बुधवार, 12 जून 2013

विशेष लेख
पर्यावरण लेखन : दशा और दृष्टि
रवि कुमार गोंड

    आज का आदमी कितना स्वार्थी होता जा रहा है । शायद आधुनिकीकरण का शुरूर मानव पर इस कदर चढ़ा हुआ है कि व्यक्ति अपने बारे में, पर्यावरण के बारे में सोच ही नहीं पा रहा है । आज तो यह आलम हो गया है कि लोग एक दूसरे की प्रगति को देखना ही नहीं चाहते । अब जो व्यक्ति स्वार्थो में मदांध हो चुका है भला उससे देश की प्रगति की अपेक्षा कैसे की जा सकती है । जो बुद्धिजीवी वर्ग है वह भी अब स्वार्थो के वशीभूत हो चुका है । लेकिन वही कुछ ऐसे भी साहित्यकार, चिन्तक है जो अपने देश, समाज, पर्यावरण के प्रति चिन्तनशील हैं । वर्तमान समय में विमर्शो का कोहराम मचा हुआ है । सब जगह सिर्फ मठाधीशी लड़ाई है । आज लोगों ने साहित्य को कुरूक्षेत्र  बनाकर रख दिया है । विमर्शो पर बहुत अबाध गति से लेखन हो रहा  है । बुक स्टालों पर विमर्शो की ही बुकें देखने को हमें मिलती हैं, हजारों की संख्या में चटकारे और मनोरंजन, अश्लील बुकों की भीड़ मौजूद रहती है । परन्तु जब हम पर्यावरण साहित्य पर दृष्टि डालते है तो उस समय हमें नगण्य किताबों का ही दर्शन होता  है । कुछ पत्र-पत्रिकाएं हैंजो पर्यावरण पर जागरूकता अभियान चलाये हुए हैं । जिनमें प्रमुख नाम हैं - पर्यावरण डाइजेस्ट मासिक पत्रिका, ग्लोबल ग्रीन मासिका पत्रिका, हरित वसुंुधरा, पर्यावरण और विकास, पर्यावरण ऊर्जा टाइम्स और शब्द ब्रम्ह ई पत्रिका  आदि । 

     आज व्यक्ति के सोचने की क्षमता दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है । सोचने वाली बात तो यह है कि हम जिस देश में, प्रकृतिपर्यावरण में जी रहे है, उसे बचाने के लिए न तो हम लेखन ही कर रहे हैं और न तो इसके प्रति चिंतित ही दिखाई पड़ रहे हैं । सभी लोग बस अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग अलाप रहे हैं । सब सूर, तुलसी, कबीर, दलित, स्त्री, मार्क्सवाद आदि के पचड़े में प़़डे हुए हैं और आज का लेखन भी इन्हीं के ईद गिर्द घूमता नजर आ रहा है ।   मैं कहता हॅू अरे भाई पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अगर यह दुनिया नहीं रहेगी तो हम आखिर किस पर, किसलिए, क्यों, कहेंगे और लिखेंगे और क्या करेंगे । आज सिर्फ गिने चुने ही साहित्यकार, चिन्तक हैं जो पर्यावरण संरक्षण पर अपनी लेखनी को गति प्रदान किये हुए हैं, जिनमें प्रमुख है - डॉ. महेन्द्र प्रताप सिंह, डॉ. पुष्पेन्द्र दुबे, डॉ. स्वप्निल श्रीवास्तव, विनोद चन्द्र पाण्डेय, डॉ. सूर्यप्रसाद अष्ठाना, ग्लोबल ग्रीन के संपादक मनोज श्रीवास्तव, पर्यावरण डाइजेस्ट के डॉ. खुशालसिंह पुरोहित, ए.पी. पाठक, डॉ. हरीराम यादव, डॉ. राम लखन सिंह, डॉ. वैजनाथ सिंह, त्रिवेणी प्रसाद दुबे, डॉ. सुशील कुमार पाण्डेय साहित्येंदु आदि । इन सभी लोगों ने अपने विचारों और अपनी कृतियों के माध्यम से प्रकृति संरक्षण अभियान को एक नई दिशा प्रदान करने में अतुलनीय योगदान दिया   है ।
