गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

अर्थ जगत 
मथुरा में पैसा है तो कंस भी है
न्या. चन्द्रशेखर धर्माधिकारी

आज `केशलेस` याने नकद रहित से लेकर `लेसक्रॅश` (कम नगदी) की बात जोर-शोर से चल रही है। अतएव मुझे आचार्य विनोबा  भावे द्वारा श्रम और प्रेम के आधार पर प्रतिपादित कांचनमुक्ति सिद्धांत और प्रयोग विचारणीय लगा । 
विनोबा ने कहा था ``दुनिया में श्रम और प्रेम की प्रतिष्ठा बढ़ने से  कांचनमुक्ति होगी । श्रम नहीं होगा तो अन्नोत्पादन पूरा नहीं होगा । कुछ लोग ज्यादा छीन लेने की कोशिश करेंगे और झगड़ा चलता ही रहेेगा । इसी के लिए प्रेम भी चाहिए, ताकि जो पैदा हुआ उसे बांटकर  खायें । जैसे परिवार में सब अलग-अलग कमाते हैं,फिर भी सब बांटकर खाते हैं, क्योंकि उनमें प्रेम है । वैसा ही प्रेम समाज में होने पर बांटकर खाने का सामाजिक अमल होगा । इन दोनों चीजों के बढ़ने से पैसे का जोर नहीं चलेगा और समाज कांचनमुक्त होगा।`` विनोबा के आश्रम में वैसे ही अन्न और वस्त्र स्वावंलबन चल ही रहा था । सूत खुद कातकर, कपड़े की बुनाई करना तथा अपने परिश्रम से पैदा अन्न का सेवन करना ही आश्रम का व्रत था ।
इसलिए बाजार में कपड़े के या अनाज के भाव गिरें या बढ़ें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था । इस स्वावलंबन प्रक्रिया के दो भाग किये गये थे । एक था स्वयं का स्वावलंबन और दूसरा समूह का याने आश्रम का स्वावलंबन । इसे कांचन मोचन की उपासना कहा गया था । आश्रम में कुछ बहनें ऐसी थीं जिन्होंने कई सालों से पैसों का स्पर्श ही नहीं किया था ।
वर्तमान परावलंबी समाज रचना के कारण पैसा विनिमय का साधन बना है । इस संदर्भ में विनोबा ने कहा है ``जैसे किसान परावलंबी  है । इसलिए पैसे को प्रतिष्ठा मान बैठा है वैसे ही हमारी सरकार भी परावलंबी यानी परदेशावलंबी बनी   है । वह भी पैसे को ही प्रतिष्ठा मान बैठी है । सरकार के सामने यह समस्या रहती है कि परदेस से फलां-फलां सामान हमें चाहिए और उसे खरीदने के लिए पैसा चाहिए । तो जिस मोहपाश में किसान फंसा हुआ है उसी मोहपाश में सरकार भी फंसी है । व्यापारी तो उसमें फंसे हुए हैं ही । 
नतीजा यह हुआ है कि क्या व्यापारी, क्या मध्यमवर्ग और क्या किसान यानी जनता और सरकार, चारों मिलकर पैसे का गुणगान कर रहे हैं । जनता से पैसा लेकर सरकार गांव वालों को वही पैसा सूद पर दे, यह तो कितनी बुरी बात है। ऐसी बुरी धारणाएं मिटाये बिना क्रंाति नहीं हो सकती । समाज में जरुरत से ज्यादा पैसा पैदा कर दिया गया है । आज पैसे का परिश्रम और पैदावार से कोई संबंध नहीं रहा है । सिर्फ कागज बढ़ाये हैं यानी कृत्रिम पैसा बढाया गया है । ऐसा पैसा पैदा होने से सब लोेग लोभी या रिश्वतखोर बन गये हैं । 
आज रुपये के एक सेर चावल, तो कल आधा सेर । कौन जाने वह किस रोज क्या बोलेगा ? इस झूठे पैसे को हम सिर्फ निबाह ही नहीं रहे हैं बल्कि उसे अपना कारोबारी बना चुके हैं। लक्ष्मी तो श्रम से निर्मित होती है। लक्ष्मी और पैसा एक ही चीज नहीं है। लक्ष्मी तो माँ है, विष्णु-पत्नी है । और पैसा राक्षस है। किसने बनाया पैसा ? वह तो नासिक के छापेखाने में बनता है। उत्पादन तो बढ़ता नहीं और पैसा बढ़ता जाता है । 
एक दिन यशोदा ने कृष्ण से कहा कि मक्खन को मथुरा में जाकर बेचना चाहिए । कृष्ण का जवाब था नहीं उसे गांव में ही खाना चाहिए । यशोदा बोलीं मथुरा में मक्खन बेचने से पैसा मिलेगा । तो कृष्ण बोले मथुरा में अगर पैसा है तो कंस भी है । मथुरा के पैसे का लोभ रखोगे तो कंस का राज्य भी मान्य करना पड़ेगा । इसीलिए पैसे से मुक्त होकर गांव-गांव में `ग्रामस्वराज्य` स्थापित करना  चाहिए । प्रयास करना होगा कि देहाती जनता को अपनी मुख्य आवश्यकताओं के लिए बाजार पर अवलंबित न रहना पड़े । आज देहात के लोग अनाज के अलावा सब कुछ खरीदते हैं । इसलिए आम जनता की वित्त संचय की वासना नहीं छूटती ।
