गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

ज्ञान-विज्ञान
अब ३डी तकनीक से कैंसर कोशिकाओं का पता चला 

दुनिया भर में हर साल कैंसर की वजह से करोड़ों लोगों की मौत हो रही है । ऐसे में शोधकर्ताआें ने कैंसर रोगियों के खून में उसमें घूम रही ट्यूमर कोशिकाआें (सर्कुलेटिंग टयूमर सेल्स) का पता लगाने और हमेशा के लिए उन्हेंबाहर निकालने की ३डी तकनीक बना ली है । 
यह शोध कॉफी अहम साबित हो सकता है । सर्कुलेटिंग ट्यूमर सेल्स (सीटीसी) ऐसी कोशिकाएं होती हैं, जो शुरूआती चरण के ट्यूमर से निकलती है और रक्तसंचार के जरिये शरीर के अन्य हिस्सों में फैल जाती है । इस शोध के प्रमुख वैज्ञानिक जयंत खंडारे और शाश्वत बनर्जीने कहा कि यह शरीर के अन्य अंगोंमें कैंसर के फैलने का मुख्य कारण है और इसे मेटास्टेसिस कहते है । 
श्री खंडारे ने कहा कि वर्ष २०१३ में कैंसर के कारण ८० लाख २० हजार मौतोंके साथ एक करोड़ ४९ लाख नए मामले दर्ज हुए थे । भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने भारत में वर्ष २०२० तक १७ लाख से ज्यादा नए मामले सामने आने और ८.८ लाख से ज्यादा मौत होने की आशंका जताई है ।
यह शोध अंतराष्ट्रीय पत्रिका एडवांस्ड मैटिरियल्स इंटरफेस की कवरपेज स्टोरी के रूप में प्रकाशित हुआ है । इस पत्रिका ने भारतीय शोधकर्ताआें के एक समूह को पहली बार यह सम्मान दिया है । श्री खंडारे ने कहा कि महाराष्ट्र इंस्टीट्यूट ऑफ फॉर्मेसी, एक्टोरियन इनोवेशंस एंडरिसर्च प्राइवेट लिमिटेड और महाराष्ट्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एण्ड रिसर्च मेडिकल कॉलेज, पुणे ने खून के एक छोटे से नमूने मे से सीटीसी का पता लगाने वाला ३डी माइक्रोचैनल तंत्र बनाया है । 

क्या अर्जित गुण संतानों को मिलते है ?

देखा जाए तो अर्जित गुणों के संतानोंतक पहुंचने के सवाल का पटाक्षेप डारविन के विकासवाद के साथ हो चुका था किन्तु यह सवाल इस बार ज्यादा नफासत से उठा है । सवाल यह है कि क्या माता-पिता द्वारा अपने जीवन काल में अर्जित किए शारीरिक गुण संतानों को विरासत में प्राप्त् होते हैं । इस मामले में हाल में किए गए कुछ प्रयोगों से नई समझ उभरी है । 
वेसलेयन विश्वविघालय की सोनिया सुल्तान और जेकब हरमैन ने एक छोटे से फुलधारी पौधे पोलीगोनम पर्सीकेरिया के साथ कुछ प्रयोग करके दर्शाया है कि वाकई कुछ अर्जित गुण संतानों में भी नजर आते हैं । प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित अपने शोध पत्र में उन्होंने इसकी क्रियाविधि पर भी प्रकाश डाला है । 
पोलीगोनम पर्सीकेरियाएक वार्षिक पौधा है । सुल्तान और हरमैन ने ऐसे कुछ पौधों को सुखी मिट्टी और कुछ पौधों को सामान्य मिट्टी में उगाया । इनसे जो बीच प्राप्त् हुए उन्हें अलग-अलग रखा मगर सबको सूखी मिट्टी में बो  दिया । उन्होंने इन नए पौधों के साथ एक प्रक्रिया और की । इनमें से कुछ पौधों के डीएनए में से १५ से २० प्रतिशत तक मिथाइलेशन को हटा दिया । 
दरअसल, मिथाइलेशन वह प्रक्रिया है जिसके जरिए डीएनए में जगह-जगह पर मिथाइल समूह जुड़ जाता है । इसकी वजह से उन हिस्सों में उपस्थित जीन्स या तो निष्क्रिय हो जाते हैं या उनका व्यवहार बदल जाता है । यह प्रक्रियाजीव के जीवन काल में निरन्तर चलती रहती है और  इसकी वजह से उस जीव में कुछ नवीन गुण प्रकट होते हैं । 
दोनों तरह के पौधों को सूखी मिट्टी में उगाने पर देखा गया कि जो पौधे सूखे में पले माता-पिता से उत्पन्न हुए थे उनमें सूखा रहने की क्षमता ज्यादा थी । अर्थात उनकी पौध जल्दी बड़ी हुई, उनकी जड़े ज्यादा गहराई तक पहुंची और उनमें चौड़ी पत्तियां बनी । 
मगर जिन पौधों में मिथाइल समूहों को हटा दिया गया था उनमें माता-पिता के येगुण प्रकट नहीं  हुए । इसके आधार पर सुल्तान का मत है कि किसी जीव के जीवन काल मेंडीएनए का मिथाइलीकरण उसमें कई गुणों के लिए जिम्मेदार होता है और संतानों को ये गुण मिथाइल युक्त डीएनए के माध्यम से ही प्राप्त् होते हैं । 
आम तौर पर देखा गया है कि जब सामान्य कोशिका से प्रजनन कोशिकाएं (जैसे भ्रूण की कोशिकाएं) बनती हैं तो पूरा मिथाइलीकरण समाप्त् कर दिया जाता है । मगर सुल्तान के प्रयोगों से लगता है कि कुछ मामलों में मिथाइलीकरण शेष रह जाता है और यह संतानों को उनके माता-पिता द्वारा अर्जित गुण प्रदान करता है । 
प्रयोगों में एक विशेषता यह थी कि इसमें जेनेटिक दृष्टि से काफी विविध पौधों का उपयोग किया गया था और सब में अर्जित गुणों का अगली पीढ़ी को हस्तान्तरण नहीं देखा गया । इसका मतलब है कि मिथाइलीकरण को अगली पीढ़ी में पहुंचाना स्वयं भी एक आनुवंशिक गुण है जो सब जीवों में नहीं पाया जाता । 

