बुधवार, 25 जनवरी 2012

सामयिक

पर्यावरण और आपदा प्रबंधन
डॉ. मनमोहन सिंह

पिछले पचास वर्षो में हमने असामान्य जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय हादसों को होते देखा है । यह तेजी से बढ़ते औद्योगिकरण और प्राकृतिक संपदाआें के अदूरदर्शी शोषण के कारण हुआ है । विश्व में अमीर और गरीब राष्ट्रों में अंतर किये बिना जन समुदाय को प्रकृति का कोप-भाजन बनना पड़ा है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की १९७२ में हुई स्टॉकहोम कांफ्रेस पर्यावरण मामलों पर विचार-विमर्श की एक बड़ी घटना थी । इसके बाद पर्यावरण रक्षा और प्रकृति संरक्षण में विश्व में देशों का अपेक्षित सहयोग प्राप्त् नहीं हुआ क्योंकि सभी देश अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए कार्य कर रहे है । पर्यावरण का संरक्षण और संवर्धन समूची मानव जाति से संबंध रखता है इसलिये सभी विकसित और विकासशील देशों के लोगों को इस वैश्विक मुद्दे पर सहयोग करने की आवश्यकता है । विश्व की पर्यावरणीय चुनौतियों का मुकाबला करने के लिये सहयोगात्मक हल खोजने की आवश्यकता है ।
पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन इस चुनौती के अन्तर्गत मुख्य मुद्दे है । इस संदर्भ में पर्यावरण मित्र तकनिकी बहुत करागर सिद्ध होगी । ऐसी व्यवस्था बनाना है जिसमें तकनीकी को नया आयाम मिल सके और साथ ही यह भी सुनिश्चित हो कि उसका लाभ सभी गरीब देशों को मिल सके ।
स्थायी विकास एक ऐसी नीति है जिसमें पर्यावरण का संरक्षण करते हुए समृद्धि की आकांक्षाआेंसे गठ-जोड़ किया जा सके लेकिन इस विकास नीति को संकुचित चिंतन से, केवल वर्तमान युवा पीढ़ी की आवश्यकता पूर्ति से जोड़कर देखा जा रहा है जिसमें भविष्य के युवा वर्ग की योग्यता को नजर-अंदाज किया जा रहा है । उचित और स्थायी विकास की धारणा किसी भी राष्ट्र की अपनी आवश्यकताआें से बड़ी है । यह हमारे उन सामूहिक प्रयत्नों में निहित है जिसमें हम हमारी भविष्य की युवा पीढ़ी की जीवन शैली, ज्ञान और विशिष्ट योग्यताआें को पर्यावरण एवं संपदा दोहन के परिप्रेक्ष्य में सम्पन्न करते हैं । विकास के लक्ष्य को एकांगी न मानकर ही हम अपनी सभ्यता के विकास की परम्परा भावी पीढ़ी को प्रदान कर पायेंगे ।
जन साधारण के मन में आर्थिक विकास और पर्यावरण स्थिरता के मध्य व्यवसायिक भावना पनपती रही है लेकिन अब इसमें बदलाव आ रहा है और अधिकतम व्यक्ति इस पर विचार कर रहें हैं कि वास्तविक विकास कैसे संभव हो ? यथार्थ में, विकास वृद्धि की परिभाषा का दायरा बढ़ा है और यह सीमा पर्यावरण और उससे संबंधित विषयों पर सामंजस्य के कारण ही बढ़ी है । अब इस विचार पर सहमति बढ़ी है कि विकासशील देशों की निर्धनता के चलते पर्यावरण संरक्षण संभव नहीं है, परन्तु इस विचार को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि पर्यावरण अवनति और प्राकृतिक संपदा का अति-दोहन अवश्यम्भावी है ताकि विकास गतिशील रहे । पर्यावरण को निष्क्रियता से समझना अब संभव नहीं होगा और यह विचार भी अब स्वीकार नहीं होगा कि पर्यावरण केवल सम्पन्न राष्ट्रों का विषय है ।
