रविवार, 16 अक्तूबर 2011

महिला जगत

असुरक्षित होती महिलायें
डॉ. बनवारीलाल शर्मा

इस समय एक बड़ा हमला देश पर हो रहा है जो शायद अंग्रेजों के हमले से ज्यादा खतरनाक है । अंग्रेजों ने तो देश के लोगों के शरीर पर कब्जा किया था । जैसा कि जैक्सन ने कहा है वे अब रस्सी और बुलैट इस्तेमाल नहीं करते, अब वे सूचना तकनीकी का इस्तेमाल करके लोगों के दिमाग पर, लोगों के मन पर कब्जा जमा रहे हैं । इसका सीधा असर महिलाआंे पर पड़ रहा है । देश की राजधानी दिल्ली महिलाओं पर अपराध की भी राजधानी बन गयी है ।
पिछले ५०० साल के इतिहास मेंे दो बड़ी वैज्ञानिक क्रान्तियाँ हुई हैं जिनका उद्गम पश्चिम में, यूरोप और अमरीका में हुआ । विडम्बना यह है कि इन दोनो क्रान्तियों ने उपनिवेशवाद को जन्म दिया। पहली क्रान्ति औद्योगिक क्रान्ति थी जिसने यूरोप के देशों के हाथ में मशीनें और ऊर्जा के नये साधन दे दिये । इससे उनके कारखाने दिन-रात चलने लगे । इसने कच्च्े माल की भारी जरूरत पैदा की । दुनिया भर से कच्च माल बटोरने के लिए ये देश अमरीका, अफ्रीका और एशिया में निकल पड़े और सारे हथकण्डे अपनाकर यहाँ के देशों को अपना उपनिवेश बना डाला ।
पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में दूसरी क्रान्ति हुई, सूचना तकनीकी क्रान्ति । टेलिविजन, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, इण्टरनेट जैसे उपकरण प्रचार के मानव मन-मस्तिष्क को प्रभावित करने में बेहद उपयोगी सिद्ध हुए । पुराने उपनिवेशवादी देशों का उपनिवेशों पर शिकंजा दूसरे महायुद्ध के बाद ढीला पड़ गया जो लूट का तंत्र उपनिवेशकाल में खड़ा कर लिया था, वह टूटने लगा । लेकिन दुनिया भर की धन-दौलत पर पलने वाले लोग आसानी से हार मानने वाले नहीं थे। सूचना तकनीकी का भरपूर लाभ उठाकर उनकी विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियां दुनिया भर में फैल गयी । उन्होंने शरीर नहीं, मस्तिष्क पर हमला किया।
उपनिवेशवादी ताकतों ने जिन देशों को अपना उपनिवेश बनाया, उनकी कमजोरियों का लाभ उठाया। भारतीय समाज में जातिगत ऊँचनीच, धार्मिक भेदभाव, रियासतों के आपसी झगड़ों को समाज को तोड़ने और अपना आधिपत्य जमाने में भरपूर उपयोग किया आज के दूसरे तरह से उपनिवेश बनाने वाले कारपोरेट मनुष्य की दो दुर्बलताओं-हिंसा और सैक्स को अपने आक्रामक विज्ञापनों मंे इस्तेमाल कर रहे हैं । टेलीविजन चैनलों पर अपने सामानों के विज्ञापनों में युवा मन में थ्रिल पैदा करने के लिए मारधाड और कामुक दृश्यों को बार-बार पेश करना अब आम बात हो गयी है । इन विज्ञापनों का मूल उद्देश्य इच्छाओं का उत्पीड़न करना होता है और इसमें स्त्री शरीर का उपयोग करने के लिए कम्पनियां लाखों रुपये खर्च करती हैं।
कम्प्यूटर और इण्टरनेट दूर संचार के अत्यन्त प्रभावी माध्यम बन गये हैं । ज्ञान-विज्ञान के सम्प्रेषण में इनकी उपयोगिता ने कमाल कर दिया है परन्तु इसका एक अन्धेरा पक्ष है। हजारों वेबसाइट इनमें भरे हुए हैं जिन्होंने पोर्नोग्राफी की सारी सीमाएँ लाँध दी हैं। दिन-रात ये बेवसाइट लोगों, खासतौर से किशोर-किशोरियों के मस्तिष्क में अश्लीलता परोस रहे हैं । ये युवजन घण्टों समय इन्हीं वेबसाइटों पर विचरण करते हुए बिताते हैं।
मोबाइल फोन सूचना तकनीकी क्रान्ति की अनूठ ी भंेट है। 'दुनिया मेरी मुट्ठी में` का विज्ञापन गलत नहीं है । क्षणभर में दुनिया के किसी कोने में सम्पर्क करने की सुविधा मोबाइल फोन ने प्र्रदान कर दी है । बातें न भी करनी हों तो लाखों लोगों को अपना संदेश एसएमएस से भेजा जा सकता है। बड़ी-बड़ी कम्पनियों को तरुणों के मन का संयम का बाँध तोड़ना जरूरी लगा क्योंकि संयमपूर्ण मन इच्छाआंे का दमन करता है, उन्हें सीमित करता है जबकि कम्पनियाँ चाहती हैं कि लोगों की इच्छाएँ बढें तभी वे नये-नये सामान और सेवाएँ खरीदेंगे, कम्पनियों का लाभ बढ़ेगा। इस लाभ वृद्धि को ही आज विकास माना जाता है। एसएमएस भेजने और अश्लील चेटिंग को बढ़ावा देकर कारपोरेट जगत युवा मन के उद्दीपन में लगा हुआ है।
