्यक्ति के जन्म नक्षत्र का वृक्ष उसका कुल वृक्ष है, यही उसके लिये कल्पवृक्ष है, जिसकी आराधना कर मनोवांछित फल प्राप्त् किया जा सकता है । सभी धार्मिक आयोजनों एवं पूजापाठ में पीपल, गुलर, पलाश, आम और वट वृक्ष के पत्ते (पंच पल्लव) की उपस्थिति अनिवार्य होती है । नवग्रह पूजा अर्चना के लिये नवग्रह वनस्पतियों की सूची है जिसके अनुसार उन वृक्षोंकी पूजा-प्रार्थना से ग्रह शांति का लाभ मिल सकता है ।
हमारे प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र और अलौकिक वृक्षों का उल्लेख है उनमें कल्पवृक्ष प्रमुख है । कल्पवृक्ष को देवताआें का वृक्ष कहा गया है, इसे मनोवांछित फल देने वाला नंदन वृक्ष भी माना जाता है । भारत में बंबोकेसी कुल के अडनसोनिया डिजिटेटा को कल्पवृक्ष कहा जाता है । इसको फ्रांसीसी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने १७५४ में अफ्रीका में सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नाम अडनसोनिया डिजिटेटा रखा गया । नश्वर जगत का कोई भी वृक्ष इसकी विशालता, दीर्घजीविता और आराध्यता में बराबरी नहीं कर सकता है । यह धीरे-धीरे बढ़ता है और सैकड़ों वर्षोंा तक जिंदा रहता है । भारत में समुद्रीतटीय प्रदेशों गुजरात, महाराष्ट्र ओर केरल में कल्पवृक्ष बहुतायत में मिलते हैं ।
पौराणिक ग्रंथ स्कंदपुराण के हेमाद्रि खंड के अनुसार पांच पवित्र छायादार वृक्षों के समूह को पंचवटी कहा गया है, सिमें पीपल, बेल, बरगद, आंवला व अशोक शामिल है । पुराणों में इन पांच प्रजातियों की स्थापना विधि, एक नियत दिशा, क्रम व अंतर के स्पष्ट निर्देश हैं ।
भगवान बुद्ध के जीवन की सभी घटनाये वृक्षों की छाया में घटी थी । आपका जन्म सालवन में एक वृक्ष की छाया में
हुआ । इसके बाद प्रथम समाधि जामुन वृक्ष की छाया में, बोधि प्रािप्त् पीपल की छाया में और निर्वाण साल वृक्ष की छाया में
हुआ । भगवान बुद्ध ने भ्रमणकाल में अनेेकों वनों एवं बागो में प्रवास किया था । इनमें वैशाली की आम्रपाली का ताम्रवन, पिपिला का सखादेव आम्रवन, नालंदा का पुरवारीक आम्रवन के नाम उल्लेखनीय है । उसके अतिरिक्त राजाग्रह निम्बिला और कंजगल के वेणु वनों का संबंध भी भगवान बुद्ध से आया है । जैन धर्म में जैन शब्द जिन से बना है, इसका अर्थ है समस्त मानवीय वासनाआें पर विजय प्राप्त् करने वाला । तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है नदी पार करने कराने का स्थान अर्थात् घाट । धर्मरूपी तीर्थ का जो प्रवर्तन करते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं । तपस्या के रूप में सभी तीर्थंकरों को विशुद्ध ज्ञान (कैवल्य ज्ञान) की प्रािप्त् किसी न किसी वृक्ष की छाया में हुई थी, इन वृक्षों को कैवली वृक्ष कहा जाता है ।
सिख धर्म में वृक्षों का अत्यधिक महत्व है । वृक्ष को देवता रूप में देखा गया है गुरूकार्य के उपयोग आने वाले धर्मस्थल के पास स्थित वृक्ष समूह को गुरू के बाग कहा जाता है । इनमें गुरू से जुड़े कुछ वृक्ष निम्न हैं - नानकमता का पीपल वृक्ष, रीठा साहब का रीठा वृक्ष, टाली साहब का शीशम और बेर साहब का बेर का वृक्ष प्रमुख हैं । इसके साथ ही कुछ और वृक्ष भी पूजनीय हैं । इनमें दुखभंजनी बेरी, बाबा की बेरी और मेहताबसिंह की बेरी के वृक्ष शामिल हैं ।
पृथ्वी पर पाये जाने वाले जिन पेड़-पौधों का नाम कुरान-मजीद में आया है, उन पेड़ों को पूजनीय माना जाता है । इन पवित्र पेड़ों में खजूर, बेरी, पीलू, मेहंदी, जैतून, अनार, अंजीर, बबूल, अंगुर और तुलसी मुख्य हैं । इनमें कुछ पैड़-पौधों का वर्णन मोहम्मद साहब (रहमतुल्लाह अलैहे) ने कुरान मजीद में किया है इस कारण इन पेड़-पौधों का महत्व और भी बढ़ जाता है । हम सभी धर्मग्रंथ पेड़-पौधों के प्रति प्रेम और आदर का पाठ पढ़ाते हैं । इसी प्रेम और आदरभाव से वृक्षों की सुरक्षा कर हम अपने जीवन में सुख और समृद्धि प्राप्त् कर सकते हैं ।
आज की सबसे बड़ी समस्या वनों के अस्तित्व की है । भोगवादी सभ्यता की पक्षधर दुनिया में कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा है जहां वृक्ष हत्या का दौर नहीं चल रहा हो । हमारे देश में सुखद बात यह है कि भारतीय संस्कृति की परंपरा वृक्षों के साथ सहजीवन की रही है पेड़ संस्कृति के वाहक हैं, प्रकृति की सुरक्षा से ही संस्कृति की सुरक्षा हो सकती है । इस लिये जंभोजी महाराज की सीख मेंकहा गया है कि सिर साटे रूख रहे तो सस्तो जाण, इसी क्रम मेंधराड़ी और ओरण जैसी परम्पराआें ने जातीय चेतना को प्रकृतिचेतना से आत्मसात कर वृक्ष पूजा और वृक्ष रक्षा से जीवन में सुख-समृद्धि की कामना की है । आज इसी भावना को विस्तारित कर हम अपने भविष्य को सुरक्षित रख सकते हैं ।

