मंगलवार, 14 मई 2013

पर्यावरण समाचार
अस्पतालों के कचरे का इलाज जरूरी
    देश में चिकित्सीय कचरा न सिर्फ पर्यावरण, बल्कि स्वास्थ्य के लिहाज से भी चिंता का विषय बनता गया है । राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के ताजा निर्देश पर सीपीसीबी यानी केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने एक जांच के बाद दिल्ली के पांच बड़े अस्पतालों के बारे में जो खुलासा किया, वह इस बात का सबूत है कि आधुनिकतम या विशेषज्ञता का दावा करने वाले ये अस्पताल किस तरह अपने यहां रोजाना इकट्ठा होने वाले चिकित्सीय कचरे और उसके खतरों के मामले मेंघोर लापरवाही बरतते है । राष्ट्रीय हरित पंचाट को सौंपी अपनी जांच रिपोर्ट में बोर्ड ने तीन सरकारी और कुछ विशेष उपचार संबंधी सुविधाआेंवाले निजी अस्पतालों को भी तय मानकों के उल्लघंन का दोषी पाया है ।
    राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अनेक अस्पतालों और क्लीनिकों की जांच में पाया गया कि इस मामले में वहां नियमों को ताक पर रख दिया गया है । देश के दूसरे इलाकों में स्थिति इससे अलग नहीं है । चिकित्सीय कचरे के निपटान में लापरवाही के मामले में तकरीबन डेढ़ साल पहले पर्यावरण वन मंत्रालय ने देश के तेरह सौ से ज्यादा स्वास्थ्य सेवा केन्द्रों को दोषी पाया था ।
    आमतौर पर जैविक चिकित्सीय कचरे को संक्रामक और गैर-संक्रामक, दो श्रेणियों में बांटा जाता है । लेकिन अगर संक्रामक कचरे का निपटान वैज्ञानिक तरीके से नहीं किया गया तो वह दूसरे गैर-संक्रामक कचरे को भी दूषित कर देता है । इससे फ्यूरांस और डायोक्सिन जैसे कई तरह के प्रदूषक तत्व पैदा होते है जो कैंसर, मधुमेह, प्रजनन और शारीरिक विकास संबंधी परेशानियों की वजह बन सकते है । जैव चिकित्सा अपशिष्ट (प्रबंधन एवं निपटान) अधिनियम, १९९८ के तहत अस्पतालों के लिए अनिवार्य है कि वे पर्यावरण के अनुकूल और वैज्ञानिक तरीके से कचरे का निष्पादन करें । लेकिन विडंबना है कि जहां पश्चिमी देशों में जैव-चिकित्सीय कचरे का निपटान एक व्यावसायिक गतिविधि बन चुका है, वहीं हमारे देश में उत्सर्जित ऐसे कचरे मे से महज लगभग आधे कचरे का ही निपटान हो पाता है ।

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