मंगलवार, 14 मई 2013

विशेष लेख
नदी का जीवंत परितंत्र
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    सरित (प्रवाहमान) परितंत्र के अन्तर्गत झरने, नदियाँ, सरिताएं आती है । जल के इन स्त्रोतों में अधिकतर क्रियाशील प्राणी निवास करते हैं । इन अलवणीय सरित-परितंत्रों में समुद्र की अपेक्षा कम विस्तार होता है और गहराई भी कम होती है । इन परितंत्रों में तापक्रम, वायुतत्व एवं अकिंचन प्राप्त् होने वाले लवण तत्व भी परिवर्तनशील रहते हैं । प्रकाश की मात्रा, पानी का गंदलापन (मटमैला होना), कीचड़ (पंक), पानी का प्रवाह-वेग इत्यादि सीमाकारक के रूप में कार्य करते हैं । ग्रीष्म ऋतु में वाष्पन के कारण जल की अधिकता, इन जल न्यासों की जैविक, भौतिक एवं रासायनिक स्थितियों में परिवर्तन लाती है और पारिस्थितिकी को प्रभावित करती है ।
    प्रत्येक परितंत्र में जैव-अजैव घटकों में कार्यात्मक संतुलन बनाये रखने की प्रवृत्ति पाई जाती है । सभी घटकों का उतार चढ़ाव एक निश्चित सीमा के अंदर रखने के लिए परिवर्तन से उत्पन्न स्थिति को आवश्यक प्रतिक्रिया द्वारा स्वत: ही सामान्य बना लिया जाता है । प्राकृतिक रूप से संतुलन की इस स्वनियामक प्रवृत्ति को समस्थायित्व या समस्थिरता (होमियो स्टेसिस) कहते हैं । जैविक तंत्रों की यह वह प्रवृत्ति होती है जो परिवर्तन का प्रतिरोध करती है तथा संतुलन की स्थिति में रहती है । वस्तुत: अपने इसी उदात्त गुण के कारण वर्तमान कलुषता पूर्ण स्थिति में भी पारिस्थितिक तंत्र जीवंत है । 
   जीवन चलने का नाम है, प्रगति का नाम है और गतिशीलता का नाम है । इस मर्म - धर्म को नदी से अधिक कौन समझ सकता है । पार्वतीय नदियाँ, पर्वत से सागर तक बिना रूके, बिना थके जाती    है । कल-कल निनाद के कारण ही यह सलिलाएं, नदियां कहलाती है । जो पर्वत से उतरते वक्त शब्दा होती है और ज्यों-ज्यों मैदानी भाग में आती है शांत हो जाती हैं । यह नदियां अपनी गोद में असंख्य प्रकार के जीवों का जीवन दुलारती है । रेत हो या कीचड़ सबमें ही नदी का परितंत्र सुरक्षित रहता है । नदी का परितंत्र विशिष्ट अर्थात् नायाब होता है । नदी की आबपाशी (अथाह जलराशि) का सभी लोग वंदन करते है ।
    नदी एक जीवंत प्रवाहमान कलाकृति होती है जो प्रकृति को नवजीवन देती है । पर्वत, नदियाँ, सागर और बादल ही तो नदी का सुदर्शन चक्र बनाते हैं, प्रकृति सजाते हैं । नदी के जल में सर्जनात्मक लहरें उठती हैं जो नन्हें-नन्हें जीवों (प्लवकों एवं तरण को) में नवजीवन का संचार करती है । इन प्लवकों में जो हरित लवक युक्त होते है वह वनस्पति प्लवक कहलाते हैं और वे सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण करते  हैं । भोजन का निर्माण करते हैं और ऑक्सीजन अवमुक्त करते हैं । इससे परितंत्र पुष्ट होता है । यही सूक्ष्म प्लवक अन्य जीवों का आहार बनते हैं । इससे खाद्य श्रृंखला का संचरण होता है और परितंत्र समृद्ध होता है ।
    परिपूर्ण होता है नदी का जीवन । जीवन का अर्थ है कि उसे भरपूर जिया जाये, वह भी केवलअपने लिए नहीं वरन् परमार्थ के लिए है । परितंत्र की जीवंतता के लिए नदी, पानी को प्रवाह देती है क्योंकि नदी यह बात शिद्दत से जानती है कि पानी कहीं ठहर जाये तो सड़ जाता है, तलछट में पंकिल हो जाता है । नदी तो पंक में भी सृजन का पैगाम देती है और जीवनाधार देती है ताकि  कमल दल उग सके । यॅूं तो सभी जीवधारियों का जल जीवन से रिश्ता होता है किन्तु यह रिश्ता सौन्दर्ययुक्त होकर जितना कमल के फूल में दिखता है उतना अन्यत्र नहीं । कमल पंक से पोषण पाकर उससे निर्लिप्त् रहकर, सतह पर जलतर्पण करता है और सूर्य को अहर्य देता है ।
