सोमवार, 11 मार्च 2013

ज्ञान विज्ञान
चिड़िया सुर कैसे साधती है ?
    इंसान जब गाते हैं तो सुर का ध्यान रखने के लिए तानपुरा वगैरह यंत्र उपलब्ध होते हैं । आजकल तो गाने-बजाने में ऑटो-ट्यून तकनीक का इस्तेमाल होता है । इसकी मदद से सही सुर मिलाया जाता है । मगर गायक पक्षी आज भी पुरानी तकनीक का ही उपयोग करते हैं - सुनकर अपनी गलती को पकड़ना और दुरूस्त करना । और इस तकनीक का उपयोग करते हुए वे काफी चतुराई से काम लेते हैं । 
     संवेदी अंगों के जरिए मस्तिष्क अपने स्वामी की शारीरिक क्रियाआें पर नजर रखता है । इन अंगों से प्राप्त् फीडबैक के आधार पर वह गलतियों को सुधारता चलता है । सीखने सम्बंधी कई मॉडल्स मानते हैं कि गलती जितनी बड़ी होगी, सुधार भी उतना ही बड़ा किया जाएगा ।
    मगर एमरी विश्वविद्यालय के सेमुअल सोबर और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के माइकेल ब्रेनार्ड का विचार था कि मामला इतना सरल नहीं हो सकता, इसमें कोई पेंच   होगा । यदि मामला इतना सरल होता तो पक्षियों की तो शामत आ जाती क्योंकि बाहरी आवाजों को सुनकर वे भ्रमित होते रहते और अपनी गलतिया सुधारते रहते । ऐसे में यदि बाहरी आवाज बहुत अलग सुर में हुई तो पक्षी का तो गाना मुहाल हो जाएगा ।
    इसकी जांच के लिए सोबर और ब्रेनार्ड ने कुछ बंगाली फिंच पक्षी लिए । उन्हें किसी प्रकार से भ्रमित कर दियाकि वे बेसुरा गा रह हैं । इसके बाद यह नापने की कोशिश की कि इसका मस्तिष्क पर क्या असर होता है और मस्तिष्क क्या प्रतिक्रिया करता है ।
    उन्होंने पक्षियों के कानों पर बढ़िया हेडफोन्स लगा दिए । इन हेडफोन्स के जरिए उन्हें उनका ही गाना सुनाया गया मगर बीच में गाने को इस तरह परिवर्तित किया गया कि वह वास्तविक गाने की अपेक्षा ऊंचे सुर में सुनाई पड़ता था । सुर में परिवर्तन क्रमिक रूप से किया    गया । देखा गया कि पक्षी अपनी गलती को बेहतर ढंग से सुधारते हैं जब उनके गाने और हेडफोन के जरिए सुनाई पड़ रहे गाने में अंतर कम हों । यदि अंतर बहुत ज्यादा होता तो वे उसे अनदेखा कर देते थे । यह भी पता चला कि वे गलतियों पर तभी ध्यान देते थे जब यह अंतर पक्षी गीत कर स्वाभाविक घट-बढ़ की सीमा में होता, और उसे दुरूस्त करने में ज्यादा तत्परता दिखाते थे । लेकिन इस सीमा के बाहर की गलतियों को अनदेखा किया जाता था ।

