सोमवार, 11 मार्च 2013

हमारा भूमण्डल
बीमार वैश्विक अर्थव्यवस्था
आर. नास्ट्रेनिस

    संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किए गए वैश्विक आर्थिक आकलन से आने वाले वर्ष में वैश्विक अर्थव्यवस्था में बहुत सुधार की गुंजाइश दिखाई नहीं दे रही है । प्राकृतिक संसाधनों के निर्यात पर निर्भर अर्थव्यवस्थाआें में आ रहा सुधार भी बहुत शुभ संकेत नहीं है । वहीं दूसरी और आयात निर्भर अर्थव्यवस्थाआें पर बढ़ता बोझ भी भविष्य के प्रति निराशा ही पैदा कर रहा है । इन विकट एवं विचित्र परिस्थितियों में अंतत दोनों ही पक्ष हारते नजर आ रहे हैं ।
    संयुक्त राष्ट्र संघ का मत है कि वैश्विक वित्तीय संकट के सामने आने के चार वर्ष बाद भी अल्प विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के सन २०१३ में पटरी पर आने की गुजांइश बहुत कम हैं । विश्व अर्थव्यवस्था की स्थिति एवं भविष्य - २०१३ नामक संयुक्त राष्ट्र संघ रिपोर्ट में कहा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर जो कि सन् २०१२ में ३.७ प्रतिशत थी नए वर्ष में बढ़कर ५.७ प्रतिशत तक पहुंच जाएगी । रिपोर्ट में कहा गया कि वापसी की मुख्यतया उम्मीद यमन एवं सूडान की आर्थिक स्थिति में आए सुधार पर निर्भर करेगी, जहां पर सन् २०१० एवं २०११ में राजनीतिक, अस्थिरता में काफी कमी आई है । 
      संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार अल्प विकसित देशों में यह प्रति व्यक्ति के हिसाब से सन् २०१२ में १.३ प्रतिशत थी, के सन् २०१३ में ३.३ प्रतिशत पर पहुंचने की उम्मीद है । इसे उल्लेखनीय सुधार माना जा सकता है लेकिन यह २००० के दशक के दौरान संभाव्य कल्याणकारी वृद्धि दर पर ५ प्रतिशत से काफी कम है । वैसे यह अनुमान विश्व मेंआए आर्थिक एवं वित्तीय संकट से पहले का है । इतना ही नहीं अल्प विकसित देशों को आर्थिक गतिविधियों में काफी भिन्नता भी बनी रहेगी । रिपोर्ट के अनुसार - अंगोला एवं गुयाना जैसे अनेक तेल निर्यातक देशों को तेलों की निरन्तर मजबूत कीमतों से फायदा पहुंचेगा एवं सन् २०१३ में उनकी वृद्धि दर क्रमश: ७ एवं ९ प्रतिशत रह सकती है । लेकिन ऐसे अल्प विकसित देश जहां कृषि की प्रधानता है वहां जोखिम बना रहेगा । इस तरह के तीव्र आर्थिक उतार चढ़ाव नीति निर्माताआें के लिए अनेक समस्याएं खड़ी कर देते हैं । इसी वजह से दीर्घकालीन नीतियां तैयार करने में समस्या आती है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने लघु अवधि एवं अनायास आने वाले संकटों से किसानों को बचाने का आव्हान भी किया है । इसी क्रम में इथोपिया में पिछले १० वर्षो से हो रही जबरदस्त वृद्धि को सराहते हुए इस वर्ष इसमें थोड़ी कमी की आंशका जताई है । लेकिन इस सतत वृद्धि के लिए उन्हीं कृषि क्षेत्र में हुए विकास को ही श्रेय दिया है ।
    अनेक अल्पविकसित देशों में श्रमिकों को रहे स्थायी भुगतान की वजह से वहां हो रहे ठोस निवेश एवं उपभोग की ओर भी ध्यान खींचा गया है । इसका उदाहरण बांग्लादेश है जहां पर विदेशी मांग कम होने के बावजूद उम्मीद की गई है कि वहां सन् २०१३-१४ में विकास दर ६ प्रतिशत को पार कर जाएगी । विदेशों में ज्यादा रोजगार मिलने की वजह से सन् २०१२ की दूसरी छमाही में यहां विदेशी धन की आवक में २० प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है । इसी के साथ यह चेतावनी भी दी गई है कि कई अल्प विकसित देशों की स्थिति में गिरावट भी आ सकती है ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि सन् २०१२ में कई विकसित देश दोहरी मंदी का शिकार हो गए हैं । विकसित देशों का आर्थिक संकट अंतत: विकासशील देशों पर हस्तांतरित हो रहा है । इससे उनके यहां संकट गहरा रहा है और उनके निर्यातों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा  है । अनेक विकासशील देशों ने हाल के वर्षो में उत्साहजनक आर्थिक प्रगति की है । लेकिन अब वे जिनमें चीन भी शामिल है अनेक अधोसंरच-नात्मक बाधाआें से जूझ रहे हैं और यहां की स्थानीय सरकारों के सामने जबरदस्त आर्थिक संकट खड़े हो रहे हैं । जिसमें परियोजनाआें में निवेश में कमी एवं कहीं पर अधिक निवेश की वजह से उत्पादन क्षमता का अत्यधिक विस्तार होना भी शामिल है ।