    ऐसे ही समसामयिक लेखक हिन्दी साहित्य जगत के हीरक हस्ताक्षर एवं पर्यावरण के जागरूक कवि श्री महेन्द्र प्रताप सिंह जी हैं जिनकी रचनाएं वसुधैंव कुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत है । इनकी अधिकतर रचनाएँ पर्यावरण पर आधारित है । अगर इन्हें पर्यावरण के चितेरे कवि कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगा । इन्होनें अपनी रचनाआें में यह स्पष्ट रूप से यह दिखाने का प्रयास किया है कि आज का व्यक्ति दुनिया की चकाचौंध में खोता जा रहा है । यह सम्पूर्ण विश्व जगत प्रदूषित पर्यावरण का शिकार होने जा रहा है जिसका परिणाम पर्यावरण असंतुलित होता जा रहा है । न तो हमेंे मौसम की सही जानकारी ही हो पा रही है और न तो दिन का ही सही पता मालूम हो पा रहा है ।
    महेन्द्र प्रताप सिंह ने एक सच्च्े साहित्यकार, देश भक्त की भूमिका अदा की है । उनके द्वारा पर्यावरण पर रचित साहित्य का योगदान देश और समाज के हित में है । महेन्द्र प्रताप सिंह की पुस्तक नारद की भू यात्रा जो पौराणिकता को समाहित किये हुए है, पर्यावरण पर लिखा गया पहला खंड काव्य    है । आज यह कृति पर्यावरण जन चेतना में मील का पत्थर साबित हो रही है । कवि महेन्द्र प्रताप सिंह  पर्यावरण के प्रति दुखी भाव से लिखते है -
    इस पवन जल मेंपूजन,
    थे स्नान ध्यान सब करते
    अब उस निर्मल सरिता में
    मल कूड़ा-करकट भरते ।।
    कवि ने अपनी कृति में प्रकृति सुषमा की ऐसी अनुपम झांकी प्रस्तुत की है जो हमें बरबस ही छायावादी कवि सुमित्रानंद पन्त की याद दिला देती है -
    जड़ चेतन प्रमुदित प्रकृति गोद सबके सुमधुर चैतन्यगात
    कल-कल सरिता, जल जीव तृप्त्, झर-झर झर झरते थे प्रपात ।
    उन्मुक्त नृत्य नाचत मयूर मद मस्त मगन सब कुछ भुलात
    तरूअर झूमत मदमस्त मस्त लतिका दु्रम से लिपटात जात 
    कवि वसुधैंव कुटुमबकम की भावना से प्रेरित है वह लिखता है -
    वसुधा कुटुम्ब है मेरी
    यह भाव ह्दय में आए ।
    सबका सुख मानव देखें,
    तब शांति ह्दय में पाएं ।।
    कवि अपनी कविता - संग्रह वन और मन में प्रकृति पर्यावरण को बड़े सुन्दर और मनोहारी ढंग से वर्णन किया है । कवि के समक्ष मानव और प्रकृति सभी बराबर है । किसी को कमतर आंकना भारी मूर्खता है । कवि विलायती बबूल के प्रति लिखता है -
    पथ मेरा आत्माहुति देकर
    दुर्बल की भूख मिटाता हॅू
    मैं बिन प्रयास पैदा होकर
    सेवा नि:स्वार्थ प्रदाता हॅू ।
    कवि महेन्द्र के सोच की तो दाद देनी होगी । वह प्रकृति के प्रति बहुत ही चितिंत हैं । अपने काव्य में नीम के पेड़ की गुणवत्ता बताते हुए उससे सबको परिचित करवाते हैं -
   मेरी दातून, श्रेष्ठ मंजन
   दांतों की रक्षा करती है ।
   औषधि वन पत्ती, चर्म रोग
   की सारी बाधा हरती है ।
    पर्यावरण जागरूकता का अलख जागाते हुए कवि लिखता है कि यह धरती अब कष्ट से त्राहि-त्राहि कर रही है । इसका कष्ट तभी समाप्त् होगा जब धरती पर वृक्षारोपण होगा -
    धरती पीड़ा से भरी, उसके कष्ट अनेक,
    वृक्षारोपण कार्य है, समाधान बस एक ।
    कवि चाहता है कि यह देश समाज हमेशा हरा-भरा और सुन्दर रहें, यहाँ पर हमेशा खुशियॉ ही खुशियॉ हो -
    हरी-भरी धरती रहे, वृक्ष रहे हर द्वार ।
    विविध फूल-फल से रहे, सदा भरा संसार ।।
    वास्तव में यह कवियों और लेखकों का प्रथम कर्तव्य है कि वह धरती मॉ के ऑचल को हमेशा हरा भरा बनाएं रखें । जिससे देश के लोग अमन शांति से जी सकें । धरती को हरा-भरा करने के लिए राम प्रकाश शुक्ल प्रकाशजी ने संकल्प भाव से होकर पर्यावरण के प्रति लिखते हैं-
