मंगलवार, 14 मई 2013

वनवासी जगत
वनवासी क्षेत्र और राज्यपाल
जितेन्द्र

    पांचवी अनुसूची के अन्तर्गत अधिसूचित क्षेत्रोंके संबंध मेंसंविधान में राज्यपालों के कर्त्तव्य सुनिश्चित किए गए हैं । साथ ही उन्हें इन क्षेत्रों की देखरेख के लिए असीमित अधिकार भी दिए गए हैं । परन्तु अधिकांश राज्यपाल इस दिशा में ठंडा रवैया बनाए हुए हैं और वार्षिक रिपोर्ट के नाम पर केवल खानापूर्ति कर रहे   हैं । दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों में दिनोंदिन अंसतोष बढ़ता ही जा रहा है ।
    भारत में जिन राज्यों में बड़ी संख्या में आदिवासी बसते हैं उन राज्यों के राज्यपालों पर उनकी विशिष्ट प्रशासनिक भूमिका का निर्वहन न करने का आरोप लगाया गया है । आदिवासी क्षेत्रों में आंशिक स्वायत्ता सुनिश्चित करने हेतु संविधान ने राज्यपालों को इन क्षेत्रों में शासन एवं प्रशासनिक कार्यो के निरीक्षण हेतु असीमित असमी शक्तियां प्रदान की हैं । वे आदिवासी क्षेत्रों में स्वशासन एवं विकास की आवश्यकताआें की पूर्ति हेतु किसी भी कानून या विकास गतिविधि की अनुमति दे सकते हैं या अस्वीकृत कर सकते हैं । वे सौहार्द बनाने एवं प्रभावशील शासन हेतु नियम भी बना सकते हैं । 