विनोबा ने ब्याजखोरी के बारे में कहा है ``ब्याज को आज व्यापार में मान्य किया गया है। आज की मान्यता के अनुसार इतना ही कह सकते हैं कि अतिरिक्त ब्याज नहीं लेना चाहिए । इस मान्यता पर पुनर्विचार होना चाहिए । इस्लाम ने ब्याज का पूर्ण निषेध किया है । अगर ब्याज का निषेध हो जायेे, तो संग्रह की मात्रा काफी घट     जायेगी ।`` कांचनमुक्ति जीवन मूल्यों के परिवर्तन का प्रयोग है । हमको परिश्रम से निर्माण करना है और परस्पर सहकार से जीवन का नियमन करना है । 
इस तरह निर्माण और नियमन दोनों इस प्रयोग का हिस्सा हैं । चलन का परिवर्तन पैसे मंे नहीं करना है । इसी से जीवन में नियमन आयेगा, लेकिन निर्माण पर भी गंभीरता से विचार करना होगा ।  यह सिर्फ शब्दों की हेराफेरी नहीं है। यह तो अर्थविज्ञान या अर्थनीति का बुनियादी सिद्धांत है । विनोबा कहते हैं ``यदि हम फौरन उपयोग नहीं कर पा रहे हैं और दूसरा कोई वह कर रहा है तो हम अपना पैसा उसके हाथ में सौपते हैं । कुछ मुद्दत के बाद जब वह पैसा हमें वापस देग तो पूरे सोलह आने वापस देने की जिम्मेवारी उस पर न हो । अगर वह पंद्रह आने वापस कर दे तो ऋण-मुक्ति मान लेनी चाहिए । यानी आम जनता के  हित के काम में लगे पैसे में कमोबेशी या कटौती मान्य करना धर्म होगा । अगर यह विचार मंजूर हुआ तो संग्रह की मात्रा भी कम होगी और संग्रह करने की लालसा और मुनाफा के साथ ही अपने परिश्रम से न कमाया हुए पैसे की लालसा समाप्त होगी । ऐसे में `कालेधन` का सवाल भी नहीं रहेगा ।  
महाराष्ट्र के कोकण जिले के गांधी के नाम से प्रसिद्ध अप्पासाहब पटवर्धन जो महात्मा गंाधी के सचिव भी रहे थे के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की प्रसिद्ध अर्थशास्त्री तथा योजना आयोग के अध्यक्ष धनंजय राव गाडगिळ ने भी सराहना की थी और कहा था कि ``वह सिद्धांत इतना दूरगामी हैं कि वह हमे आज पसंद नहीं आयेगा । लेकिन इसका मूल्य हम पांच सौ साल के बाद समझ सकेंगे`` नकद पैसे की खोज के पहले वस्तु नियमन की पद्धति उपयोग में लाई जाती थी । फिर `चलन` में पैसा और नोटों का आविष्कार हुआ । जिनका संग्रह किया जा सकता है । 
ईश्वर निर्मित सम्पती नश्वर और मानवनिर्मित पैसा `अमर`! यह उल्टा न्याय प्रस्थापित हुआ । इसी के कारण `ब्याज` और `डिवीडेंड` को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई । अमीर अधिक अमीर होने लगे और गरीब अधिक गरीब बने । आर्थिक विषमता बढ़ती गई । अप्पासाहब का सुझाव था कि सरकार घोषणा करे कि मुद्रित नोट छपे हुए साल के लिए ही चलन में रहेगा । उसके बाद सौ रुपये का नोट ९५ रु. में वापस  होगा । बैंक में जमा पैसा बिना लाभ हानि के स्वीकार किया जाएगा । इस साल रखे १०० रुपये के बदले अगले साल ९५ रु. ही वापिस मिलेंगे । 
वैसे भी हम चौकीदार को हर महीने वेतन देते ही हैंना ? उत्पादन परिश्रम करने वालों को तगाई बिना ब्याज की मिलेगी । ताकि अमीर अधिक अमीर और गरीब अधिक गरीब न हो और सरकार भी मुनाफा न कमा सके । 
यह सिद्धांत अव्यवहारिक या हास्यास्पद लग सकता है लेकिन यही हमारे संविधान के उददेशिका की आर्थिक समता के तत्व के अनुकूल है । इसी के कारण सामाजिक विषमता समाप्त करने में मदद मिलेगी । वैसे भी किसी भी प्रकार का उत्पादन या परिश्रम न करते हुए ब्याज और डिविडेंड पर आधारित अर्थशास्त्र सिर्फ स्वार्थशास्त्र या अनर्थशास्त्र ही नहीं है बल्कि वह तो शोषण पर आधारित विपत्तीशास्त्र है। 
आज तो एक की विपत्ती दूसरों को संपत्ती कमाने का सुअवसर देती है। गांधीजी ने जब `नमक-सत्याग्रह` शुरू किया था तब उन्हें `मूर्ख` और पागल ही कहा गया    था । लोग मानते थे कि मुट्ठी भर नमक उठाने से अंग्रेज साम्राज्य कैसे खत्म हो सकेगा ? लेकिन वह सत्याग्रह अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने का प्रथम तथा सशक्त कदम साबित हुआ । जो इस तरह के प्रयोग नहीं करते वे परिवर्तन करने में भी कामयाब नहीं होते। विचारपूर्वक कदम उठाना ही आज के युग की अनिवार्यता है ।

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