रविवार, 16 अक्तूबर 2011

ज्ञान विज्ञान

गुब्बारे घटाएगा ग्लोबल वार्मिग

अगर सबकुछ ठीकठाक रहा तो आने वाले वक्त में आपको गर्मी कम महसूस होगी । वैज्ञानिकों के एक दल ने इसके लिए तमाम तरह की मशक्कत करने के बाद एक विशाल गुब्बारा बनाया है जो आसमान में छोड़ा जाएगा । माना जा रहा है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ते जा रहे वैश्विक तापमान को इससे २ डिग्री सेल्सियस तक कम किया जा सकेगा ।



विशालकाय गुब्बार आकार में स्टेडियम के बराबर होगा । इसके भीतर कुछ विशेष प्रकार के रसायन होगें, जिन्हें गुब्बारे के नीचे लगे पाइप की मदद से आसमान में छोड़ा जाएगा । ये रसायन सूर्य की तीखी किरणों को परिवर्तित करके उन्हें वापस कर देगें । परिणाम ये होगा कि तपिश वाली किरणें धरती तक नहीं पहुंच पाएगी और तापमान नहीं बढ़ेगा । गुब्बारे के नीचे एक पाइप लगा होगा, जिसका संपर्क धरती पर तैर रहे एक जहाज से होगा, जो रसायनों को पंप करेगा ।
वैज्ञानिकों को इसकी प्रेरणा कहां से मिली ? यह तथ्य भी कम दिलचस्प नहीं है । दरअसल, १९९१ में फिलीपींस के माउंट पिनाटेबो में एक ज्वालामुखी फटा था, उससे निकलने वाली गैंसे जब वायुमण्डल में पहुंची तो वहां के तापमान में आधा डिग्री की कमी आ गई । वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि अगर धरती से ऐसा ही प्रयोग किया जाए तो ग्लोबल वार्मिग से निपटने में मदद मिलेगी । इसे जियो इंजीनियरिंग नाम दिया जा रहा है ।
प्रयोग के लिए एक गुब्बारा तैयार कर लिया गया है और इसे अगले माह नॉरफ्लॉक से छोड़ा जाएगा । गुब्बारे में जो रसायन होगें, वह बेहद सूक्ष्म आकार के होगे और शीशे का काम करेगे । ऐसे १० गुब्बारे छोडे जाएंगे जिनमें ६६० फीट प्रत्येक गुब्बारे की लंबाई होगी, इनमें १.६ मिलियन पाउंड खर्च होगें ।

नमकीन पानी गै से बनी पृथ्वी

पृथ्वी के विकास प्रक्रियाआें से जुड़ी नई जानकारियां मिलने का वैज्ञानिकों ने दावा किया है जिसमें बताया गया कि वायुमण्डल के नमकीन पानी और गैसों से हमारे ग्रह का अंदरूनी भाग तैयार हुआ । बहुत पहले से यह दलील दी जाती रही है कि पृथ्वी अपनी प्रारंभिक अवस्था में पिघले चट्टान से लिपटी थी और वहां से उसने आज तक का सफर तय किया जहां ठोस चट्टानी परतें, महासागर और वायुमण्डल है ।

अब युनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न के डॉ. मार्क केंड्रिक की अगुवाई में एक अंतरराष्ट्रीय दल ने अपने अध्ययन में पाया है कि वायुमण्डल की गैसे सब्डक्शन नामक एक प्रक्रिया के जरिए धरती के भीतर आपस मेंघुली मिली । डाँ. केड्रिंक ने कहा कि यह खोज महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे पहले यह माना जाता था कि पृथ्वी के भीतर निष्क्रिय गैस का उद्भव आदि काल से रहा और सौर प्रणाली के आस्तित्व में आने के समय से वह वहां पहुंची । उन्होनें कहा कि हमारा अध्ययन और भी ज्यादा जटिल इतिहास के बारे में बताता है जहां गैस पिघले परत से लिपटी पृथ्वी में घुल गई ।

