गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

लोक चेतना
पर्यावरण, समाज और सामाजिक संस्थाये
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

भारतीय संस्कृति में पंच तत्वों को जीवन का आधार बताया गया है । मनुष्य और प्रकृति की परस्पर निर्भरता का सन्देश हमारी सांस्कृतिक शिक्षाआें का सार है । हम मानते है कि प्रकृति मेंपर्यावरण के असंतुलन से सम्पूर्ण मानव जाति और इस गृह पर उपस्थित प्राणी मात्र के अस्तित्व को खतरा पैदा हो जायेगा । यही कारण है कि बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण को लेकर हमारे देश में ही अपितु सम्पूर्ण विश्व में चिंता हो रही है । 
जनसंख्या विस्फोट, भौतिक एवं औद्योगिक विकास की तीव्र गति, बढ़ता नगरीकरण, खनिज का अतिशय दोहन, वृक्षों की कटाई, भू-गर्भ जल का निरन्तर दोहन व लगातार भू-क्षरण से हमारी शस्य श्यामला धरती का स्वास्थ्य खराब हो रहा है । 

वैज्ञानिक उपलब्धियों की जगमगाहट में पृथ्वी की स्वचलित जीवनदायी व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न कर हम स्वयं अपने अस्तित्व को संकटमय बना रहे है । विकास के दौर में कृषकों ने गहन कृषि पद्धति को अपनाया, अधिक उत्पादन की दृष्टि से अधिक मात्रा में रासायनिक दवाई व अंसतुलित मात्रा में रासायनिक उर्वरक के प्रयोग से एक और जमीन बंजर होती जा रही है, वहीं दूसरी ओर रसायनों के हानिकारक प्रभावों से मनुष्य ही नहीं समस्त जीवों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । 
पर्यावरण से जुड़े कार्यो से व्यक्ति के सामाजिक पर्यावरण से तारतम्य स्थापित करने के प्रयासों को मजबूती मिलती हैं । आजकल बहुआयामी समाजसेवी गतिविधियों के कारण सामाजिक संगठनों का महत्व और उनके सेवा कार्यो की भूमिका बढ़ती जा रही है । भारत में समाज कल्याण कार्यक्रमोंमें युवाआें की भागीदारी बढ़ाने के लिए सन १९०५ में महान राष्ट्रवादी नेता गोपाल कृष्ण गोखले ने भारत सेवक समाज नामक सामाजिक संगठन की स्थापना कर युवाआें को समाज सेवा के लिए प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया  था । इसके बाद अनेक संस्थाआें ने इस क्षेत्र में कार्य किया । सन १९३६ में समाज कार्य के प्रशिक्षण हेतु बम्बई में सर दोराबजी टाटा स्कूल ऑफ सोशल वर्क की स्थापना हुई । इन दिनोंदेश में कार्यरत अनेक संस्थाआें के माध्यम से प्रशिक्षण प्राप्त् हजारों युवा सामाजिक संगठनों में कार्य कर रहे है । इन कार्यो में पर्यावरण संरक्षण की विविध गतिविधियां भी शामिल है । 
पर्यावरण का संरक्षण वर्तमान में विश्व की प्रमुख समस्याआें में से एक है । दुनिया के सभी देशों में लोगों के जीवन को अधिक सुखमय बनाने के लिए नयी-नयी परिकल्पनाएें सामने आ रही    है । सुख की इसी असीम चाह का भार पर्यावरण के लिए संकट पैदा कर रहा है, जो जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिग, प्रदूषण, ओजोन स्तर का क्षय और भूंकप आदि अनेक रूपों में दिखाई दे रहा है । इस कारण पर्यावरण विघटन की समस्या विश्व के सामने प्रमुख प्रमुख चुनौती बन रही है जिसका सामना सरकारों और जागरूक जनता द्वारा किया जाना   है । इसमें सामाजिक संगठनों की भूमिका सेतु की है जो समाज और सरकार के बीच समन्वय का कार्य करते है । 
