गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

प्राणी जगत 
वन्यजीवन और सामाजिक संघर्ष
जो लोफ्टस-फारीन

    वनों व जलस्त्रोतोंमें घटती जैवविविधता अब सामाजिक संघर्ष का कारण बनती जा रही है । मानव आबादी का बड़ा हिस्सा समुद्रों, नदियों अन्य जलस्त्रोतों व वनों पर न केवल अपनी आजीविका के लिए बल्कि पोषण के लिए भी निर्भर है । भारत की स्थिति भी इससे पृथक नहीं है ।  आधुनिक विकास के  पैरोकार प्रत्येक प्राकृतिक संपदा को उत्पाद में बदलकर उसका आर्थिक दोहन ही करना जानते हैं। 
     मछलियों का अत्यधिक दोहन, वन्यजीवन की तस्करी और विलुप्त होती प्रजातियां इन सबमें क्या साझा है ? साइंस पत्रिका में हाल ही में छपे एक प्रपत्र के अनुसार सभी पर्यावरणीय चुनौतियों के सतत सामाजिक परिणाम निकलेंगे । जबरिया श्रम, संगि त अपराध और यहां तक कि समुद्री डकैती तक की बात करें तो आप इनके पीछे भी पर्यावरणीय परिस्थितियां खोज सकते हैं। यह प्रपत्र केलिफोर्निया विश्वविद्यालय के बर्कले शोधार्थियों ने प्रकाशित कराया है जिसमें संसाधनों के क्षरण और इसके अनपेक्षित सामाजिक परिणामों में आपसी संबंध सामने आए हैं। बर्कले के शोधार्थी डाउग मॅकाले का कहना है, `हमने इस दस्तावेज में विशेष रूप से उस प्रक्रिया को सामने लाने का प्रयास किया है, जिसके माध्यम से वन्य जीवन का नाश होता है और वह यांत्रिकता से जुड़ती है । जोखिम में पड़े प्रजातियों की हानि कैसे होती है और एक महत्वपूर्ण खाद्य संसाधन का नष्ट होना वास्तव में किस प्रकार अनपेक्षित ढंग से बाल श्रम एवं आंचलिक विवादों को बढ़ाता है ।`
    उनका यह भी कहना है कि `जाहिर सी बात है कि इस तरह की कुछ प्रजातियों का विलुप्त होना यहां पर निवास करने वाले को प्रभावित करता है लेकिन अन्य प्रजातियों का नाश ज्यादा हानिकारक है और इससे सबसे ज्यादा गंभीर बात यह है कि इस वजह से हम हिंसा के लगातार बढ़ने और जबरिया श्रम जैसे बढ़ते सामाजिक अन्यायों से भी दो चार हो रहे हैं।`
    संसाधनों के नष्ट होने के परिणामस्वरूप बढ़ते सामाजिक संघर्षों का संभवत: सबसे ज्वलंत उदाहरण मछली उद्योग है । जैसे-जैसे विश्वभर में मछलियां कम होती जा रही हैं, मछुआरों को और अधिक दूर तक सफर करना पड़ता है और मछलियां पकड़ने में ज्यादा समय लगाना पड़ता है । इससे इनकी व्यापारिक लागत भी बढ़ जाती है । जैसे ही श्रम की मांग बढ़ती है वैसे ही मछली मारने वाली नौकाएं मानव तस्करी में जुट जाती हैं और बच्चें और पलायन कर आए मजदूरों को इसने मुत में काम पर रख लिया जाता है । उदाहरण के लिए थाईलैंण्ड में पलायन श्रमिकों को १८ से २० घंटों तक थकाकर चूर कर देने वाला शारीरिक श्रम करना पड़ता है । इसके अलावा उनका शारीरिक शोषण भी होता है तथा उन्हें खाने को बहुत कम दिया जाता है । इतना नहीं उन्हें ठ ीक से सोने भी नहीं दिया जाता ।
    लेखकों का मानना है कि इसी तरह मछली मारने के अधिकारों में बढ़ती प्रतियोगिता के समानांतर कमजोर राष्ट्रीय सरकार के चलते सोमालिया तट पर समुद्री डकैती में वृद्धि हुई है और इनसे प्रेरित होकर स्थानीय मछुआरे अब जाल के माध्यम से हथियारों का व्यापार करने लगे हैं। अध्ययन के मुताबिक ठीक ऐसा ही सेनेगल, नाईजीरिया और बेनिन में भी दोहराया जा रहा है ।
