बुधवार, 25 जनवरी 2012

गणतंत्र दिवस पर विशेष

साम्प्रदायिकता भारत की पहचान नहीं है
भारत डोगरा

भारत का पिछले १४०० वर्षो का जीवंत इतिहास स्पष्ट रूप से दर्शा रहा है कि यह देश कभी भी साम्प्रदायिक नहीं था । अतएव यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपने इतिहास का पुन: आकलन करें और बढ़ रही कट्टरता के खिलाफ संघर्ष को और प्रभावी बनाएं ।
भारत के पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास को कुछ गलत लोगों ने मजहबी झगड़ों के इतिहास के रूप में पेश किया है, जबकि सच्चई यह है कि इन एक हजार वर्षो के दौरान विभिन्न मजहबों के लोगों ने एक-दूसरे से सीखने-समझने और एक दूसरे के नजदीक आने के, एक साझी संस्कृति बनाने के अनेक प्रयास किए ।
जब हम उस साझी विरासत को याद करते हैं तो हमारे सामने उभरती है एक तस्वीर जो भारत में किसी मुस्लिम राजा के शासन से पहले की तस्वीर है । आठवीं शताब्दी में अरब देशों से कुछ जिज्ञासु भारत आए हैं और यहां के बौद्ध और हिन्दू विद्वानों से बातचीत कर रहे थे और बहुत लगन से उनके विचार ग्रहण कर रहे थे ।
जब बाबर भारत आया और खानवा के युद्ध में राणा सांगा ने उससे टक्कर ली तो राणा की ओर से लड़ने वालों में हसन खां मेवाती और महमूद लोधी के नाम प्रमुख थे । मेवात के लोक-गीतों में आज तक इस दोस्ती को याद किया जाता है -
यह मेवाती वह मेवाड़ी, मिल गए दोनों सेनानी ।
हिन्दू, मुस्लिम भाव छोड़, मिल बैठे दो हिन्दुस्तानी ।।
बीकानेर के हिन्दू राज-परिवार को संकट की घड़ी में शेरशाह सूरी के दरबार में शरण मिली । वहीं हुमायूं को संकट के दिनों में अमरकोट के राणा ने शरण दी व यहीं अकबर का जन्म हुआ था ।
फतेहपुर सीकरी में अकबर ने इबादत खाना (प्रार्थना भवन) बनवाया जहां हिन्दू-मुस्लिम, जैन, ईसाई, पारसी सब धर्मो के अनुयायी व विद्वान धार्मिक विचारों के आदान-प्रदान में हिस्सा लेते थे । अकबर ने अनेक मन्दिरों को जमीन दान दी व अन्य तरह से उनकी सहायता की । अकबर ने एक अनुवाद का बड़ा विभाग खोला जहां गीता, रामायण, महाभारत, अथर्ववेद व बाइबल का अनुवाद फारसी में हुआ । अकबर ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों चित्रकारों को सरंक्षण व प्रोत्साहन दिया । अकबर के समकालीन राणा प्रताप ने मुस्लिम सेनापति को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी, सिंधी मुसलमानों को जागीरें दी और मुसलमान चित्रकारों को संरक्षण दिया ।
शाहजहां में शुरू में कुछ कट्टरपन था पर बाद में, विशेषकर उसके बेटे दाराशिकोह के असर के कारण, उसकी प्रवृत्ति धार्मिक सहनशीलता की ओर बढ़ी । काशी के ब्राह्मणों की सहायता से दारा ने गीता का नया फारसी अनुवाद करवाया था । उसने वेदवाणी का एक संग्रह भी तैयार किया ।
शिवाजी ने अपनी सेना में मुसलमानों को महत्वपूर्ण स्थान दिया और सदा इस्लाम धर्म को पूरी इज्जत दी । दूसरी और दक्खन के अनेक मुसलमान शासकों की सेना में मराठों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । सोलहवीं शताब्दी में दक्खन क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण शासक अली आदिल शाह था जिसे लोग सूफी कहते थे । वह हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई धार्मिक लोगों से धर्म के बारे मेें विचारों का आदान-प्रदान करता रहता था । उसने बहुत अच्छा पुस्तकालय बनाया, जिसमें संस्कृत के विद्वान वामन पंडित को नियुक्त किया ।
पन्द्रहवीं शताब्दी में काश्मीर में राजा जेन-उल-अब्दीन ने, जिन्हें इज्जत से बुड शाह या महान राजा कहा जाता है, ने मन्दिर बनवाए व हिन्दुआें के त्यौहारों में सार्वजनिक तौर पर शामिल हुआ । पिछले शासकों की गलतियों से जो हिन्दू भाग गए थे, उसने उन्हें वापस लाने के लिए संदेशवाहक भेजे । वह संस्कृत और फारसी दोनों का विद्वान था । उपनिषदों के एक बड़े हिस्से को फारसी में अनुवाद करवाने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