    अफ्रीका की अर्थव्यवस्था के बारे में बताया गया है कि इसमें थोड़ी गिरावट आएगी और यह सन् २०१२ की ५ प्रतिशत की वृद्धि दर से गिरकर ४.८ प्रतिशत पर आ सकती है । कमोवेश सतत बनी विकास दर की पृष्ठभूमि में तेल निर्यातक देशों का शक्तिशाली प्रदर्शन, अधोसंरचनात्मक परियोजनाआें में लगातार निवेश एवं एशियाई अर्थव्यवस्थाआें के साथ बढ़ते आर्थिक रिश्ते शामिल हैं । लेकिन अफ्रीका अभी भी कई चुनौतियों में उलझा हुआ है । हालांकि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि जारी रहेगी लेकिन यह गरीबी को कम करने में अपर्याप्त् बैठेगी । इस क्षेत्र की अधिकांश अर्थव्यवस्थाआें के समक्ष अधोसरंच-नात्मक परियोजनाआें में वित्तीय खर्च की कमी बड़ी समस्या है ।
    संयुक्त राष्ट्र संघ रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि चीन एवं भारत की अर्थव्यवस्थाआें में सन् २०१२ में आई व्यापक कमी से विकासशील एशिया भी कमजोर हुआ है । इस कमी की मुख्य वजह वैसे तो निर्यात में आई कमी है लेकिन विगत दो वर्षो में अर्थव्यवस्था को चुस्त न बना पाना भी इसका एक प्रमुख कारण  है । इस दौरान घरेलू निवेश में भी कमी आई है । चीन और भारत दोनों को ढांचागत परिवर्तनों में काफी कठिनाई आ रही है । भारत में अब और अधिक नीतिगत प्रोत्साहन दे पाना कठिन है । वहीं चीन एवं इस क्षेत्र के अन्य देशों में ऐसे प्रोत्साहन दिए जाने की अधिक गुंजाइशें मौजूद तो हैं, लेकिन वे ऐसा करने में सकुचा रहे हैं । वैसे लग रहा है कि पूर्वी एशिया में वृद्धि दर सन् २०१२ के ५.८ प्रतिशत के अनुमानोंसे बढ़कर सन् २०१३ में ६.२ प्रतिशत पर पहुंच सकती है । वहीं दक्षिण एशिया में यह सन् २०१२ के ४.४ प्रतिशत से बढ़कर ५ प्रतिशत पर पहुंच सकती हैं । लेकिन यह निहित संभावनाआें से काफी कम है ।
    वहीं पश्चिम एशिया में एक दम विरोधाभासी प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है । अधिकांश तेल निर्यातक देशों में तेल के राजस्व में रिकार्ड तेजी एवं सरकार द्वारा किए जा रहे खर्चो से जबरदस्त वृद्धि दर प्राप्त् करने में मदद मिलती है । इसके ठीक विपरीत तेल आयातक देशों में बढ़ते आयात खर्च, घटती बाहरी मांग एवं नीतियों में घटती संभावनाआें के चलते आर्थिक गतिविधियों में कमजोरी आई है इसके परिणामस्वरूप तेल निर्यातक एवं तेल आयतक अर्थव्यवस्थाएं दोहरे परिणाम देती दिखाई पड़ रही है । इस बीच सीरिया में सामाजिक असंतोष एवं राजनीतिक अस्थिरता से पूरा क्षेत्र ही जोखिम में पड़ गया है । कुल मिलाकर इस पूरे क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि जो कि सन् २०११ में ६.७ प्रतिशत थी के सन् २०१२ एवं १३ में घटकर ३.३ प्रतिशत पर पहुंच जाने की आशंका है ।
    निर्यात में आ रही कमी के चलते लेटिन अमेरिका और केरेबियन देशों की वृद्धि दर में सन् २०१२ में उल्लेखनीय कमी आई है । इसके और नीचे जाने का अनुमान है । वैसे ब्राजील के मजबूत प्रदर्शन से थोड़ी उम्मीद बंधी है । समूचे क्षेत्र के घरेलू उत्पाद के संबंध में मत है कि यह सन् २०१२  के ३ प्रतिशत की वृद्धि से बढ़कर ३.९ प्रतिशत पर पहुंच सकता है । वहीं राष्ट्रमंडलीय स्वतंत्र राज्यों की अर्थव्यवस्था का संक्रमण सन् २०१२ में भी जारी  रहा । दूसरी छमाही में इसमें थोडा सुधार अवश्य आया है उत्पाद वस्तुआें खासकर तेल एवं प्राकृतिक  गैसों के बढ़ते मूल्यों के चलते तेल निर्यातक रूस एवं कजाकिस्तान जैसे देशों की अर्थव्यवस्था में वृद्धि दिखती है वहीं दूसरी ओर माल्दोवा गणराज्य एवं यूक्रेन में स्थितियां एकदम उल्ट  रहीं ।
    इनमें से कम ऊर्जा आयातक देशों को निजी विदेशी निवेश से सहायता मिली । वैसे यहां की वृद्धि दर के ३.८ प्रतिशत पर स्थिर रहने की संभावना है । इसी तरह दक्षिण पूर्वी यूरोप का संक्रमण काल में लघु अवधि के लिए चुनौती बना हुआ है । यहां की वृद्धि दर के सन् २०१२ में ०.६ प्रतिशत से बढ़कर सन् २०१३ में १.२ प्रतिशत होने की संभावना है ।

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