गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

सामाजिक पर्यावरण
हलमा : पर्यावरण रक्षा का अनुष्ठान
श्रीमती भारती सोनी 

म.प्र. का झाबुआ क्षेत्र आजाद की भूमि है । यहां वीरता और देश भक्ति के तराने कंधों पर बंदुक लेकर गुंजते हैं । वहीं दूसरी ओर शिवोपासक भील समुदाय केल ोग सिंहनाद करते हुए गेती और फावड़े कंधों पर सजाकर मां धरती की प्यास बुझाने को आतुर है ।  
भारत के ह्रदय प्रदेश झाबुआ के सरल स्वभाव के भोले भाले आदिवासी, भीली संप्रदाय के लोग आज विश्व में उपजी ग्लोबल वार्मिग जैसी बड़ी समस्या का समाधान निकालने में जुटे है । उनका यह प्रयास हम सबके लिए प्रेरणा का उदाहरण है । सभी इस परम्परा से जुड़े है । असंख्य धरती पुत्र - बच्च्े, जवान, बुढ़े, महिला पुरूष में यहां कोई भेदभाव नहीं बिना किसी आर्थिक सहायता के ये सब जब एक साथ परमार्थ की भावना के साथ निकलते है । तब क्षेत्र के सभी लोग इनसे प्रेरित होकर इनका साथ देते   है । इसी सामुहिक प्रयास का नाम है हलमा । 
झाबुआ की भूमि पथरीली होने के कारण यहां का किसान बहुत मेहनत से खेती कर पाता है । आर्थिक रूप से कमजोर होने से ये पुर्णत: प्रकृति पर ही निर्भर है । मानसून का कम या ज्यादा होना इनके जीवन स्तर पर बहुत प्रभाव डालता है । जिले में साप्तहिक हाट बाजार इनके लिये मुख्य बाजार है । वस्तुआें का आदान प्रदान, खरीददारी इन्हीं बाजारों तक सिमटी हुई है । भीलों को कड़ी मेहनत के बाद भी अपनी मूल मेहनत के दाम भी ठीक से नहीं मिल पाता है । यही एक कारण है कि यहां का किसान हर वर्ष पलायन करता है और दूसरे प्रदेश में जाकर जीवन यापन करने को बाध्य है । 
इन सभी समस्याआें के बावजूद भील समुदाय अपनी संस्कृति के बहुत जुड़ा हुआ है । तीज-त्यौहार, शादी-ब्याह अन्य उत्सव सभी साथ मिलकर मनाते है । ताड़ी इनका मुख्य पेय है जो इनकी खुशीयों को कुर्राटी और हुंकारी भरने का जोश दिलाता है । स्वयं आनंदित होकर आनंद का विस्तार करते हुए एक दूसरे की सहायता की भावना ही इनकी संस्कृति का मुख्य आधार    है । यही परम्परा हलमा कहलाती    है । 
जब कोई व्यक्ति यदि किसी बड़ी समस्या में फंस जाता है और बहुत प्रयासों के बाद भी यदि वह उसका समाधान नहीं निकला पाता है, तब वह अपने समाज और मित्रों को सहायता के लिये हलमा के लिये आव्हान करता है । तब सामूहिक रूप से एक साथ समस्या का सामना कर निराकरण व समाधान करते है । तब हलमा सार्थक होता है । 
यह सामूहिक प्रयास जो हर क्षेत्र में आदिवासी व वनवासियों में होता है भीली मैं हलमा के नाम से पुकारा जाता है । पथरीली भूमि पर कठिन परिश्रम और ग्लोबल वार्मिग जैसे विश्वव्यापी समस्या का असर इनके खेती के व्यवसाय पर बहुत पड़ा है । बहुत सी बार सुखे का सामान भी इनको करना पड़ता है । फिर भी ये अपनी निराशा व दुर्भाग्य के सहारे ना रहकर इस समस्या के बारे में चिंतनशील रहते है और सामूहिक रूप से विचार विनिमय के बाद हलमा का आयोजन करते है । 
हलमा एक भागीरथी प्रयास है जो प्यासी धरती माता की प्यास बुझाने और उसे हरी भरी व श्रृंगारित करने का संकल्प किये हुए है । 
