गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

कविता
पर्यावरण प्रदूषण
डॉ. रामसनेही लाल शर्मा

पीपरपांती कट गयी, सूखे कुंज-निकुंज
यमुना तट से कट गये, श्याम-स्नेह के पुंज
श्याम-स्नेह के पुंज, रो रही सूखी यमुना
उठे बगूले गर्म, रेत लावा का झरना
यमुना, कंुज, कदम्ब, कहां ? पूछेगा नाती
बाबा ! कब कट गयी, हमारी पीपर पांती ?
बर्बादी हंसने लगी, रोने लगा विकास
जल, ध्वनि, पवन-विनाश का, जब गूंजा कटु हास
जब गूंजा कटु हास, पवन लगती जहरीली
नदी लिए तेजाब, हुई हर लहर विषैली
बढ़ता जाता शोर, बढ़ रही है आबादी
दूषित पर्यावरण, रच रहा है बर्बादी ।
पेड़ धरा के पुत्र हैं, उन पर किया प्रहार
उस दिन मानव ने लिखा, अपना उपसंहार
अपना उपसंहार, कटे जब आम नीम बट
कटे कदम्ब, पलाश, करौंदा, जामुन नटखट
अब मधुऋतु की पवन, हंसे किसको सिहरा के
जब अशोक तरू जुही, कट गये पेड़ धरा के
वन-उपवन, पर्वत, धरा, जल, नभ, संस्कृति-रूप ।
सबको देकर यातना, करता मनुज कुरूप ।।
करता मनुज कुरूप, काटता है वृक्षों को
सजा रहा है मरे, वृक्ष से निज कक्षों को
कल्पवृक्ष को रखता, था पावन नन्दन वन
देवों को प्रिय विपिन, काटते हम वन-उपवन
अपसंस्कृतिदे तरूण को, देकर ऊब किशोर
हम नवशिशु के कान को, सौंपें बढ़ता शोर
सौंपे बढ़ता शोर, नीर देते जहरीला
नहीं रहा अब उषा, काल मोहक शहदीला
सब्जी, दूध, अनाज, सभी में आयी विकृति
संस्कृति मिटती गयी, रह गयी बस अपसंस्कृति ।

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