    हालांकि सभी लोग इस बात से सहमत नहीं हैंकि संसाधनों की कमी मछली उद्योग के सामने मुख्य मुद्दा है । अमेरिका के जार्जटाऊन विश्वविद्यालय में विदेश सेवा के  प्रोफेसर एवं अमेरिका के मानव तस्करों से निपटने वाले अभियान के राजदूत मार्क लेगोन का कहना है, `समुद्री खाने (सी-फूड) की मांग में लगातार वृद्धि हो रही है, लेकिन सीफूड की उपलब्धता में आ रही कमी से भी बड़ा मुद्दा श्रम की कमी का है। उदाहरण के लिए थाईलैण्ड की स्थिति को लें वहां पर मौसमी मछुआरों की कमी हो गई है और उस आवश्यकता की पूर्ति हेतु उत्तरपूर्वी एशियाई देशों से मजदूरों को बुलाना पड़ रहा है ।
    संसाधन से संबंधित तनाव सिर्फ मछली उद्योग तक ही सीमित नहीं है, यह भीतरी या आंतरिक स्थानों तक फैल गए हैं। उदाहरण के लिए पश्चिमी अफ्रीका में मछलियों की संख्या में कमी आने से स्थानीय समुदाय अब प्रोटीन हेतु काफी हद तक स्थलीय या जमीन पर विचरण करने वाले जानवरों पर निर्भर हो गए हैं। ये स्थलीय प्रजातियां भी अब छितरा गई हैं(कम हो गई हैं) । शिकार करना अधिक कठिन हो गया है तथा इसमें ज्यादा समय लगने लगा है । इसे पुन: इस संदर्भ में देखना होगा कि खाना प्राप्त करने में आ रही मुश्किलों को कम करने के लिए शिकारी अब बाल श्रम पर अधिक निर्भर हो गए हैं। अफ्रीका मेंे हो रही वन्यजीवन तस्करी के सामाजिक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। उदाहरण के लिए हाथी दांत के अधिक मूल्य मिलने की वजह से संगठित अपराध वर्ग अब अवैध वन्यजीव व्यापार की ओर आकर्षित हुआ है और इसके स्थानीय समुदायों पर भयंकर प्रभाव पड़ रहे हैं।
    प्रो. जस्टिन ब्राभोयर का कहना है कि, यह दस्तावेज बताता है कि वन्यजीवन में गिरावट सामाजिक संघर्ष का महज लक्षण नहीं बल्कि उसका स्रोत है । अरबों लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अपनी आय एवं पोषण हेतु यहां से प्राप्त मांस एवं हेतु वनों पर निर्भर हैंऔर यह स्त्रोत लगातार घटते जा रहे हैं। मानव आजीविका के इतने महत्वपूर्ण पक्ष में आई गिरावट के व्यापक सामाजिक परिणाम भुगतना कतई आश्चर्यजनक नहीं है ।
    इस दस्तावेज में इस तरह के अनेक उदाहरण दक्षिण पूर्व एशिया एवं अफ्रीका से उद्धत किए गए हैं। परंतु वन्यजीवन हृास के सामाजिक प्रभाव तो पूरे विश्व में दिखाई पड़ रहे हैं। मकॉले ने कनाडा के पूर्वी समुद्री तट पर कॉड समुदाय के वहां से पूरी तरह से चले जाने और उसके परिणाम स्वरूप स्थानीय मछली उद्योग की बर्बादी के मद्देनजर कहा है कि कुछ देश संसाधनों के कम होने से उपजी परिस्थितियों का ठीक से मुकाबला कर पाए हैं। परंतु उनका कहना है `गंभीर संकट में पड़े पूरे समुदाय को उबारना या वन्यजीवन में आ रही गिरावट से उत्पन्न व्यापक मानवीय त्रासदी से निपट पाना कनाडा, अमेरिका या यूरोप के किसी देश के लिए संभव हो सकता है । लेकिन उप सहारा अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के अधिकांश देशों के पास इतना धन नहीं है वे इतने बड़े पैमाने पर `बेलआऊट` दे सकें । ऐसी स्थिति में वहां पर इसके प्रभाव अधिक स्पष्ट रूप में दिखेंगे । उन्हें और भी अधिक चोट पहुंचेगी ।
    शोधार्थियों के अनुसार हमें और अधिक समावेशी नीति बनाने की आवश्यकता है । पर्यावरणीय एवं सामाजिक चुनौतियों से निपटने के लिए सभी संबंधित पक्षों को मिलजुल कर कार्य करना होगा । नीति निर्माताओं को भी अपनी दृष्टि को सिर्फ कानूनों को लागू करने तक सीमित नहीं रखना चाहिए । अवैध शिकार संबंधी कानूनों या श्रम कानूनों को लागू करने के साथ ही साथ सरकारों को इन समस्याओं की जड़, जिसमें वन्यजीव संख्या में आ रही कमी भी शामिल है, से भी निपटना चाहिए । 

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