नपुंसक नर मादा च्छर को छल सकते है

यह विचार तो काफी समय से हो रहा है कि यदि शुक्राणु विहीन नर मच्छर पर्यावरण में छोड़ दिए जाएं तो इस मलेरिया वाहक कीट पर काबू पाया जा सकता है । इसके पीछे सोच यह है कि ऐसे शुक्राणु विहीन नर मच्छरों से समागम के बाद मादा मच्छर संतान पैदा ही नहीं करेगी ।
इस तरह से मच्छरों पर नियंत्रण करने में किसी कीटनाशक रसायन का इस्तेमाल भी नहीं करना पड़ेगा । ये कीटनाशक जहरीले तो होते ही है, मच्छर इनके विरूद्ध प्रतिरोधी भी हो जाते हैं । मगर आज तक इस विचार को मच्छरों पर आजमाया नहीं गया था ।
अब प्रयोगशाला में किए गए परीक्षणों से पता चला है कि ऐसे शुक्राणु विहीन मच्छर भी मादा को समान रूप से आकर्षित करते हैं । यानी यह पहली बार दर्शाया गया है कि उपरोक्त रणनीति कारगर हो सकती है ।
वैसे नपुंसक नर के उपयोग की रणनीति को अन्य कीटों के संदर्भ में इस्तेमाल किया भी गया है । मगर इसे मच्छरों पर लागू करने में काफी पापड़ बेलने पड़े है । आम तौर पर नपंुसकता पैदा करने के लिए विकिरण का उपयोग किया जाता है । मगर मच्छर के मामले में इससे नर मच्छर की फिटनेस पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है और वे सामान्य मच्छरों से होड़ नहीं कर पाते ।
इसके अलावा एक सवाल यह भी रहा है कि मादाएं इन शुक्राणु विहीन मच्छरों को क्या प्रतिक्रिया देगी । जैसे फ्रूटफ्लाई ड्रॉसोफिला के मामले में देखा गया है कि जब एक नर से समागम के बाद मादा के शरीर में शुक्राणु जमा हो जाते है, तभी वह अन्य नरों से समागम करने से बाज आती है और अंडे देने को प्रेरित होती है । यानि यदि उसका समागम किसी शुक्राणु विहीन नर मक्खी से होगा, तो वह अन्य नरोंसे समागम करती जाएगी ।
हम मच्छरों के प्रजनन के विषय में बहुत कम जानते हैं । लिहाजा उपरोक्त सवालों का जवाब पाने के लिए इंपीरियल कॉलेज, लंदन की फ्लेमिनिया केटरूक्सिया और उनके साथियों ने ९६ शुक्राणु विहीन नर मच्छरों तैयार किए । इसके लिए उन्होंने विकिरण का नहीं बल्कि एक अन्य तकनीक आर.एन.ए. इंटरफरेंस का उपयोग किया । इस तकनीक के उपयोग का फायदा यह हुआ है कि इन मच्छरों के शेष गुणधर्मो पर कोई असर नहीं हुआ । ये शुक्राणु विहीन मच्छर एकदम सामान्य मच्छरों की तरह व्यवहार करते थे ।

प्लूटो का चौथा चंद्रमा खोजा गया

ब्रह्माण्ड को विडंबनाआें से प्रेम है । पांच साल पहले प्लूटो से ग्रह का रूतबा छिन गया था । अब हाल ही में खगोलविदों ने प्लूटो का एक और चंद्रमा खोजा है, जिसके चलते अब इसके आसपास चार चंद्रमा हो गए है । प्लूटो के इस नन्हे चंद्रमा का जन्म छोटे कणों की उसी टक्कर से हुआ होगा जिसने अन्य चन्द्रमाआें को जन्म दिया था ।

इस नए चंद्रमा की खोज हबल दूरबीन ने की है । फिलहाल इस चंद्रमा का नाम पी४ रखा गया है । खगोलविदों के अनुसार इसका व्यास १३ से ३४ किलोमीटर के बीच है । इस खोज दल के मुखिया, सेटी इंस्टीट्यूट, कैलिफोर्निया के मार्क सॉल्टर का कहना है कि यह अचरज की बात है कि हबल कैमरा ५ अरब किलोमीटर से अधिक की दूरी पर स्थित इतने छोटे पिंड को देख पाया ।
प्लूटो के अन्य तीन चंद्रमा पहले से ज्ञात है । १९७८ में खोजा गया चैरॉन इनमें सबसे बड़ा है । इसके व्यास १००० किलोमीटर के आसपास है । निक्स और हाइड्रा को हबल चित्रों में २००५ में खोजा गया था । ये चैरॉन से बहुत छोटे हैं और इनका व्यास क्रमश: ३२ और ११४३ किलोमीटर है ।
माना यह जा रहा है कि ये चारों चंद्रमा एक साथ एक ही समय पर निर्मित हुए होंगे । खोज दल के सदस्य, मैरीलैण्ड स्थित जॉन हॉपकिंस विश्वविघालय के एप्लाइड फिजिक्स लेबोरेटरी के हॉल वीवर का कहना है, प्लूटो के इस नए चंद्रमा की खोज से इस बात की पुष्टि होती है कि प्लूटो का निर्माण भारी टक्करों के साथ ४.६ अरब वर्ष पहले हुआ होगा ।
प्लूटो २०१५ मिशन टीम के एक सदस्य एलन स्टर्न कोलेरेडो स्थित साउथवेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में हैं । वे इस खोज से बहुत खुश हैं लेकिन इसका मतलब है कि प्लूटो के आसपास नजर रखनी होगी । वहां उपस्थित अनेक पिंड न्यू हॉराइजन अंतरिक्ष यान के लिए खतरा बन सकते हैं । उनको आशंका है कि हमारा अंतरिक्ष यान कहीं उस मलबे में न फंस जाए जो प्लूटो के छोटे चन्द्रमाआें निर्माण के दौरान हुई भारी टक्करों से पैदा हुआ है ।


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