    राष्ट्रपति को भेजी गई गोपनीय रिपोर्ट में अनुशंसा की गई है कि ऐसे इलाके जो कि संविधान की पांचवी अनुसूची मेंअधिसूचित है और आदिवासियों के हितों की रक्षा करते हैं उस हेतु अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन हेतु राज्यपालों को अधिक जवाबदेह बनाया जाए । ये अनुशंसाएं तब आई हैं जबकि सरकार इन क्षेत्रों हेतु बड़ी मात्रा में धन का आवंटन कर रही है, इनमें से कई क्षेत्र माओवादी असंतोष से घिरे हुए हैं । गत जून में भेजी गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्यपालों के लिए ऐसी प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है, जिसमें कि अधिसूचित क्षेत्रों हेतु नियत संवैधानिक प्रावधानों की वर्णित भावना के अनुरूप निगरानी एवं क्रियान्वयन किया जा सके । आयोग जो कि एक संवैधानिक इकाई है पांचवी अनुसूची के अन्तर्गत अधिसूचित क्षेत्रों के मामले मेंराष्ट्रपति को एक वार्षिक रिपोर्ट भेजता है ।
    सूत्रों के अनुसार राष्ट्रपति जिन्हें स्वयं पांचवी अनुसूची क्षेत्र हेतु विशेष अधिकार प्राप्त् हैं, ने आदिवासी मामलों के मंत्रालय को यह रिपोर्ट प्रेषित कर दी है । मंत्रालय द्वारा समीक्षा के बाद इसे संसद मेंप्रस्तुत किया जाना चाहिए । वैसे मंत्रालय को ही पता होगा कि वह ऐसा क्यों नही कर रहा है । मंत्रालय के सहसचिव ए.के. दुबे का कहना है कि, जटिल प्रक्रियाआें के कारण एवं हिन्दी संस्करण की अनुपलब्धता के चलते हम इसे संसद में प्रस्तुत नहीं कर पाए । लेकिन जटिल प्रक्रियाआें पर कोई प्रकाश नहीं डाल पाए । सन् २००४ में अपने आरंभ के बाद से आयोग अब राष्ट्रपति को पांच रिपोर्ट भेज चुका है । पहली को छोड़कर एक भी रिपोर्ट अभी तक संसद के पटल पर नहीं रखी गई    है ।
    नवीनतम रिपोर्ट मेें राज्यपालो द्वारा पांचवी अधिसूचित मे क्षेत्रों में हो रहे विकास की अनदेखी किए जाने को इंगित किया गया है । राज्यपालों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि आदिवासी क्षेत्रों में विशिष्ट पंचायती राज कानून जिसे पैसा पंचायत (अधिसूचित क्षेत्र विस्तार) अधिनियम के नाम से जाना जाता है के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना और ऐसे कानून जो इसके विरोध मेें हों उन्हें अलग करना । एक अधिसूचना के तहत राज्यपाल, मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्री परिषद् की सलाह लिए बिना भी राज्य या केंद्र के नियमोें को रद्द कर सकते है या उसमें परिवर्तन कर सकते हैं ।
    लेकिन राज्यपालों की रिपोर्ट में शायद ही कभी खराब शासन, विद्रोह या विस्थापन का उल्लेख हुआ हो । अनुसूचित जाति व जनजाति आयोग के पूर्व आयुक्त बी.डी. शर्मा का कहना है, जब तक राज्यपाल पांचवींअनुसूची की आवश्यकताआें के हिसाब से कानूनों क्रियान्वयन या संसोधन नहीं चाहेगा, तब तक सभी कानून वहां स्वमेव ही लागू रहते हैं । चूंकि राज्यपाल अपने कर्त्तव्यों के निष्पादन में असफल रहे हैं अतएव आदिवासी क्षेत्रों में सामान्य कानून स्वमेव लागू रहते हैं जिनके परिणाम स्वरूप संघर्ष की स्थिति बन जाती  है ।
    गोपनीय रिपोर्ट ने अधिसूचित क्षेत्र के अनुकूल बनाने हेतु सभी कानूनों की समीक्षा की अनुशंसा की है । राज्यपालों से उम्मीद भी की जाती है कि वे प्रतिवर्ष दिसंबर तक आदिवासी सलाहकार समिति के माध्यम से बैठक कर उसकी रिपोर्ट भेज दें । वरिष्ठ पत्रकार बी.जी. वर्गीस कहते हैं कि भारत सरकार ने मौन रखकर यह स्वीकार कर लिया है कि पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत राज्यपाल का अर्थ है राज्यपाल परिषद् जो कि अपने सलाहकारों की मदद से एवे सलाह पर कार्य करती है । उम्मीद की जाती है कि राज्यपाल प्रतिवर्ष राष्ट्रपति को इन इलाकों की स्थिति और उनके द्वारा किए गए हस्तक्षेप की रिपोर्ट भेजेंगे । आयोग ने यह भी सुझाव दिया है कि आदिवासी मामलों का मंत्रालय राज्यपाल की नमूना रिपोर्ट तैयार करने और प्रस्तुत करने हेतु एक सा दस्तावेज जारी करें । इस दस्तावेज में संघीय एवं राज्य के कानूनों की समीक्षा का प्रावधान एवं आदिवासियों के हितों की सुरक्षा हेतु उनकी संवैधानिक प्रावधानों से संगति दर्शाने का प्रावधान भी हो । इसमें उन सभी कदमों की सूची भी होना चाहिए जिससे कि आदिवासियों के संवेधानिक अधिकारों की सुरक्षा हो सके ।
    कानूनों की समीक्षा हेतु राज्यपाल राज्यों द्वारा आदिवासी क्षेत्रों में गठित आदिवासी सलाहकार समितियों (टीएसी) से भी सलाह-मशविरा कर सकते हैं । गत वित्तीय वर्ष में ११ राज्यों में से मात्र ४ राज्यों ने दिसंबर तक आदिवासी सलाहकार समितियों की दिसंबर तक बैठक आयोजित की है । गोपनीय रिपोर्ट में आदिवासी सलाहकार समितियों को भी अधिक जवाबदेह बनाने की बात ही गई है और इनके नियमिति गठन एवं वर्ष में कम से कम दो बार बैठक करने को भी कहा गया है ।
    राज्यपाल न केवलराष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजने में अनियमित हैं, बल्कि रिपोर्ट जिन विषयों को संबोधित होने चाहिए उसे लेकर भी उनमें अस्पष्टता है । राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान के निदेशक आर.आर. प्रसाद जिन्होंेने इन रिपोर्टोंा का विश्लेषण किया है उनके हिसाब से किसी भी रिपोर्ट में विस्थापन, कु:शासन एवं विद्रोह जैसे ज्वलंत मुद्दों पर कोई बात ही नहीं की गई है । उनका कहना है, इन रिपोर्टोंा में शायद उन उद्देश्यों का आकलन किया हो जिनकी कानूनी तौर पर आवश्यकता है । मुख्यतया ये बने बनाए ढर्रे पर विभिन्न योजनाआें के भौतिक लक्ष्यों एवं वित्तीय आवंटनों की सूचना राज्य सरकार के विभागों द्वारा बताए गए आंकड़ों के हिसाब से देने पर ही केंद्रित रहती है । इस हेतु अधिक कठोर प्रणाली बनाने का समय आ गया है, जिससे कि वार्षिक रिपोर्ट इन इलाकों की वास्तविक स्थितियों पर प्रकाश डाल सकें ।
    राष्ट्रपति को प्रस्तुत की गई इन रिपोर्टोंा का कोई व्यवस्थित रिकार्ड भी मौजूद नहीं है । राष्ट्रमंडल मानवाधिकार  पहल ने सूचना का अधिकार कानून के जरिए सन् १९९० से २००८ तक राज्यपालों द्वारा भेजी गई रिपोर्टोंा की प्रति प्राप्त् करने का प्रयास किया परंतु आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने केवल सन् २००१ से यह कहते हुए रिपोर्ट दी कि इस मंत्रालय का गठन सन् १९९९ में ही हुआ है ।  सन् २००८ एवं २०११ में दिल्ली में राज्यपालों की बैठक में तत्कालीन राष्ट्रपति ने अनुरोध किया था कि वे आदिवासी क्षेत्रों के संबंध मेंअपनी भूमिका पर ध्यान दें । अप्रैल २०१२ में केंद्र सरकार ने पहली बार अधिसूचित क्षेत्र के संबंध में उनके संवैधानिक कर्त्तव्योंको लेकर राज्यपालों को दिशा-निर्देश भी जारी किए ।
    केंद्रीय आदिवासी मामलों एवं पंचायतीराज मंत्री वी किशोरचंद्र देव ने आंध्रप्रदेश के राज्यपाल से कहा था कि वे अधिसूचित क्षेत्र में बाक्साइट खनन के लिए हुए सहमति पत्र (एमओयू) को रद्द कर दें, लेकिन राज्यपाल ने इस निर्देश की अनदेखी कर दी । आयोग की रिपोर्ट ने उस मुद्दे को अधिकारिक तौर पर उठा दिया है, जो कि काफी समय से अंदर पड़ा खदबदा रहा था ।

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