टेलीविजन, इण्टरनैट, मोबाइल के आधुनिक प्रचार माध्यमों के साथ-साथ कारपोरेट, परम्परागत तरीकों - बड़े-बड़े होर्डिंग लगाने और दीवारों पर पोस्टर चिपकाने पर करोड़ों रुपये खर्च कर रहे हैं। उन पर लिखे संदेश भ्रामक और झूठ े तो होते ही हैं, उन पर अधनंगी युवतियों के चित्र दिखाकर युवको और किशोरों के मन पर कुत्सित प्रभाव डालते हैं ।
कारपोरेटों की इन सारी चेष्टाओं का सीधा असर होता है, दर्शक की निम्नवृत्तियोंको उकसाना, उनमें अनेक प्रकार की इच्छाएँ जगाना । इन दबी हुई इच्छाएं मनोविकार तरह-तरह की अश्लील हरकतांे में निकलते हैं । पूरे समाज में अश्लीलता, असंयमित मनोविकार का ताँता फैल गया है। नतीजन कहीं भी बालिका से वृद्धा तक स्त्रियाँ सुरक्षित महसूस नहीं करती ं। महिलाओं से छेड़छाड़, बलात्कार सामूहिक बलात्कार और कत्ल की खबरों से अखबार पटे पड़े रहते है ।
आज के कारपोरेटी विकास मॉडल ने भूमि को पानी को, तो बाजार माल तो बना ही दिया है स्त्री भी उससे नहीं बची । उसे भी बाजार की वस्तु बनाने में कारपोरेटी मीडिया तंत्र लगा हुआ है । एक और धन्धा शुरू किया है- लड़कियों के ब्यूटी कंटेस्ट सौन्दर्य प्रतियोगिताएँ । ये प्रतियोगिताएँ विश्व स्तर, राष्ट्रीय स्तर से शुरू होकर कस्बे और विद्यालय स्तर तक प्रायोजित की जा रही हैं। स्त्री के बाजारीकरण का यह सबसे घिनौना तरीका है । इन प्रतियोगिताओं ने स्त्री को देखने की दृष्टि बदल दी है । स्त्री शक्ति और सृष्टि की प्रतीक है, यह भाव गायब हो गया है, अब स्त्री को कुछ मापों में समेट लिया है ।
इन सारी करतूतों का नतीजा साफ दिख रहा है । स्त्रियाँ कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं । आये दिन खबरे आती है कि वे घर पर, सड़क पर चलते, बसों या रेल में यात्रा करने में, कार्यालय में कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। लड़कियों के माता-पिता चिन्ता में डूबे रहते हैं जब तक उनकी बेटी विद्यालय या आफिस से लौट नहीं आती ।
देश की राजधानी दिल्ली महिलाओं के प्रति दुराचार के लिए शायद देश में सबसे आगे है । इसका प्रमाण यह है कि दिल्ली सरकार ने महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए आमजन से अपील की है और यह अपील जगह-जगह पर बड़े होर्डिग लगाकर की है ।
मूल बात यह है कि आज समाज में व्यापक पैमाने पर महिलाओं पर अपराध बढ़ रहे हैं, अश्लीलता बढ़ रही है और इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है मीडिया । चूँकि मीडिया कारपोरेट घरानों के कब्जे मेें है इसलिए समस्या का समाधान कारपोरेटों से टक्कर लेने में ही निकलेगा। इसका एक उदाहरण अमरीका में मिलता है । १९९६ में अमरीका में एक आयोग बिठाया गया । सामाजिक पुनरुत्थान के लिए राष्ट्रीय आयोग (छरींळिरिश्र उिााळीीळिि षिी उर्ळींळल ठशशिुरश्र) इसमें कहा गया कि अमरीका में नैतिक पतन तेजी से हो रहा है, इसके कारण पता लगाइये । वहाँ के एक सामाजिक संग ठन ने इस आयोग को लिखा नैतिक पतन के कारण ढूँढने के लिए अमरीका की गली कूँचे में मत घूमिए, पतन हो रहा है मीडिया के कारण, और मीडिया है कारपोरेटों के हाथ में । उसने एक साल में मीडिया ने क्या धर्तकर्म किये, इसके प्रमाण भी आयोग को दिये ।
जिस समाज में महिलाएँ अपने को सुरक्षित महसूस न करें, अपनी इज्जत न बचा सकें, उसे सभ्य समाज नहीं कहा जा सकता। सवाल यह है कि क्या किया जाये । सरकारों से कोई उम्मीद नहीं, वे कारपोरेटों के लिए कुछ भी कर सकती हैं । इस समस्या से जूझने के लिए लोगों को, खासतौर से युवाओं को खड़ा होना होगा । स्कूल-कालेजों में अपसंस्कृति विरोधी अभियान चलाया जाय । लड़के-लड़कियाँ तैयार हों कि ऐसे विज्ञापन नहीं चलने देंगे जो मानसिक विकृति पैदा करते हों । गन्दे पोस्टरों को फाड़ना होगा, गन्दे होर्डिग को काला पोतना होगा । गन्दे विज्ञापन छापने वाले अखबारों को चेतावनी दी जायेगी और न मानने पर उनकी प्रतियाँ फूँकी जायेंगी तब स्थिति बदलेगी ।

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