    पत्थरों से प्यार करती है नदियाँ । पहाड़ों से निकलकर नदी की जलधारा, असंख्य छोटे-बड़े पाषाण खण्डों को स्पर्श करती हुई बड़ी निष्पंक धवलता एवं शुभ्रमयता से उतरती है । निर्झरता में नदी अलमस्त दिखलाई देती है तो मैदान में आकार गंभीरता समा जाती है नदी की देह में । गहन संघर्ष करते हुए भी सम्पूर्णता अर्थात् शिवम् पूर्णा के साथ जीना चाहती है नदी । नदी की कल-कल ध्वनि कभी विकल नहीं करती है । वह सदा कर्णप्रिय होकर संगीत सुरों को साधती रहती है । प्रकृति के कण-कण में संगीत की झंकार रहती है ।
    अपनी मातृवत्सला गोद में जल जीव जात का बोध रखते हुए, निरन्तर सदानीरा रहती है जीवंत   नदी । नदी में हर जीव का दूसरे जीवों से रिश्ता अटूट बना रहता है । सभी के संबंध अर्न्तग्रर्थित रहते है । जैव तत्वों का अजैव तत्वों से रिश्ता ही उनके अस्तित्व का नियामक होता   है । यॅूं तो नदियों में स्वयं शुद्धिकरण की नैसर्गिक व्यवस्था होती है किन्तु हमने विगत कुछ दशकों  से नदियों का बहुत नुकसान किया है । अपने स्वार्थ के लिए उनके प्रवाह को बाँध लिया है । इससे बीमार होने लगी है नदियाँ । हमें नदियों के स्वास्थ्य की और उपचार की चिंता करनी ही चाहिए, ताकि मरती हुई तथा निर्जल होती हुई नदियों को नवजीवन मिल सके । नदियों में पुनर्रचना की क्षमता होती है । किन्तु अवांछनीय तत्वों के जमाव ने नदियों के जीवन को असहज किया है । इन विजातीय तत्वों का निष्कासन कार्यान्वित करना जरूरी है । ताकि नदियों का कायाकल्प हो जाये ।
    हमारी धरती के पृष्ठ पर नदियोंका सघन जाल है किन्तु प्रत्येक नदी की अपनी विशिष्टता होती है और वह अपने परिक्षेत्रीय भू-भाग की संपोषिता होती है । नदी का जलीय परितंत्र जितना महत्वपूर्ण होता है उतना ही महत्वपूर्ण होता है नदी परिक्षेत्र का पर्यावरण । प्रकृति में नैसर्गिक रूप से कुछ नदियोंको यह सौभाग्य मिला है कि उनमेंआकर अन्य नदियाँ अपने अस्तित्व को विलीन करती है और मुख्य प्रवाह में जलवृद्धि का चक्र बना रहता है । प्रत्येक नदी के अपने जैविक एवं अजैविक कारक होते हैं । सभी नदियों में जीव जात समान रूप से नहीं पाये जाते है । यही कारण है कि कुछ नदियाँ अति विशिष्ट हैं, कुछ विशिष्ट हैं तो कुछ साधारण हैं । किन्तु पर्यावरण की दृष्टि से सभी वरणीय एवं वंदनीय है ।
    किसी भी नदी की मुख्य धारा के दोनों किनारों पर उगी हुई वनस्पतियों (वृक्ष, लताएं एवं झाड़ियाँ) नदी के जल का पान करती हैं और तृप्त् रहती है । नदी के किनारों के पिछले गढ्ढों तथा हदों में जलीय खरपतवार के साथ विविध प्रकार के जीव-जन्तु निवास करते हैं जिससे जैव विविधता संरक्षित रहती है । विकास परियोजनाआें के कार्यान्वयन ने नदियों के प्राकृतिक स्वरूप के साथ खिलवाड़ किया है । फिर भी नदियों के परितंत्र ने जीवंत परिणाम ही दिया है । मानवीय सरोकार नदियों के साथ सदा से जुड़े रहे हैं ।
