गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

सामयिक
वानिकी विकास और सामाजिक संस्थाएें 
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

    वृक्ष और मानव जाति का रिश्ता अनंतकाल से चला आ रहा है । किसी देश की समृद्धि उस देश की वन संपदा पर निर्भर करती है । देश के पर्यावरण में वनों की प्रमुख भूमिका है । पिछले तीन चार दशकों में देश में उभर रही पर्यावरण विघटन की समस्याआें में सबसे ज्यादा जलवायु में जो आश्चर्यजनक परिवर्तन परिलक्षित हो रहे है इनका प्रमुख कारण वनों का विनाश है ।
    मानव जीवन के तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्टी मुख्य रूप से वनों पर ही आधारित है । वनों से हमें कई प्रत्यक्ष लाभ है, इनमें खाद्य पदार्थ औषधियां, फल-फूल, ईधन, पशु आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा-संतुलन, भू-जल संरक्षण, भू-संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख है । 
    हमारे देश में प्राचीन काल से ही वृक्षा पूजा का प्रचलन रहा है । देश में एक तरफ तो पेड़ों के प्रति श्रद्धा और आस्था का यह दौर चलता रहा तो दूसरी और बड़ी बेरहमी से वनों को उजाड़ा जाता रहा और यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है । इन दिनों पहाड़ और नदियां नग्न होती जा रही है, इससे देश में बाढ़, सूखा और भूकंप के खतरे बढ़ते जा रहे है । वनों के विनाश ने ग्लोबल वार्मिग की विश्व व्यापी समस्या को जन्म दिया है जिसके कई दुष्परिणाम धीरे-धीरे सामने आ रहे   है ।
    भारतीय कृषि अनुसंधन संस्थान का कहना है कि यदि तापमान में ३ डिग्री सेलसियस की वृद्धि होती है तो देश में गेहूं की सालाना पैदावार में १०-१५ प्रतिशत की कमी हो   जायेगी । पेड लगाने और उन्हें सुरक्षित रखने के लिये हमारे  देश में प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रयास होते रहे है जिसमें सरकार व समाज दोनों ही समान रूप से भागीदार होते थे । राजशाही के दौर में सभी राजाआें ने तालाबों और उद्यानों का विकास  किया । सड़क किनारे छायादार पेड़ लगवाये तो जन-सामान्य ने इनके संरक्षण में अपनी भूमिका निभायी । इस प्रकार राज और समाज के परस्पर सहकार से देश में एक हरित-संस्कृति का विकास हुआ, जिसने वर्षो तक देश को हरा-भरा रखा । वानिकी-विकास की इस समृद्ध परम्परा में कुछ ऐतिहासिक घटनाये हुई जिसने सम्पूर्ण विश्व में भारत की वृक्ष प्रेमी संस्कृति का परिचय दिया । इसमें केवल एक उदाहरण भी चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा ।
    राजस्थान में जोधपुर के पास छोटे से गांव खेजडली में वर्ष १७३० में खेजड़ी के एक पेड़ को बचाने और क्षेत्र की हरियाली को बनाये रखने के लिये ३६३ विश्नोईयों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी थी । विश्व में किसी भी समाज में इस प्रकार की घटना का कहीं कोई उल्लेख नहीं आता है कि पेड़ की रक्षा में लोग स्वयं अपने प्राण न्यौछावर कर दे । प्रकृति रक्षा की इस अभूतपूर्व घटना से समूची मानवता गौरवान्वित हुई । विश्व के अनेक देशों में इस घटना से प्रेरणा लेकर लोग पेड़ बचाने के प्रयासोें में लग गये । इस घटना से हमने विश्व के सामने वृक्षों के साथ सहजीवन की परम्परा का परिचय देते हुए यह तथ्य रखा कि प्रकृति और संस्कृति के साहचर्य से ही सभ्यता दीर्घजीवी होती है । इसी भावना को विस्तारित कर हम मानवता के भविष्य को सुरक्षित रख सकते है ।
    वानिकी विकास में सामाजिक संस्थाआें और जन-सामान्य की सक्रिय भागीदारी की परम्परा में सन् १९७३ में गांधीवादी लोक सेवक चंदीप्रसाद भट्ट के नेतृत्व में चिपको आंदोलन शुरू करने वाली उ.प्र. के चमोली जिले की संस्था दशोली ग्राम स्वराज मण्डल ने वन संवर्धन और सुरक्षा के कार्यो में ग्राम समाज का सक्रिय सहयोग प्राप्त् करने में भारी सफलता प्राप्त् की । चिपको आंदोलन की विश्वव्यापी लोकप्रियता ने यह भी सिद्ध किया कि स्वयं सेवी संस्थायें लोगों की बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखकर वानिकी विकास की योजना बनायेगी तो उसे सम्पूर्ण समाज का सहयोग और समर्थन प्राप्त् होगा । चिपको की परम्परा का विकास हमें देश में अनेक भागों में देखने को मिला । देश मेंअनेक सामाजिक संस्थायें और व्यक्ति आगे आये जिन्होनें पेड़ लगाने और उन्हें सुरक्षित रखने में विविध आयामी कार्यक्रमों में न केवल अपनी शक्ति लगायी अपितु समूचे समाज का सहकार भी प्राप्त् कर सफलता के कीर्तिमान रचे ।
