मंगलवार, 24 जनवरी 2012

कविता

एक जनवरी
चन्द्रकान्त देवताले
कितनी सारी धूप के बीच
मैं अकेला खड़ा हॅूं
डुबोकर परछाइयों के समुद्र में
कितने सारे दिन
सितार की तरह बजते हुए दिन
पत्थरों की तरह गड़े होंगे
परछाइयों की हडि्डयों में
मेरी आँखें रखी हुई हैं
ठण्डे पानी से भरे घड़े में
और फिर भी मैं देखता हॅूं
अपने बचपन के तमाम पेड़
उन पर चहकती हुई चिड़ियाएँ गिनता हूूँ
मुझे गुमाकर लौट जाना चाहती है
एक औरत
सड़क पर अकेली चलना चाहती है
कुछ काले दिनों को
दस्ताने की तरह पहनकर
मैंने उससे कहा -
एक जनवरी है यह
और हमें बन्द कर देना चाहिए
पुराने दिनों का शब्दकोष
पर जो आँख से दिखता है
उससे हटकर देखने से
इंकार करने के बाद
उसके लिए संभव नहीं था
धूप में आना
और मेरे लिए
जो बाहर नहीं दिखता था
उसे छोड़कर
संभव नहीं था
उसके साथ परदे के पीछे चला जाना
अपनी जगह पर था
नये वर्ष का पहला दिन
किसी भारी-भरकम पेपरवेट की तरह
जो हिलने से रोक रहा था
जनवरी के पेड़ की पत्तियाँ

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