गुरुवार, 24 मार्च 2011

युवा जगत


पर्यावरण संकट और पर्यावरण शिक्षा
रवीश कुमार

पर्यावरण अति व्यापक संप्रत्यय है परन्तु पर्यावरण घटकों की जानकारी मनुष्य को आदिकाल से हैं इसी कारण मानव समाज एवं उसकी संस्कृतिका वनस्पतियों से घनिष्ठ सम्बन्ध सृष्टि के आदिकाल से ही है मनुष्य ने पौधों को सम्मान दिया, उनके महत्व को वास्तविक रूप से समझा जिससे वनस्पतियाँ हमारी संस्कृति, समाज एवं धर्म का अभिन्न अंग बन गयी थीं मनुष्य के इस पर्यावरणीय ज्ञान ने शिक्षा व संस्कृति को लगातार जोड़े रखा ।
सम्पूर्ण ब्रह्मांड में ईश्वरीय कृतियां विद्यमान हैं ये सभी कृतियां एक दूसरे को प्रभावित करती हैं । ब्रह्माण्ड के ज्ञात ग्रहों में हमारी पृथ्वी भी एक ईश्वरीय कृति हैं पृथ्वी नामक यह कृति ब्रह्माण्ड के ज्ञात सभी ग्रहों में से सर्वाधिक सुन्दर तथा सम्मोहक हैं पृथ्वी के सौन्दर्य एवं सम्मोहन का प्रमुख कारण इस पर जीवन का होना हैं । स्वस्थ एवं सुखी जीवन-यापन के लिए मानव का समाज एवं प्रकृति से तालमेल होना अति आवश्यक हैंप्रकृति में जीव-जगत ही नहीं अपितु वनस्पति-जगत, अन्य स्थूल-सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतम तत्व सम्मिलित हैं ये सभी तत्व सृष्टि के निर्माण के समय से लेकर अब तक विद्यमान हैंऔर सृष्टि के अन्त तक विद्यमान रहेंगे, यह निर्विवादित एवं अटल सत्य है सृष्टिकर्ता ने इस जगत में विविध रूप गुणों वाली प्रयोज्य वस्तुआें का निर्माण किया हैं ये सभी तत्व व वस्तुएें प्रयोज्य वस्तुएं जो हमें चारों ओर से घेरे हुए हैं । हमारा पर्यावरण हैं पृथ्वी पर जीवन का होना उसके पर्यावरण की ही देन हैं ।
हमारे चारों ओर का वातावरण जो हमें चारों ओर से ढके है, वह हमारा पर्यावरण हैंपर्यावरण को प्रकृति का समानार्थीमाना गया है तथा साधारण भाषा में इसे वातावरण भी कहा जाता है अत: पर्यावरण वह है जो मानव को चारों ओर से घेरे रहता है तथा उसे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न प्रकार से प्रभावित करता है, उसे ही पर्यावरण की संज्ञा दी जाती हैं सामान्य आधार पर पर्यावरण को दो भागों में विभाजित करते हैं :- प्रथम भौतिक पर्यावरण अथवा अजैविक पर्यावरण, दूसरा जैविक पर्यावरण अथवा सांस्कृतिक पर्यावरण स्थल, जल एवं वायु भौतिक पर्यावरण के तत्व हैंजबकि जैविक पर्यावरण में उत्पादक जैसे -हरे पेड़-पौधे (वनस्पतियाँ) उपभोक्ता जैसे- छोटे-बड़े सभी जीवधारी तथा अपघटक जैसे-जीवाणु, विषाणु (सुक्ष्मजीव) आते हैं मनुष्य तथा भौतिक व जैविक वातावरण (पर्यावरण) परस्पर एक- दूसरों को प्रभावित करते हैं ये सभी आपस में मिलकर पर्यावरण सन्तुलन का ताना-बाना बुनते हैं तथा जीवन की क्रियाआें को चलाने में मदद करते हैं भौतिक पर्यावरण के बदलने से जैविक पर्यावरण भी बदल जाता है जिससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ जाता है ।
पर्यावरण को प्रभावित करने में मानव ही महत्वपूर्ण कारक हैं मानव जीवन की शुरूआत जब से पृथ्वी पर हुई थी, तभी से मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया था धीरे-धीरे मानव के बौद्धिक विकास के साथ-साथ उसकी आबादी बढ़ी तथा उसकी संस्कृति व प्रौद्योगिकी का विकास हुआ, जिससे प्राकृतिक संसाधनों का अधिक उपयोग किया गया इसका परिणाम यह हुआ कि अत्यधिक प्रदूषक पदार्थ उत्पन्न हुये, जो धीरे-धीरे वातावरण में मिलते गये इन प्रदूषित पदार्थोंा के जल चक्र आदि का संतुलन बिगड़ रहा है, जो आज पर्यावरणीय संकट के रूप में सामने खड़ा हैं इस पर्यावरणीय संकट से मानव ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण पृथ्वी के जीवों का जीवन संकटग्रस्त हो गया है ।
