मंगलवार, 14 मई 2013

पर्यावरण परिक्रमा
तारापुर पॉवर प्लांट में रेडिएशन से बढ़ा खतरा

    जिस परमाणु ऊर्जा के लिए सरकार हर हद से गुजरने के लिए तैयार दिखती है । उस तरह का एक प्लांट महाराष्ट्र के एक गांव में मौत की वजह बन गया है । तारापुर का प्रसिद्ध एटॉमिक एनर्जी प्लांट की वजह से लोग पल-पल मरने को मजबूर है । हर तरफ मौत की बीमारियां दिखती हैं । लोग बेबस है और सरकार नाकाम ।
    मुम्बई से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर ठाणे जिले में तारापुर है, जहां देश का सबसे पुराना परमाणु पॉवर प्लांट है । जिससे पूरे महाराष्ट्र में बिजली की सप्लाई होती है । तारापुर अटॉमिक पॉवर स्टेशन से सटा घिवली गांव है । इस गाँव में रहने वाले अविनाश पहले मजदूरी किया करते थे, लेकिन पिछले कुछ बरसों से लगातार तारापुर परमाणु प्लांट पर सवाल खड़े हो रहे हैं । खासतौर से जापान के फुकुशीमा हादसे के बाद इन सवालों में और इजाफा हो गया है । स्थानीय लोगों का आरोप है कि रेडिएशन की वजह से लोगों को कैंसर हो रहा है । इस गांव में तकरीबन १५००० की आबादी वाली इंसानी बस्ती है । अविनाश पहले मजदूरी किया करते थे । लेकिन रेडिएशन की चपेट में आने के बाद अब गांव में पेंटर का काम करते है । दरअसल अविनाश का घर न्यूक्लियर पॉवर प्लांट का बाऊंड्रीवाल से बिल्कुल सटकर है और यही वजह है कि रेडिएशन का असर अविनाश पर इस कदर हुआ कि उनके दोनों हाथों की उंगलियां अब ज्यादा काम नहीं कर पाती है । पिछले कई सालों में रेडिएशन ने अविनाश के शरीर के व्हाइट ब्लड सेल को कमजोर कर दिया जिसके चलते बिमारियोंसे उसकी लड़ने की ताकत यानी उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता लगातार घटती गयी । इससे उसके हाथों की उंगलियां सिकुड़ने लगी और हडि्डयां कठोर होने लगी है ।

कचरा, अब कचरा नहीं कंचनहै
    स्वीडन अब नार्वे से कचरा आयात करेगा । चौंकाने वाला है, लेकिन वजह बेशकीमती है । दरअसल, स्वीडन में कचरे से बिजली बनाने का काम जोरों पर है । इतना कि उन्होनें अपने देश का सारा कचरा खत्म कर डाला । वहीं हमारे देश में ५१०० नगरीय निकाय है । इनमें हर साल निकलता है ६० लाख टन कचरा । इसमें औघोगिक कचरे को भी शामिल करें तो हमारे यहां करीब १० हजार मेगावट बिजली पैदा करने की संभावनाएं है । लेकिन सरकारी उदासी से इस दिशा में हुई सारी कोशिशें नाकाम रही है ।
    भारत में कचरे से बिजली बनाने की पहली कोशिश को २६ साल हो गए । कचरा बढ़ता जा रहा है । बिजली की मांग भी । मगर हम कचरे से बिजली नहीं बना पा रहे   है । कई प्रयोग दम तोड़ चुके है।  बदइंतजामी के चलते कई विशेषज्ञ पलायन कर चुके है और दूसरे देशों में परचम फहरा रहे है । सॉलिड वेस्ट से बिजली का पहला प्लांट १९८७ में लगा । दिल्ली में तिमारपुर के पास ।
    डेनमार्क तकनीक से १० मेगावॉट के इस प्रोजेक्ट के लिए नगर निगम को हर दिन १२ हजार टन कचरे की आपूर्ति करनी थी । प्रोजेक्ट एक दिन भी काम नहीं कर पाया । वजह थी कई स्तरों पर छटाई के बाद बचने वाला कचरा किसी काम का नहीं था । डेनमार्क तकनीक में कचरे को जलाकर भाप से बिजली बननी थी मगर जलाने लायक कचरा मिला ही नहीं । इसके बाद कचरे से बिजली बनाना भारत के लिए नाकामियों से भरा रहा । तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के समय १९९५-९६ में लखनऊ में एक और कोशिश हुई । चैन्नई की एशिया बायो एनर्जी ने ५ मेगावॉट का प्रोजेक्ट लगाया । तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने ८० करोड़ रूपए लागत के इस बहुप्रचारित प्लांट का उद्घाटन किया ।
    बमुश्किल छह महीने भी बिजली नहीं बनी । नाकामी की वजह कचरे का बदतरीन प्रबंधन । सन् २००२ में नागपुर में ६ मेगावॉट का प्रोजेक्ट भी परवान नहीं चढ़ पाया । द एनर्जी एंड रिर्सोस इंस्टीट्यूट (टेरी) के सीनीयर फैलो डॉ. सुनील पांडे कहते है, भारत में शुरूआत से ही गड़बड़  है । हमारे नगरीय निकाय जानते ही नहीं कि बिजली बनाने के लिए कचरे का प्रबंधन कैसा होना चाहिए ? कचरे का ठीक तरीके से संग्रहण पहली पायदान है । इसमें बिजली तो अंतिम उत्पाद है ।
    दिल्ली में वर्ष २००२-०३ में १०-१२ मेगावाट बिजली के तीन प्लांट की तैयारी हुई । चार हजार टन कचरे के निपटान की उम्मीदों से भरी यह योजना शुरू होने के पहले ही समाप्त् हो गई । इसमें दो प्लांट आस्ट्रेलिया की ईडीएल कंपनी शुरू करने वाली थी । मामला अस्पतालों के कचरे पर जा अटका, जिसे शहरी कचरे से अलग किया जाना था । नगर निगम की गाइडलाइन के मुताबिक अस्पतालों से निकलने वाले कचरे को जलाया नहीं जा सकता है । अस्पतालों के पास अपने इंसेनरेटर थे नहीं । विवाद बढ़ा तो कंपनी ने हाथ खींच लिए । पावर कंसल्टेंट अतुल मिश्रा का मानना है कि कचरे को इकट्ठा करना और उसे ढंग से प्रोसेस करना मुश्किल नहीं है । यह तकनीक महंगी भी नही है । विदेशों में कारगर है मगर हमारे यहां हर स्तर पर मुश्किलें दूसरी ही है ।
    लखनऊ प्लांट बंद होने के बाद कचरे से बिजली का मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया । अदालत ने बंद होने की वजह जानने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति बनाई और वित्तीय मदद के लिए पांच प्रोजेक्टस को ही हरी झंडी दी । नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा विभाग के संयुक्त सचिव आलोक श्रीवास्तव बताते हैं, स्वीडन की मदद से कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में ये प्रोजेक्ट लगाए जा रहे है । इनके नतीजों के आधार पर ही विस्तार होगा । उनका सुझाव है कि सबसे पहले नगरीय निकायों और राज्य सरकारों को कचरे का बेहतर प्रबंधन करना होगा । इसके साथ ही जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन को भी इससे जोड़ना फायदेमंद होगा ।