सन् २००३ व २००४ में हलाम परम्परा को विस्तृत व सार्थक रूप प्रदान करने का प्रण लिया    गया । समाज सेवी राजाराम व भंवरसिंह ने यह कार्य सम्हाला, इन्होने ग्रामीण युवाआें का एक संगठन बनाया जिसमें परोपकार की भावना से ३२ युवक जुड़े जो जिज्ञासु, सशक्त व कार्य करने में सक्षम थे । उनकी समस्याआें का समाधान कर उन्हें दूसरों के सहयोग के लिये प्रेरित किया गया । सारी समस्याआेंको सुनकर निर्णय लिया गया एक भागिरथी प्रयास हलमा का । जो शिवजी की कथा का सार था धरती माता प्यासी है अत: शिव की जटाआें के आकार के गड्डे पहाड़ियों पर खोदे जायेंगे, माँ गंगा उनमें अवतरित होकर निवास करेगी । 
वैज्ञानिक दृष्टि से धरती का जल स्तर बढ़ाने में यह बहुत सार्थक पहल थी । तब २००४ में झाबुआ की पहाड़ी हाथीपावा पर जटा रूपी गड्डे खोदे गये जिसमें हजारों लोगों ने परमार्थ की भावना से कार्य किया, पहाड़ी पर दरगाह होने के कारण मुस्लिम संप्रदाय ने विरोध किया, परन्तु दूसरे ही वर्ष उनकी जमीन का जल स्तर बढ़ने से सहर्ष इन सबके साथ सहयोग हेतु तैयार हो गये । 
वर्ष २००५-२००६ से शहर के सामान्य जन भी इस हलमा में सहभागिता करने लगे - आस्था और विश्वास के चलते धर्म संभाए, रैलिया, कावड़ यात्रा व गोरी यात्रा के आयोजन लगातार हुए और हलमा जिले प्रदेश से निकलर देश विदेश तक प्रचारित होने लगा । 
स्वामी अवधेशानंद, शंकराचार्य, वासुदेवाचार्य, बाबा सत्यनारायण जैसे संतों ने धर्म के माध्यम से इस परम्परा में सम्मिलित होकर सराहा, इसी समय ५०० फिर ११०० शिवलिंगों का वितरण कर जल संरक्षण के साथ इसे जोड़ा फिर हलमा द्वारा तालाबों का निर्माण किया जाने लगा । 
हेण्डपम्प व पुराने जल स्त्रोतों को सुधार कर नवीनीकरण किया । अब तक हलमा सारे समाज का उत्सव बन गया । सभी की समझ में आ गया कि हलमा परमार्थ का कार्य है, बाद में पहाड़ियों पर शीव की जटाआें सी खुदाई के अनुरूप ही शिवगंगा नाम की संस्था ने इसे पूर्ण सहयोग किया जिसके फलस्वरूप प्रतिवर्ष यह उत्सव बड़े ही जोश और उत्साह से मनाया जाने लगा है । 
पिछले वर्षो के लगातार प्रयासों से जमीन में पानी का स्तर बड़ा है । इस बात से प्रेरित होकर कई प्रदेशों के ओर विदेशों के विद्यार्थी व वैज्ञानिक इस महोत्सव में हिस्सा लेते है - धर्मा और विज्ञान से मिलकर हलमा की सार्थकता से झाबुआ आज विश्व में अपना स्थान बनाने को तैयार है । बड़े तकनीकी संस्थान अब यहां विद्यार्थियों को प्रशिक्षण के लिये भेजते है । संक्षेप में कहे तो -  (१) हलमा जल संवर्धन के लिये परमार्थ का कार्य है (२) हलमा एक भीली परम्परा है (३) हलमा में किसी तरह का आर्थिक लेन देन नहीं है (४) हलमा में सभी एक समान है (५) हलमा धरती मां की प्यास बुझाने का एक संकल्प है । 
इस वर्ष यह हलमा ४ व ५ मार्च को झाबुआ की हाथीपावा की पहाड़ियों पर होगा जिसमें ४० हजार परिवार शामिल होगें । इसके लिये ११ विकास खण्डों के ४४० गांव शामिल है । इसमें शामिल सभी लोगों को मानना है कि परिश्रम, स्वाभिमान और स्वावलंबन से विकास होगा । इसको आधार हलमा मानकर परम्परा को जीवन्त रखे हुए है । 
कदमों में दृढ़ता हाथों में नव विश्वास जगाते है । नजरों से उन्मुल गगन आराधन पंख उड़ाते है । ये असंख्य है वीर जो धरती माँ की प्यास बुझाते है । शिव के उपासक जटा पर गंगा को लहराते है । 

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