पर्यावरण संरक्षण के उपायों की जानकारी हर स्तर तथा हर उम्र के व्यक्ति के लिए आवश्यक है । आज दुनिया भर में अनेक स्तरों पर यह कोशिश हो रही है कि आम आदमी को इस चुनौती के विभिन्न पहलुआें से परिचित करा कर इस परिस्थिति को सुधारने के प्रयासों में उसकी भागीदारी प्राप्त् की जा सके । हमारे संविधान में अनुच्छेद ४८ में राज्यों का वन एवं पर्यावरण के संरक्षण का दायित्व सौपा गया है वही अनुच्छेद ५१ में जन सामान्य के लिए प्राकृतिक पर्यावरण जिसमें वन, झील, नदी और वन्य जीव की रक्षा और संवर्धन करने तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखने का दायित्व बताया गया है । 
पर्यावरण संरक्षण की चेतना की सार्थकता तभी हो सकती है जब हम अपनी नदिया, पर्वत, पेड़, पशु-पक्षी और धरती को बचा सके । इसके लिए जन सामान्य को अपने आसपास हवा, पानी, वनस्पति जगत, उद्योग, भूमि प्रदूषण के खतरों और हमारी प्राचीन प्रकृति मित्र जीवन शैली जैसे पर्यावरणीय मुद्दों की जानकारी देने के लिए सामाजिक संगठन आगे आ रहे हैं । पर्यावरण संकट को समझने उससे निपटने और इसके निवारण के उपायों को लागू करने के लिए सामाजिक संगठन मुख्य रूप से निम्न कार्य कर रहे हैं । 
   * सामान्य जन को पर्यावरणीय समस्याआें की तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध करना । * पर्यावरण प्रदूषण से मुक्ति के लिए समाज में जागृति लाना । सरकारी नीतियों को लागु करवाने में सरकारों पर जनमत का दबाव बनाना । * पर्यावरणीय आपदाआें एवं भावी संकटों की जानकारी देकर समाज में वैचारिक चेतना का वातावरण बनाना । * प्राकृतिक संपदाआें का समाज में न्यायोचित वितरण और मितव्ययतापूर्वक उपयोग सुनिश्चित कराना । * स्वयं शुद्ध पर्यावरण में जीते हुए भविष्य की पीढ़ी को पर्यावरणीय संकट के खतरों से सतर्क करतेहुए प्रकृति उन्मुख जीवन शैली अपनाने के लिए प्रेरित करना । 
पर्यावरणीय संरक्षण में समाजसेवी व्यक्तियों और सामाजिक संगठनों की महती भूमिका के अनेक उदाहरण हमारे सामने है । राजस्थान में जोधपुर के पास छोटे से गांव खेजडली में सन १७३० में खेजड़ी के एक पेड़ को बचाने और क्षेत्र की हरियाली को बनाये रखने के लिए ३६३ विश्नोइयो ने अपने प्राणों की आहूति दे दी थी । विश्व में किसी भी देश में इस प्रकार की घटना का उल्लेख नहीं मिलता है जिसमें पेड़ की रक्षा के लिए लोग स्व्यं अपने प्राण न्योछावर कर दे । प्रकृति रक्षा की इस अभूतपूर्व घटना से हमारा देश ही नहीं समूची मानवता गौरवान्वित  हुई । इस घटना से प्रेरणा लेकर अनेक देशों में पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों में लोगों की सहभागिता   बढ़ी । इस घटना से हमने विश्व के सामने प्रकृति के साथ सहजीवन की परम्परा का परिचय देते हुए यह तथ्य रखा कि प्रकृति और संस्कृति के साहचर्य से ही सभ्यता दीर्घजीवी होती है । आज इसी भावना को विस्तारित कर हम मानवता के भविष्य को सुरक्षित रख सकते है । 
