मंगलवार, 14 मई 2013

विरासत
रामायण में वन चेतना
चंदनसिंह नेगी

    वायु मंडल में बढ़ते प्रदूषण के स्तर को नियंत्रित करने के प्रयास किए जा रहे है परन्तु जब तक ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आम जन तक यह चेतना नहीं पहुंचती तब तक सारे प्रयास निरर्थक ही हैं । भारतीय पौराणिक परम्परा में वनों को सामाजिक जीवन में जो महत्व दिया गया है वह हम विस्मृत कर गए  हैं । अगर हम अपने पूर्वजों की दी गयी परम्परा को न भूलते तो आज प्रदूषण की समस्या ही न होती । वाल्मीकि के रामायण और महाभारत दो ग्रन्थ भारतीय आध्यात्मिक सामाजिक नीतिगत बिन्दुआें का विस्तृत ज्ञान देते है परन्तु हमने पर्यावरणीय दृष्टिकोण से इन ग्रन्थों का अध्ययन किया होता और उसका पालन करते तो हम भारतीय धरती पर बढ़ते जलवायु प्रदुषण पर अंकुश लगा सकते थे । 
     आदि कवि वाल्मीकि की ऐतिहासिक कृति रामायण भले ही आम आदमी के लिए रामचन्द्र की एक कथा भर हो जो हमेंसमाज की बेहतरी का संदेश देती है परन्तु रामायण के माध्यम से कवि वाल्मीकि ने वृक्षों-वनों की महत्ता का विस्तृत विवेचन किया है इस संदर्भ में आज वाल्मीकि की रामायण अधिक प्रासंगिक हो गयी है । सम्पूर्ण रामायण में वृक्षों और वनों के अभाव में कोई घटना नजर ही नही आती । कवि वाल्मीकि अनेक घटनाआें से यह बताने का प्रयास करते है कि वृक्षों के प्रति मनुष्य का क्या कर्तव्य है वास्तव में रामायण में पग-पग में पेड़ है और वे हर घटना के साक्षी भी हैं । वनों की सघनता वहां नजर आती है ।
    भरत जब भारद्वाज मुनि के आश्रम में पहुंचते है तो वे बताते है कि उनके साथ विशाल सेना है फिर भी इस आशंका से हाथियों, घोड़ो और सैनिकों से आश्रम के वृक्ष, जल, भूमि और पर्णशालाआेंको कोई नुकसान न हो इसलिए मैं अकेला आया हूँ । रामायण काल में वृक्ष भी पारिवारिक सदस्यों के समान ही मूल्यवान समझे जाते थे पाविारिक सदस्यों की भांति ही उनकी भी कुशल क्षेम पूछी जाती थी । वशिष्ठ और भरत जब महर्षि भारद्वाज से मिलने पहुंचे तो उन्होंने पेड़ पौधों व पशु पक्षियों के कुशलसमाचार भी जाना । लंका विजय के उपरान्त अयोध्या लौटते हुए राम जब महर्षि अगस्तय के आश्रम में उनसे मिलते है तो ऋषि से याचना करते हुए कहते है कि अयोध्या जाते हुए मार्ग के सभी वृक्ष मौसम न होने के बाद भी फल-फूलों से लदे हो अमृत के समान उनकी सुगंध हो ।
    रामायण में जहां भी आश्रमों का वर्णन मिलता है वे सघन वनों से घिरे दिखायी देते है उनके आसपास सरोवर होते है, जल जतुआें भी उपस्थिति होती है । कवि वाल्मीकी ने रामायण में जितने विशाल वृक्षों का वर्णन किया है वह सघन वनों की कल्पना के लिए पर्याप्त् है । लंका में वनों की सघनता के कारण अंधकार छाया रहता था । राम और रावण वाल्मिकी के दो ऐसे पात्र है जो विपरीत धु्रव वाले कह रहे जा सकते है परन्तु दोनों के बीच एक समानता यह थी कि दोनों ही सघन वनों के स्वामी थे ।
    आज हम योगवाद के जिस कालखण्ड से गुजर रहे है, वहां हम अपने पॉराणिक ग्रन्थों को पढ़ने और आनंद देने तक ही सीमित है । वर्तमान जरूरत के अनुसार हमें पर्यावरणीय प्रेरणा भी रामायण जैसे ग्रन्थों से लेनी चाहिए यही आज की जरूरत भी है । पौधों को देखने से अधिक उसे बचाना जरूरी है । वनों वृक्षों के प्रति संवेदन शीघ्र होकर ही हम अपने तथा अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षा कवच प्रदान कर सकते है ।                                               

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