   धरती पर पेड़ लगाना है,
   जीवन को सुखी बनाना है ।
   वृक्षों के प्रति प्रेम जगाकर
   धरती को हरित बनाना है ।
    आगे फिर श्याम नरेश श्रीवास्तव जी अपना विचार व्यक्त करते हुए लिखते है -
   आग लगी तो जलेगी घासें,
   वान जीवों की थमेगी सांसें
   सूखेंगे जल स्त्रोत वनों के
   मर जायेंगे प्राणी सब प्यासें ।
    श्री रघुवीर सिंह पवन जो देश वासियों से साफ और खुले लफ्जों में कहते है कि तुम प्रकृतिकी रखवाली कर सकते हो अगर तुम देश के सच्च्े सिपाही हो तो बोलो -
    सहज-प्रकृति सा मानव जीवन, जल-थल वैभवशाली ।
    बोलो- बोलो कर सकते हो, क्या इनकी रखवाली ।।
    पर्यावरण चिन्तक डॉ. पुष्पेन्द्र दुबे लिखते है -
    साम्य रोग का मानना है कि हर एक मानव में एक ही आत्मा बसती है ।
    यह तो अक्षरतय: सत्य है कि हर मानव में वही आत्मा निवास करती है लेकिन व्यक्ति कुविसंगतियों में पड़ करके कुमार्ग का रास्ता अपना लेता है । वह अपने स्वार्थ में लिप्त् हो करके प्रकृति को भी प्रदूषित  करता है ।
    ग्लोबल ग्रीन के संपादक मनोज श्रीवास्तव का कहना है कि - भारतीय संस्कृति को जीवित रखने के लिए यह आवश्यक है कि हम उसे अपने जीवन में धारण कर चरितार्थ करें । गंगा नदी को प्रदूषित होने से बचाने के प्रति साहित्यकार डॉ. स्वप्निल श्रीवास्तवजी का कहना है- यह प्रश्न सिर्फ गंगा की अस्मिता का नहीं है । यह प्रश्न है देश की उन सारी नदियों का जिनका देश के बनने में योगदान रहा ।     पर्यावरण-विद् डॉ. खुशालसिंह पुरोहित का मानना है कि पर्यावरण संरक्षण हम सभी का सामाजिक दायित्व है । पर्यावरण की रक्षा अपने स्वयं की रक्षा है । साहित्यकार विनोदचन्द्र पाण्डेय विनोद बड़े ही भाव विभोर हो करके लिखते हैं -
  तुम्हें समर्पित मधुमय उपवन,
  तुमको सुरभि सुवास समर्पित
  तुम्हें मधुर मुस्कान समर्पित,
  तुमको निर्मल हास समर्पित
    सही बात तो यह है कि हवा अगर शुद्ध रहे तो यह जीवन सुखमय पूर्वक व्यतीत होगा । जब भवरों के दिलों दिमाग पर फूलोंका मनमोहक खिलना और शुद्ध हवा की महकती फिजाआें का शुरूर छा जाता है, तो मनुष्य फिर भी सबसे श्रेष्ठ है । डॉ. सूर्य प्रकाश अष्ठाना सूरज लिखते   है -
    फूलोंकी खुशबुआें को चुराती रही हवा,
    भवरों के दिलो दिमाग पे छाती रही हवा ।
    दुनिया की उलझनों से बहुत दूर-दूर तक,
    तन्हाईयों में गीत सुनाती रही हवा ।।
    तो कहने का तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त सारे कवियों, साहित्यकारों के लेखन में जहाँ प्रकृति पर्यावरण का मनमोहक चित्रांकन किया गया है वहीं दूसरी तरफ उनके साहित्य में श्रृंगार रस की मादकता, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास और इसके साथ ही पर्यावरण जागरूकता का संदेश भी निहित है । मुझे विश्वास ही नहीं बल्कि पुरा यकीन है कि जब तक ये सारे प्रकृतिपर्यावरण के रखवाले लेखक, कवि, साहित्यकार जीवित रहेंगे यह देश, समाज और प्रकृति पर्यावरण हमेशा हरा-भरा रहेगा और प्रगति पथ पर विकासोत्तर बढ़ता रहेगा ।

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