पर्यावरण संरक्षण में सामाजिक संस्थाआें और जन सामान्य की सक्रिय भागीदारी की परम्परा में सन १९७३ में चिपको आन्दोलन शुरू करने वाली उत्तराखंड के चमोली जिले की संस्था दशोली ग्राम स्वराज्य मण्डल ने वन संवर्धन और पर्यावरण सुरक्षा के कार्यो में ग्राम समाज का सक्रिय सहयोग प्राप्त् करने में भारी सफलता प्राप्त् की थी । चिपको आन्दोलन की विश्वव्यापी लोकप्रियता ने यह सिद्ध किया कि सामाजिक संगठन लोगों की बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखकर विकास की योजना बनायेगे तो संपूर्ण समाज का सहयोग और समर्थन प्राप्त् होगा । चिपको की परम्परा का विकास हमें देश के अनेक भागों में देखने को मिलता   है । अनेक क्षेत्रीय और राष्ट्रीय सामाजिक संगठन आगे आये जिन्होंने पेड़ लगाने और हरियाली को सुरक्षित रखने के विविध आयामी कार्यक्रमों में न केवल अपनी शक्ति लगायी अपितु समूचे समाज का सहकार प्राप्त् कर सफलता के नए नए कीर्तिमान भी रचे । 
वानिकी विकास में समाज सेवी संगठनों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए समय-समय पर सरकारी प्रयास भी होते रहे हैं । राष्ट्रीय कृषि आयोग ने वर्ष १९७६ में ईधन, चारा, लकड़ी और छोटे मोटे वन उत्पादों की पूर्ति करने वाले पेड़ लगाने के लिए सामाजिक वानिकी कार्यक्रम की सिफारिश की थी । सामाजिक संगठनों द्वारा इस अभियान को चलाने में कई अनुभव आये जिसमें मुख्य रूप से ये सुझाव आया कि स्थानीय आवश्यकता और क्षेत्र विशेष की परिस्थिति में अनुकूल पौधों का चयन कर उनको लगाने के लिए समर्पण भाव से काम करने वाले सामाजिक संगठनों को ही अपेक्षित जन सहयोग मिलता है, और वानिकी विकास में समाज की भागीदारी मजबूत होगी तभी संयुक्त वन प्रबंधन की अवधारणा को सफलता मिल सकती है । 
भारत में पर्यावरण संरक्षण की लोकचेतना के लिए बहुत सारी संस्थाएं और सामाजिक संगठन काम कर रहे है इनमें से कुछ मुख्य संगठनों की चर्चा जरूरी है :- 
(१) बाम्बे प्राकृतिक इतिहास सोसायटी - वर्ष १८३३ में प्रांरभ हुई इस संस्था के लिए वन्य जीवन संरक्षण पर नीति निर्माण, वन्य जीवां पर अनुसंधान और वन्य जीवों से सम्बन्धित प्रकाशन मुख्य कार्य है । यह भारत की सबसे पुरानी संस्था है जिसने प्रजातियों एवं पारिस्थितिकी तंत्र के संबंधोंको लेकर समाज में नयी चेतना पैदा करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है । 
(२) प्रकृति के लिए विश्वव्यापी निधि इस संस्था का आरंभ १९६९ में हुआ था । यह संस्था स्कूल के बच्चें के लिए नेचर क्लब जैसे कार्यक्रम चलाती है । पर्यावरण और विकास के मुद्दों के लिए एक विचार मंच के रूप में भी काम करती है । 
(३) विज्ञान और पर्यावरण केन्द्र- इस संस्था ने भारत के पर्यावरण की स्थिति पर साहित्य निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य किया है । पर्यावरण से संबंधित मुद्दों पर जन सामान्य के लिए सामयिक साहित्य निर्माण इसकी विशेषता है । 
(४) तरूण भारत संघ राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में जल संकट से परेशान लोगों ने तरूण भारत संघ के नेतृत्व मेंभूजल पुनर्भरण का एतिहासिक काम किया । जिसकी विश्वव्यापी सराहना हुई । जल पुरूष राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में जन सहयोग से हजारो तालाबों का निर्माण हुआ जिसके परिणाम स्वरूप क्षेत्र की ६ नदियां बारहों महीने कल-कल बहने लगी । इस कार्य की प्रेरणा से देश के कई सामाजिक संगठन इस क्षेत्र में आगे आये । 

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