अवध के नवाबों ने अयोध्या के मन्दिरों की कई तरह से सहायता की और अयोध्या के एक तीर्थ स्थान के रूप में निखारने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी । अवध के नवाबों के शासन काल में शान्ति-समृद्धि का एक दौर आया जिसमें यहां एक विशिष्ट लखनवी संस्कृति विकसित हुई ।
अत: मध्यकालीन भारत के इतिहास को हिन्दुआें और मुसलमानों की लड़ाइयों या हिन्दुआें के दमन से जोड़ना बेहद अनुचित और निराधार है । यह ठीक है कि कुछ राजाआें ने समय-समय पर धार्मिक संकीर्णता का परिचय दिया, पर इन छुटपुट घटनाआें के आधार पर ही तो इस पूरी अवधि के इतिहास की पहचान नहीं बनाई जा सकती है ।
इस दौरान राजनीतिक स्तर की नजदीकी के साथ एक दूसरे की भाषा, प्रतीक, रीति-रिवाज, त्योहार आदि अपनाने की परम्परा भी विकसित हो ही रही थी । मुस्लिम कवि व लेखक स्थानीय भाषाआें जैसे हिन्दी, बंगाली आदि में लिख रहे थे और राधा-कृष्ण, सीता-राम जैसे विषय भी अपना रहे थे । रसखान जैसे कवि तो कृष्ण भक्ति में डुबे हुए थे । दूसरी ओर हिन्दू कवि व लेखक फारसी में लिख रहे थे । अनेक धार्मिक स्थानों और सूफी सन्तों में हिन्दू-मुसलमान समान रूप से श्रद्धा रखते थे । गुरू ग्रन्थसाहिब के संकलन में हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मो के सूफी-सन्तों की वाणी को स्थान मिला ।
इस परम्परा में बहुत महत्वपूर्ण योगदान भक्ति आंदोलन के अनेक सन्तों और सूफियों के लेखन, काव्य और शिक्षाआें से मिला । इनमें गुरू नानक, कबीर, तुकाराम, दादू, रामनाथ, मीरा, रविदास आदि प्रमुख हैं । तुलसीदास जैसे संतों ने धर्मवाणी को आम आदमी की भाषा में पहंुचाने को महत्वपूर्ण कार्य किया ।
भक्ति आन्दोलन के संतो, कवियों में ईश्वर से एक सीधा और गहरा सम्पर्क स्थापित करने की एक प्रबल इच्छा थी । यह समर्पण इतना महान था कि इसके आगे कर्मकाण्ड, मन्दिर-मस्जिद, मौलवी-पण्डित के विवाद कम महत्वपूर्ण हो जाते थे । इन विभिन्न स्त्रोतों से सिंचती हुई साझी संस्कृति की बेल बढ़ती रही जिसे स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान साझी शहादत ने हरा-भरा कर दिया ।
वर्ष १८५७ में अंग्रेजी शासन के विरूद्ध जो विद्रोह भारत के अनेक भागों में भड़क उठा, उसमें हिन्दू मुस्लिम एकता स्पष्ट देखी गई । प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर विपिनचन्द्र ने लिखा है, १८५७ के विद्रोह की शक्ति बहुत कुछ हिन्दू-मुस्लिम एकता में निहित थी । सभी विद्रोहियों ने एक मुसलमान बादशाह को अपना सम्राट स्वीकार कर लिया था । मेरठ के हिन्दू सिपाहियों के मन में पहला विचार दिल्ली की ओर कूच करने का ही आया । हिन्दू और मुसलमान विद्रोही और सिपाही एक दूसरे की भावनाआें का पूरा-पूरा सम्मान करते थे । उदाहरण के लिए विद्रोह जहां भी सफल हुआ वहीं हिन्दुआें की भावनाआें का आदर करते हुए फौरन ही गौ-हत्या बंद करने के आदेश जारी कर दिए गए ।
इस विद्रोह में एक ओर मंगल पांडेय, लक्ष्मीबाई, तात्याटोपे, नाना साहब और बिहार के कंवर सिंह थे तो दूसरे ओर बख्त खान, बेगम हजरतमहल और फैजाबाद के मौलवी अहमतुल्लाह ने भी उनका साथ दिया । अवध की बेगम हजरतमहल ने भी अंग्रेजों के विरूद्ध जमकर लड़ाई की । इसके बाद भी स्वाधीनता सेनानियों व समाज - सुधारकों ने विभिन्न धर्मो के अनुयायियों के मेल-जोल और एकता पर बल दिया ।
मुसलमानों ने आर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानन्द को आमंत्रित किया कि वे दिल्ली की जामा मस्जिद से अपना उपदेश दें । अमृतसर में सिखों ने अपने सबसे पवित्र स्थान स्वर्ण मन्दिर की चाभियां एक मुसलमान नेता डॉक्टर किचलू को सौंप दी थी । आजाद हिन्द फौज के तीन नायकों शाहनवाज, गुरदयालसिंह ढिल्लो और प्रेम सहगल पर मुकदमा चला तो हिन्दू-मुस्लिम- सिख एकता का एक नया प्रतीक तेजी से उभरा ।
सीमान्त गांधी या खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में पठानों ने खुदाई खिदमतगार (ईश्वर के सेवक) नामक संगठन बनाया । इस तरह स्वाधीनता संग्राम का इतिहास भी सांप्रदायिक सद्भावना की अनेक मिसालों से भरा हुआ है ।

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