वनस्पति तालिका
क्र. नक्षत्र का नाम पौराणिक नाम वैज्ञानिक नाम सामान्य लाभ
१. अश्विनी कारस्कर डींीूलहििी ार्िीर्ु-ींिाळलर कुचिला
२. भरणी धात्री झहूश्रश्ररिर्हींीी शालश्रळलर आँवला
३. कृत्तिका उदुम्बर ऋळर्लीी ीरलशािरी गूलर
४. रोहिणी जम्बू डूूूसर्ळीा र्लीाळळिळ जामुन
५. मृगशिरा खादिर अलरलळर लरींशलर्ही खैर
६. आद्रा कृष्ण ऊरश्रलशीसळर ीळीीिि शीशम
७. पुनर्वसु वंश इरालिि बांस
८. पुष्य अश्वत्थ ऋळर्लीी ीशश्रळसळिरी पीपल
९. आश्लेषा नाग चर्शीीर रिसरीीरीर्ळीा नागसेकर
१०. मघा वट ऋळर्लीी इशसिहरश्रशिळी बरगद
११. पू. फाल्गुनी पलाश र्इीींशर ािििीशिीार ढाक
१२. उ. फाल्गुनी प्लक्ष ऋळर्लीी लशसिहरश्रशिळी पाकड़
१३. हस्त अरिष्ट डरळिर्विीी र्ाीज्ञिीीिीळी सरशीींि रीठा
१४. चित्रा बिल्व अशसश्रश ारीाशश्रिीी बेर
१५. स्वाती अर्जुन ढशीाळरिश्रळर रीर्क्षीि अर्जुन
१६. विशाखा विकंकत ऋश्ररलिीर्ीळींर ळविळलर कटाई १७. अनुराधा बकुल चर्ळाीीििी शश्रशसिळ मौल श्री
१८. ज्येष्ठा सरल झळिीर्ी ीुर्लिीीसहळळ ीरीस चीड़
१९. मूला सर्ज डहिशीर ीर्लिीीींर सील
२०. पूर्ष्वाषाढ़ा वंजुल डरश्रळु ींीींीरीशिीार जलवेतस
२१. उत्तराषाढ़ा पनस आीींलिरीिीर्ी हशींशीिहिूश्रर्श्रीी कटहल
२२. श्रवण अर्क उरश्रिींीिळिी िीलिशीर मंदार
२३. घनिष्ठा शमी झीिीिळिी लळशिीरीळर खेजड़ी
२४. शतभिषक कदम्ब आिहींलिशहिरर्श्रीी लहळशििळीी कदम्ब
२५. पू. भाद्रपद आम्र चरसिळषशीर खविळलर आम
२६. उ. भाद्रपद निम्ब अूरवळीरलहींर-खविळलर नीम
२७. रेवती मधूक चरवर्हीलर खविळलर महुआ

नवग्रह वनस्पति
यज्ञ द्वारा ग्रह शांति के लिये हर ग्रह के लिये अलग-अलग विशिष्ट वनस्पति की समिधा प्रयोग की जाती है । गरूड़ पुराण में कहा गया है
अर्क:, पलाश:, खदिरन चापामार्गोडथ पिप्पल: ।
औडम्बर: शमी दूर्व्वा कुशश्च समिध कमात ।।
अर्थ :- अर्क (मदार), पलाश, खदिर (खैर), अपामार्ग (लटजीरा) पीपल, ओडम्बर (गुलर) शमी, दूव और कश नवग्रहों की समिधायें हैं । जो क्रमश: सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहू और केतु की वनस्पतियां हैं। इस प्रकार हम वृक्षों की पूजा - प्रार्थना से हमारे जीवन में सुख-समृद्धि प्राप्त् कर सक ते हैं । ***

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