प्रकृतिमंे सभी लोगों की आवश्यकताआें की पूर्ति करने की क्षमता है, लेकिन किसी एक के लालच की पूर्ति की नहीं अर्थात् हम उतना ही प्रकृति से लें, जितना परम आवश्यक है तथा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करें, शोषण नहीं यह निर्विवादित सत्य है कि प्राकृतिक संसाधनों के बुद्धिमत्तापूर्ण एवं आवश्यकतानुसार उपयोग से पर्यावरण संतुलन नहींबिगड़ सकता लेकिन मानव की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि वह थोड़े में संतुष्ट नहीं होता तथा प्रकृतिसे अधिकाधिक पाने के लिए प्रयत्नशील रहता है जिससे प्रकृति अर्थात् पर्यावरण का संतुलन बिगड़ने लगता है यह स्थिति ही पर्यावरण संकट के नाम से जानी जाती है
वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण, अम्लीय वर्षा, ओजोन पर्त का नष्ट होना, ग्रीन हाउस प्रभाव, ग्लोबल वार्मिंग आदि के कारण जलवायु परिवर्तन पर्यावरण प्रदूषण का परिणाम हैंतथा पर्यावरण संकट इसी पर्यावरण प्रदूषण की देन हैं अत: आज हमारे वैज्ञानिक, शिक्षक, छात्र, छात्रा तथा समाज में रहने वाले प्रत्येक पुरूष व स्त्री पर्यावरणीय संकट हेतु उत्तरदायी इन सभी मुद्दों के प्रति सचेत व चिन्तित हैं ।
पर्यावरण प्रदूषण अर्थात् वातावरण प्रदूषित होना किसी व्यक्ति विशेष की समस्या नहीं है बल्कि यह जन सामान्य की समस्या है एक ओर यातायात के साधन, कल-कारखाने, औद्योगिक इकाईयाँ, मानवीय संकीर्ण मानसिकता व असावधानियां बढ़ रही हैं तो दूसरी ओर विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ मनुष्य की विलासप्रियता बढ़ रही है, जो प्राकृतिक वातावरण के लिए विनाशक है मनुष्य ने अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इतना अधिक विकास कर लिया है कि वह अपने जीवन को आरामदायक स्थिति में ले जाना चाहता है किन्तु इन सब बातों के पीछे सत्यता यह है कि मनुष्य अपनी आरामदायक आवश्यकताआें को पूरा करने के लिए प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ कू्ररता का रूख अपनाता है ।
आज हमारी सभी नदियाँ, नहरें, तालाब बुरी तरह से प्रदूषित हैं, इसके अतिरिक्त हमारा भूमिगत जल भी प्रदूषित होने लगा है आज सभी छोटे-बड़े शहरों में वायु प्रदूषण की विकट समस्या हैं सन् १९८० के दशक से हमारे देश में औद्योगिकरण व शहरीकरण की अत्याधिक वृद्धि हुई है सन् १९८४ में भोपाल (मध्य प्रदेश) में हुई दुर्घटना भोपाल गैस त्रासदी वायु प्रदूषण का उदाहरण थीं यूनियन कार्बाइड की फेक्ट्री से मेथिल आइसो सायनेट नामक विषैली गैस के रिसाव ने आस-पास का वायुमण्डल प्रदूषित करके हजारों की संख्या में मनुष्यों, पशु-पक्षियों आदि की जीवन लीला समाप्त् कर दी थी तथा जो जीवित बच गये थे, उनकी संताने आज भी उसके प्रभाव को झेल रही हैं मथुरा तेल शोधक कारखाने से निकली सल्फर डाय ऑक्साइड गैस के प्रभाव से केवलादेव पक्षी, विहार, भरतपुर (राजस्थान) ही प्रभावित नहीं हो रहा बल्कि आगरा के ताजमहल का संगमरमर पीला हो गया एवं संगमरमर का क्षरण होने लगा है जिससे आने वाले वर्षोंा में इमारत कमजोर होकर गिर सकती हैं । सन् १९९० तक दिल्ली देश का सर्वाधिक वायु प्रदूषित महानगर था लेकिन कलकत्ता के जादवपुर विश्वविद्यालय द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि वर्तमान में कलकत्ता वायु प्रदूषण में देश में प्रथम स्थान रखता है विश्व के सर्वाधिक वायु प्रदूषित नगरों मे मैक्सिको का प्रथम तथा कलकत्ता का चौथा स्थान है ।