विगत वर्षो में हमारी सरकार ने एक नेशनल एजेंडा, आपदा प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटते हुए पर्यावरण रक्षा का तैयार किया है । इसके अनुसार हमने एक करोड़ हेक्टर में फैले जंगलों को हरा-भरा करके, नेशनल ग्रीन इंडिया मिशन के जरिए गरीबों की आमदनी बढ़ाने का लक्ष्य रखा है । बीस हजार मेगा-वाट सौर ऊर्जा २०२० तक बनाने का कार्य भी प्रगति पर है । हमारा मिशन स्थिर, आवास के मानकों को, हमारी नगर पालिका नियमों के साथ विकसित करके, हरित-भवनों के निर्माण हेतु भी विचार कर रहा है ।
पानी का संग्रह सूखी कृषि भूमि का उत्पादन बढ़ाने के लिए भी हमारा अभियान जारी है । कार्बन मुक्त उत्पादन भी हमारा निर्णायक कदम है जो हम जिम्मेदार विश्व नागरिक की हैसियत से उठाने जा रहे है । इन वर्षो में हमने आपदा प्रबंधन, कानून के तहत अपने प्रयत्नों को, प्राकृतिक विपदाआें से निपटने की दिशा में गति प्रदान की है । इसके लिये संस्थागत मेकेनिज्म की व्यवस्था बनाई है । इस संदर्भ में हमने अन्य देशों के अनुभवों को, अपने विशेषज्ञों से सीखने को कहा है । अंतरिक्ष के इंटरनेशनल चार्टर पर दस्तखत करके भारत ने अपनी अंतरिक्ष क्षमता बढ़ाकर, आपदाआें की जानकारी के लिये डाटा प्रणाली विकसित कर ली है । हमने आपदा से निपटने के लिए समुचित प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की है ।
हमारी मान्यता है कि पर्यावरण संरक्षण केवल परामर्श से नही होगा वरन् इसके लिये एक ठोस कानून की आवश्यकता है । पर्यावरण पर हमारी प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए हमने एक कानून बनाया जो एक ट्रिव्युनल के द्वारा पर्यावरण मामलों को हल करने के लिये कार्यरत है । इस ग्रीन ट्रिव्युनल ने अपना कार्य भी प्रारंभ कर दिया है जिसकी वजह से न्यायालयों पर पड़ने वाला विवादों का भार कम हुआ है ।
पिछले दशक में भारत ने अनेक उल्लेखनीय परिवर्तन देखे हैं । अर्थव्यवस्था के कारण फले-फूले । ऐसे समय कई राष्ट्रों ने प्राकृतिक संपदाआें के रिक्त होने को चुपचाप सहन कर लिया होगा किन्तु हमने ऐसा नहीं किया । हमारी न्यायपालिका ने दूरदर्शी संविधानिक प्रक्रिया को कानूनी जामा पहनाया और हमारी चिंताआें को न तो नजर अंदाज और न ही कमजोर किया । हमारी योजना की सफलता के लिए इन कानून के रखवालों को एक शक्तिशाली कार्य पालिका का निरन्तर सहयोग चाहिए साथ ही विवेक पूर्ण न्याय पालिका भी उसके हौसलों को बाधित न करते हुए उसे सहयोग दे । कुल मिलाकर एक ऐसे कानून व्यवस्था का निर्माण करना है जो पर्यावरण संरक्षण के निमित्त कारगर हो ।
पर्यावरण पर कोई चर्चा हमारी स्थानीय कार्य शैली और हमारी सांस्कृतिक विरासत को नजर अंदाज करके सार्थक नहीं हो सकती है । हमारे देशवासियों ने प्रकृति के विरोध का उत्तर अपने उस आचरण और कार्यशैली से दिया है जो पर्यावरण की दृष्टि से बुद्धिमता पूर्ण थे । हमने प्रकृति को दाता के रूप में देखा है न कि एक विजेता के रूप में जो हमारी इच्छा अनुरूप कार्य करे । आज हमें वैश्विक अनुभव से काफी समझदारी मिली है । पर्यावरण प्रबंधन ने भी बहुत कुछ सीखा है । इस समझ को भारतीय नजर से प्रकृति को देखने की जरूरत है । ऐसा करने से ही वांछनीय परिणाम मिलेंगे ।

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