दुनिया में बढ़ती भुखमरी से मुक्ति दिलाएगा जीन
    वैज्ञानिकों ने कहा है कि एक नया जीन पानी, उर्वरक और कृषि योग्य जमीन की मौजूदा उपलब्धता में ही २०५० तक दुनिया की ९.५ अरब तक पंहुचने जा रही आबादी का पेट भरने की चिंता से मुक्ति दिला सकता है । नए जीन को स्कैरेक्रोव नाम दिया गया है जिसे कार्नेल विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताआें ने पृथक करने में सफलता हासिल की  है । इससे प्रमुख फसलों का ५० प्रतिशत अधिक उत्पादन हो सकता है जिससे बढ़ती आबादी का पेट भरा जा सकता है । 
प्लांट एंड सेल फीजियोलॉजी पत्रिका की रिपोर्ट के मुताबिक, विशेष पत्ती संरचना जिसे जांज एनाटॉमी (शरीर रचना) के नाम से जाना जाता है, के नियंत्रण के लिए खोजा गया स्कैरेक्रोव पहला जीन है । कॉर्नेल के बयान के मुताबिक, पौधे प्रकाश संश्लेषण में दो में से एक पद्धति अपनाते हैं । सी३, एक कम प्रभावी, प्राचीन पद्धति जो गेहूं और धान सहित अधिकांश पौधों में पाया जाता है । और सी४ अत्यंत प्रभावी संयोजन जिसका इस्तेमाल घास, मक्का, ज्वार और गन्ने के पौधे करते हैं और यह सुखा,अत्यंत तेज धूप, ताप और न्यून नाइट-जिन के लिए अत्यंत  उपयुक्त होता है । प्लांट फीजियोलॉजी के प्रोफेसर रोबर्ट टुर्गेऑन के साथ अध्ययन के सह लेखक थॉमस स्लेविंस्की ने कहा, अनुसंधानकर्ताआेंने जांज एनाटॉमी में छिपे अनुवांशिक गुणों को पता लगाने का प्रयास किया ताकि हम उसे सी३ फसलों में स्थापित कर सकें । टुर्गेऑन ने कहा, संपूर्ण एनाटॉमी किस तरह संचालित होती है इसे समझने के लिए खोज ने सुराग दिया है । अभी बहुत अध्ययन बाकी है, लेकिन अब अनाज के गोदाम का दरवाजा खुल चुका है औश्र आप स्कैरेक्रोव पर लोगों को काम करते हुए देख सकेंगे । 
हिमालय में फूलों की मनोरम घाटी
    उत्तराखंड में चमोली (गढ़वाल) जिले और नेपाल-तिब्बत के सीमा से घिरी है बेहद खूबसूरत फूलों की घाटी फ्लावर नेशनल   पार्क । हिमालय की ऊंची घाटियों में स्थित इस पार्क में लगभग ३०० तरह के एलपाइन फूल पाए जाते हैं ।  जिससे बर्फ से ढंके पहाड़ों के आगे ऐसा लगता है मानों रंग-बिरंगी कालीन बिछी हों । लगभग ५५ मील में फैले इस पार्क को १९८२ में राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिला । यह उद्यान नंदा देवी नेशनल पार्क के पास ही है । यह दिल्ली से ५९५ किलोमीटर दूर है । फूलों की यह घाटी जून से लेकर सिंतबर तक खुलती है । बाद में यह पूरी घाटी बर्फ से ढंक जाती है । 
 अगर यहां के फूलों का खूबसूरत नजारा देखना चाहते हैं, तो जुलाई से अगस्त तक का समय सबसे बेहतर है । यहां की पहली बारिश के बाद फूलों की खूबसूरती देखते बनती है । जुलाई से पहले इस घाटी में एक भी फूल नहीं खिलता । इस समय पहाड़ों से पिघलती बर्फ का आंनद लिया जा सकता है । जुलाई से अगस्त तक यह घाटी फूलों से भर जाती हैं पर अगस्त खत्म होत-होते फूल अपने आप ही पीले पड़ने लगते हैं और धीर-धीरे मुरझा जाते हैं । मौसम की बात करें, तो यहां की रात और सुबह काफी ठंडी होती है ।
    हालांकि इस घाटी की चढ़ाई काफी मुश्किल है मगर यहां आकर ऐसा लगता है मानो आप किसी जादू की नगरी में आ गए हैं । चारों तरफ का वातावरण सुकून और शांति प्रदान करता है । वैली ऑफ फ्लावर के रास्ते में अनगिनत फूल अपनी खूबसूरती से आपका मन मोह    लेगें । ऐसा प्रतीत होता है मानो उस घाटी में आने के लिए फूल आपका स्वागत कर रहे हों । फूलों के अलावा यहां ऐसे जानवर देखे जा सकते हैं, जो लगभग विलुप्त् हो रहे हैं । जैसे - स्नो लेपर्ड, ब्राउन बीयर, ब्लू शीप, एशियाटिक बल्ैक बीयर । सन् १८८२ में इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिलने के बाद अब यह वर्ल्ड हेरिटेज साइट भी बन गया है । वहां के निवासी यह मानते हैं कि फूलों की घाटी में परियों का निवास है । यह ट्रेकिंग के लिए भी अच्छी जगह है । सन् १९३१ में इस जगह की खोज ब्रिटिश माउनटेनियर्स ने की थी और उन्होंने ही इस खूबसूरत घाटी को वैली ऑफ फ्लावर्स नाम दिया था । उन्होंने इस पर किताब भी लिखी थी ।
मच्छर को मलेरिया क्यों नहीं होता ?
    कई लोग मानते हैं कि मच्छर कीट जगत का जैव-आतंकवादी है । मच्छर जब इंसान के खून की दावत उड़ाता है (उड़ाती है कहना बेहतर होगा) तो तमाम किस्म की बीमारियां भी फैलाता है। ऐसी सारी बीमारियों के कीटाणु मच्छर के शरीर में रहते है । फिर मच्छर खुद क्यों बीमार नहीं होते ?
      दरअसल जब कोई मच्छर इंसान का खून पीता है तो उस इंसान के खून में मौजूद रोगजनक कीटाणु मच्छर के शरीर में पहुंच जाते हैं । ये मच्छर की आंत में पहुंचते हैं और वहां से खून में बहते हुए लार ग्रंथि में पहुंच जाते हैं । अगली बार जब मच्छर किसी इंसान को काटता है तो लार ग्रंथि में मौजूद ये कीटाणु उसके शरीर में पहुंच जाते हैं और चक्र फिर से शुरू हो जाता है ।
    जब ये कीटाणु मच्छर के रक्त प्रवाह में ह्दय में पहुंचते हैं तो वहां खून के प्रवाह में कोई गतिरोध पैदा नहीं करते हैं ।

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