बूढ़े खून से हानिकारक असर को रोकने की कोशिश

वृद्ध हो चुके खून का काफी नाटकीय प्रभाव होता है और यदि युवाआें को ऐसा खून दिया जाए तो उनमें बुढ़ाने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं । मगर इस समस्या से निपटने के तरीके भी खोजे गये हैं और इन तरीकों को खोजते-खोजते वैज्ञानिकों ने वृद्धावस्था की समस्याआें का संभावित समाधान भी पा लिया है । 
सबसे पहले खून के ऐसे असर का पता चूहों पर किए गए कुछ प्रयोगों से चला था । उस प्रयोग में जवान चूहों और बूढ़े चूहों के रक्त प्रवाह को आपस में जोड़ दिया गया था । देखा गया था कि युवा चूहों में बुढ़ाने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं  जबकि बूढ़े चूहों की सेहत में सुधार होता है । 
इसके बाद कुछ युवा मनुष्यों का खून बूढ़े चूहों को देने पर पता चला कि ऐसे चूहों में वृद्धावस्था के लक्षण कम हो जाते हैं । जैसे उनकी याददाश्त बेहतर हो जाती है और उनकी मांसपेशियां ज्यादा काम कर पाती हैं । मगर यह भी पता चला था कि बूढ़ों का खून युवाआें का दिया जाए, तो उनमें अंगों की क्षति होने लगती है और मस्तिष्क में वृद्धावस्था के लक्षण दिखने लगते   हैं । 
इन प्रयोगों से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि युवा खून में ऐसा कुछ होता है जो क्षतिकारक है । अब स्टेनफोर्ड विश्वविघालय की हनादी युसूफ ने एक प्रोटीन की पहचान की है, जो संभवत: बूढ़े खून में ज्यादा मात्रा में पाया जाता है और क्षतिकारक है । सुश्री युसूफ ने पाया कि खून में एक प्रोटीन तउअच की मात्रा उम्र के साथ बढ़ती है । ६५ वर्ष से ऊपर के लोगों में इसकी मात्रा २५ वर्षीय लोगों के मुकाबले ३० प्रतिशत तक ज्यादा होती है । अब वे इस प्रोटीन का असर परखना चाहती    थी । 
जब उन्होंने ६० से ऊपर के लोगोंके खून का एक घटक (प्लाज्मा) ३ माह उम्र के चूहों को दिया तो उनके मस्तिष्क में 
वृद्धावस्था के लक्षण दिखने लगे । ३ माह उम्र के चूहे मनुष्य की उम्र के हिसाब से २० वर्ष के होते है । 
मगर जब प्लाज्मा के साथ एक ऐसा पदार्थ भी दिया गया जो तउअच के असर को बाधित करता है तो युवा चूहोंमें हानिकारक असर नजर नहीं आए । 
सुश्री युसूफ ने सोसायटी फॉर न्यूरोसाइन्स की वार्षिक बैठक में बताया कि जब उम्र बढ़ती है तो तंत्रिकाआें की क्षति होती है और मस्तिष्क में सूजन भी ज्यादा होने लगती है । यदि हम इसकी क्रियाविधि को समझ लें तो शायद हम इस  असर को रोक सकेंगे और पलट सकेंगे । 

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