बिना ट्यूशन वाले बच्च्े पढ़ाई में बेहतर
    नतीजे कहां से अच्छे होंगे, जब एक चौथाई स्कूली बच्चें की बुनियाद ही कमजोर है ? वे पढ़ते तो हैं, लेकिन उनकी समझ में कुछ आता नहीं । उसमें भी दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चें में सीखने-समझने की स्थिति तो और भी बदतर है । ऐसे में मजबूरी का विकल्प बच्चें को अलग से ट्यूशन का है, लेकिन उसके भी नए तथ्य चौकांने वाले है । ऐसा भी है कि ट्यूशन न पढ़ने वाले बच्च्े ट्यूशन पढ़ने वाले सहपाठियों के मुकाबले बेहतर सीख समझ रहे है ।
    प्राइमरी की पढ़ाई में बदलाव के इस नए ट्रेंड (प्रवृत्ति) की सच्चई हाल ही में आए एक सरकारी अध्ययन से सामने आई है । कक्षा-पांच के बच्चें में सीखने-समझने की स्थिति (लर्निग आउटकम) की सही तस्वीर जानने के लिए राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधन एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने ३१ राज्यों के ६६०२ स्कूलोंके एक लाख २२ हजार छात्रोंको शामिल कर एक रिपोर्ट तैयार की है ।
    नेशनल अचीवमेंट सर्वे (एएनएस) नाम की यह रिपोर्ट नए व डरावने संकेत देती है । यह सर्वेबताता है कि पांचवी कक्षा के एक चौथाई बच्च्े थोड़ी सी भी कठिन भाषा को न तो पढ़कर समझ पाते है और न ही सामान्य जोड़-घटाव ही कर पाते हैं ।
    यह सर्वे बताता है कि अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित के मामले में अलग-अलग राज्यों में छात्रों के लर्निग आउटकम में बड़े पैमाने पर भिन्नता दिखती है । समस्या भी इसमें ही ज्यादा है । आधे से अधिक बच्च्े एक झटके में यह नहीं बता पाते कि १९८ से ५५५ कितना अधिक है । तीन चौथाई बच्चें को दशमलव से जुड़े सवालों में दिक्कत होती है । हालांकि वे सामान्य जोड़ आसानी से कर लेते है । इस प्रकार सर्वे एक बिल्कुल नए तथ्य को सामने लाया है ।
    सर्वे बताता है कि जिन बच्चें को स्कूल से रोज होमवर्क मिलता है और उनके टीचर उसे नियमित रूप से चेक करते है, वे बच्च्े अपने उन सहपाठियों से ज्यादा बेहतर सीख-समझ रहे हैं, जो अलग से ट्यूशन पढ़ रहे है । जबकि, माता-पिता पढ़ाई में अपने कमजोर बच्चें को बेहतर करने के लिए मजबूरी में अलग से ट्यूशन का ही विकल्प चुनते हैं ।
    एक तस्वीर और भी खतरनाक संकेत देती है । एक ही कक्षा मेंपढ़ने वाले अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े समुदायों के बच्चें में सीखने-समझने की स्थिति सामान्य वर्ग के बच्चें की तुलना में काफी कमजोर है । दूसरी बात, ज्यादा बेहतर सीखने-समझने और कमतर सीखने-समझने वाले बच्चें के बीच का अंतर अलग-अलग राज्यों में काफी बड़ा है । यह दर्शाता है कि जो बच्च्े पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा काबिल है, उन पर अधिक ध्यान भी दिया जा रहा है, जबकि जो पढ़ाई में उनसे कम है, उन्हें बराबर लाने के लिए पर्याप्त् अवसर और सुविधांए नाकाफी है । हमारी विषमता भरी शिक्षा पद्धति में देखना यह होगा कि अमल कब होगा ।

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