    मानवीय सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है । नदियों के किनारे ही गांव, बस्ती और शहर विकसित हुए । नदियाँ न केवलपेयजल वरन कृषि कार्य एवं उद्योगोंहेतु भी जल की पोषक है । मल्लाह एवं मछुआरों का जीवन यापन सीधे तौर पर नदियों से जुड़ा  है । नदियाँ के तटो पर ही तीर्थ हैं । अपनी श्रृद्धा एवं विश्वास के अनुसार इन तीर्थ स्थलों पर पूजा अनुष्ठान सम्पन्न होते है । अत: पेड़-पुजारी तथा पूजा सामग्री के विक्रेता एवं अन्य पर्यटन उद्योग से नदियाँहमें समृद्धि प्रदान करती है । हमारी लोक संस्कृति, नदी संस्कृति एवं जल प्राचीन सग्रर्थित है । नदियों के जीवन परितंत्र के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है ।
    नदियाँ है तो किनारे भी है । दोनों किनारों को जोड़ने वाले सेतु भी है । दोनों किनारों पर नाव पार लगाती है । हम पर्यावरण परायण के भाव के साथ नदी परितंत्र की चर्चा कर रहे है । नदियोंके पवित्र जल मेंजनमानस आस्था को डुबकी लगाता है । नदी अपनी धारा और लहरों के नर्तन को बखूबी जानती  है । मछलियोंके संघर्ष को पहचानती है । नदी भी निभाहती है धरा का बंधन और उर्वरता का प्रबंधन ताकि अन्नपूर्णा रहे हमारी धरती ।
    पानी की पावमानी के साथ अपने पथरेख पर चलती है ममता मयी नदी । जब पथरेख पर कोई अबरोध आता है तो नदी की धारा अपना मार्ग बदलती है । हमारे द्वारा नदियों के तटों पर अतिक्रमण करके अनियंत्रित रूप से किये जाने वाले निर्माण कार्योने नदियों को क्षुब्ध किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि क्षुब्ध नदियों ने मौनव्रत धारण किया है तभी तो हमारी नदियां रासायनिक व्याधियों से ग्रस्त होकर भी चुप हैं । यह रासायनिक औघोगिक उपशिष्ट हमारी नदियों में उढेल दिये जाते है । तमाम नाले नदियों में मिलकर उन्हें अशुद्ध बना रहे हैं । प्रदूषित नदियों में जीवन सुरक्षा को खतरा है । नदी में मछलियाँ भी रहती है और मगरमच्छ भी रहते है । सबका अपना-अपना जीवन है । खाद्य श्रृंखला है और उसके बीच कहीं संघर्ष है तो कहीं सहजीवन है । प्रकृति ने सबकुछ संजोया है । जो कुछ खोया है वह मनुष्य ने ही खोया है । नदियोंने लहर-लहर में प्यार पिरोया है । नदी खुश होती है जब कोई उसके जल का अंज्जलि में भरकर पान करता है ।
    हमें नदियों के परितंत्र को संवार कर उन्हें नवजीवन देना ही होगा क्योंकि नदियाँ हमारे जीवन का आधार है । नदी है तो सागर है । सागर है तो वर्षा है । नदी है तो वन है । नदी है तो मैदान उर्वर है । उर्वरता है तो अन्न है । अन्न है तो पोषण है और हमारा जीवन प्राण है । अत: मानवीय अस्तित्व एवं सरोकारों से सीधे जुड़ी होती है सलिलाएं । अरण्य है तो नदियाँ है । नदियाँ है तो नीर है नीर है तो तृिप्त् है । नीर है तो नीरजा (लक्ष्मी देवी) हैं और सुख-समृद्धि   है । नदियाँ है तो सभ्यता है । सभ्यता है तो संस्कृति है । संस्कृति है तो संस्कार है । संस्कार है तो सदव्यवहार है । संस्कार है तो संकल्प है । संकल्प है तो संसार है । संसार है तो प्रेम का विस्तार है । समस्त सृष्टि प्रेम बंधन मेंबंधा हुआ वृहत परितंत्र ही तो है । प्रकृति के अनुपम उपहार रूपा नदियों के परितंत्र को जीवंत रखे यही हमारा संकल्प  रहे । नदियां के प्रवाह को देखकर हमारी चितवृत्ति ठहरकर शांत हो जाती है उदातत्ता पाती है ।

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