    चिपको के बाद वनों की रक्षा का प्रेरणादायी आंदोलन है - रक्षा सूत्र आंदोलन, इसमें भी लोगों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की । उत्तराचंल में सहेली समतियों के माध्यम से युवतियां पौधारोपण एवं उसके संरक्षण में महत्वपूर्ण  भूमिका निभा रही है । समिति द्वारा लड़की की शादी में गांव में कुछ पौधे रोपे जाते है । इनके देखरेख का खर्च वर पक्ष से वसूला जाता है । इस राशि से सहेली समिति द्वारा पौधों का रख-रखाव किया जाता है । इस कार्यक्रम को मिल रहे भारी समर्थन से संकेत मिलता है कि लोगों की रोजमर्रा की जरूरतों यानी ईधन, चारा, लकड़ी आदि की पूर्ति की दृष्टि से पेड़ लगाने के प्रयास स्वयं सेवी संस्थाआें द्वारा या जन अभिक्रम से हो रहे है, वहां लोग पूरे उत्साह और तत्परता के साथ शामिल होते है । भारत में वनाश्रित श्रम जीवियों की लगभग १५ करोड़ है, जो वनों में स्वरोजगारी आजीविका से जुड़े है। वनों में रहने वाले इन श्रम जीवी समाज में बड़ी संख्या महिलाआें की है ।
    वानिकी विकास में समाजसेवी संस्थाआें की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिये समय-समय पर सरकारी प्रयास भी होते रहे है । राष्ट्रीय कृषि आयोग ने १९७६ में ईधन, चारा, लकड़ी और छोटे मोेटे वन उत्पादों की पूर्ति करने वाले पेड़ लगाने के लिये सामाजिक-वानिकी कार्यक्रम की सिफारिश की थी । सामाजिक वानिकी के मुख्य रूप से तीन लक्ष्य है । खेतों में पेड़ लगाना यानि नि:शुल्क या सस्ते दरों पर किसानों को उनके अपने खेतों में पौधे लगाने के लिये प्रोत्साहित करना, स्थानीय लोगों की जरूरतों के लिये वन विभाग द्वारा सड़कों, नहरों के किनारे और ऐसी सार्वजनिक जगहों पर पौधे लगाना और सामुदायिक भूमि पर समुदाय द्वारा पौधारोपण करना जिसका लाभ सभी लोगों को समान रूप से मिल सके । इस अभियान में शैक्षणिक और सामाजिक संस्थाआें के साथ ही बड़ी संख्या में युवा जुड़े और पौधारोपण को एक जन अभियान बनाया जा सका ।
    सामाजिक संस्थाआें द्वारा इस अभियान को चलाने में कई अनुभव आये, ज्यादातर लोगों का विचार बना कि वानिकी विकास के लिये स्थानीय लोगों, वन विभाग एवं सरकारी अधिकारियों, सामाजिक संस्थाआें और विाान्की विशेषज्ञों की सामूहिक शक्ति से ही वानिकी कार्यक्रमों में वांछित परिणाम प्राप्त् किये जा सकते है । स्थानीय आवश्यकता और क्षेत्र विशेष की परिस्थिति में अनुकूल पौधों का चयन कर उनको लगाने के लिये समर्पण भाव से काम करने वाले सामाजिक संगठनों को ही अपेक्षित जन सहयोग मिलता है । सामुदायिक भागीदारी से जंगलों की रक्षा की जा सकती है । स्थानीय लोग ही पर्यावरण को समृद्ध एवं संरक्षित कर सकते है, इसलिये गावों में ग्राम पंचायतें एवं शहरों में शहरी निकाय पौधे लगाकर उनके रख-रखाव की जिम्मेदारी निकटवर्ती रहवासी लोगों एवं खासकर युवाआें को देकर न केवल अपने क्षेत्र को हरा-भरा करने में सफल हो सकते है अपितु वानिकी विकास में सामाजिक संस्थाआें की भूमिका को भी सार्थकता प्रदान कर सकते है ।
    भारत में भौगोलिक क्षेत्र के १८-३४ प्रतिशत वन क्षेत्र है । देश में वनों में लगभग आधे वन म.प्र. में  है । वन सम्पदा की दृष्टि से मध्यप्रदेश समृद्ध राज्य माना जाता है । प्रदेश में वानिकी विकास में समाज की भागीदारी मजबूत करने के लिये संयुक्त वन प्रबंधन की अवधारणा को लागू किया है ।
    हमारे संविधान में अनुच्छेद ४८ में राज्यों को वन एवं पर्यावरण संरक्षण का दायित्व सौंपा गया है, वहीं अनुच्छेद ५१ में जन-सामान्य के लिये प्राकृतिक पर्यावरण जिसमें वन, झील, नदी और वन्य जीव की रक्षा और संवर्धन करने तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखने का दायित्व बताया गया है । हमारे संविधान ने वानिकी विकास की जिम्मेदारी सरकार और समाज दोनोंको सौंपी है इसलिए दोनों को ही अपनी भूमिका का निर्वहन संपूर्ण शक्ति से करना है तभी हम हरा भरा और समृद्ध भारत बना सकेंगे ।

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