मनुष्य की विलासिता से भरे आधुनिक इस वर्तमान युग में विगत कुछ वर्षोंा में तीव्र गति से आबादी (जनसंख्या) वृद्धि, अनियमित औद्योगिकरण व नगरीकरण, मानव द्वारा अनियंत्रित खनन, नगरीय अवशिष्ट पदार्थोंा के अंबार (ढेर), धुंआ उगलती औद्योगिक चिमनियां, गंदगीयुक्त जल प्रवाह, वनों की अंधाधुंध कटाई तथा विकास योजनाआें के क्रियान्वयन मेंपर्यावरण सम्बन्धी पहलुआें पर विशेष ध्यान देने के कारण पर्यावरण संतुलन का तेजी से बिगड़ना प्रारम्भ हो गया है ।
आज आधुनिकता के नाम पर पर्यावरण को सर्वाधिक आघात पहुंचाया जा रहा है इन सभी के कारण उत्पन्न हुई पर्यावरण प्रदूषण रूपी समस्या आज सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख सबसे भयंकर एवं चिन्ता में डालने वाली सबसे बड़ी समस्या है पर्यावरण प्रदूषण से जीव-जन्तुआें तथा मानव के अस्तित्व पर खतरा मण्डरा रहा है साथ ही ऐतिहासिक इमारतें व धरोहर भी इसके दुष्प्रभाव से नहीं बच सकी हैं अत: रेशेल कार्सन ने वर्तमान युग को विषुयुग का नाम दिया है ऐसी परिस्थिति में यह अत्यन्त आवश्यक है कि समाज का प्रत्येक वर्ग अपने पर्यावरण के प्रति जागरूक होकर अपना अपने उत्तरदायित्वों को समझकर उनका निर्वाह करें ।
इस जागरूकता व चेतना को उत्पन्न करने हेतु तथा मानव व प्रकृति में सामंजस्य को बनाये रखने हेतु निरंतर कोशिशें करनी होंगी ऐसी ही एक कोशिश का नाम है - पर्यावरण शिक्षा क्योंकि शिक्षा ही वह सशक्त माध्यम है, जो व्यक्ति के व्यवहार और विचार बदल सकती है इसी कारण आज के युग मेंपर्यावरणीय शिक्षा की अहम् भूमिका महसूस की जा रही है तथा पर्यावरणीय प्रदूषण व पर्यावरणीय असंतुलन के कारण पर्यावरण शिक्षा का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है । पर्यावरण प्राणी का जीवन है, बिना इसके जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है जबकि पर्यावरण शिक्षा, वह शिक्षा है जो पर्यावरण के माध्यम से पर्यावरण के विषय मेंऔर पर्यावरण के लिए दी जाती
है ।
पर्यावरण शिक्षा के अन्तर्गत मनुष्य तथा उसके पर्यावरण (भौतिक, जैविक व सांस्कृतिक) के पारस्परिक सम्बन्ध तथा निर्भरता को समझने का प्रयास किया जाता है और उसको स्पष्ट करने हेतु कौशल, अभिवृत्ति एवं मूल्यों का विकास करते हैं यह निर्णय लिया जाता है क्या किया जाए ? जिससे वातावरण की समस्याआें का समाधान किया जा सके और पर्यावरण में गुणवत्ता लायी जा सकें । पर्यावरण शिक्षा विद्यार्थियों को उनके वातावरण के अनुकूल बनाने का प्रयास करती है ।
पर्यावरण शिक्षा मनुष्य को पर्यावरण पर नियंत्रण रखने की क्षमता प्रदान करती हैं पर्यावरण की सुरक्षा तब ही संभव है जब एक ओर तो मनुष्य को पर्यावरण के अनुकूल परिवर्तित रखना सीख ले और दूसरी ओर पर्यावरण को अपने अनुकूल इस परिवर्तन से पर्यावरण को कोई प्राकृतिक क्षति न होंमनुष्य में इन गुणों का विकास पर्यावरण शिक्षा ही कर सकती है । पर्यावरण शिक्षा ही व्यावहारिक तथा अनुकूल प्रभावशीलता पर ही पर्यावरण संरक्षण निर्भर करता है ।
पर्यावरण शिक्षा एक ढंग से जिससे पर्यावरण संरक्षण के लक्ष्यों को प्राप्त् किया जाये । पर्यावरण शिक्षा विज्ञान तथा अध्ययन क्षेत्र की पृथक शाखा नहीं है अपितु जीवन पर्यन्त चलने वाली शिक्षा की एकीकृत प्रक्रिया है ।
मानव समाज और पर्यावरण का सदियों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विकास में पर्यावरण का प्रमुख योगदान रहा है । पर्यावरण के संरक्षण संवर्धन तथा विकास के लिए पर्यावरणीय ज्ञान का हस्तांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में किया जाना बहुत जरूरी है अत: पर्यावरण को शैक्षिक प्रक्रिया का हिस्सा बनाने के उद्देश्य से ही भारत के सभी राज्यों के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में अनिवार्य रूप से पर्यावरण शिक्षा प्रदान करने का कार्य प्रारम्भ हो चुका है । ***

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