बुधवार, 12 जून 2013

कविता
धरती मां, सूरज पिता
डॉ. रामनिवास मानव

    आज न वट-पीपल रहे, रही न शीतल छांव ।
    शहरों जैसे हो गये, अब तो सारे गांव ।।
     पर्वत, हिमनद, वन सघन, समझो इन्हें विशेष ।
    पूरी दुनिया को यही, माणा का सन्देश ।।
    पेड़ों के रोमांच से, उपजाती है नेह ।
    हरी-भरी लगती तभी, धरती मां की देह ।।
    शुद्ध हवा-पानी मिलें, उजली-निर्मल धूप ।
    निखरे सारे विश्व में, तब-जीवन का रूप ।।
    हरी-भरी लगती धरा, सचमुच सुखद सुरम्य ।
    कण-कण में जीवन-भरा, पावन और प्रणम्य ।।
    धरती मां, सूरज पिता, हम इनकी सन्तान ।
    कर्त्ता-भर्ता सब यही, और यही भगवान ।।
    इनसे ही गतिशीलता, इनसे सर्दी धूप ।
    इनसे जीवन को मले, सुन्दर-मोहक रूप ।।
    पर्वत, घाटी, वन, नदी, निर्झर, की जलधार ।
    धरती मां का ये सभी, करते हैं श्रृंगार ।।
    सागर सुन्दर पांवड़ा, अम्बर तना वितान ।
    जी-भर इन्हें निहारिये, दोनों ही छविमान ।।
    सूरज ने पाती लिखी, पुलकित हुआ दिगन्त ।
    धरा-देह झंकृत हुई, कण-कण खिला बसन्त ।।

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