बुधवार, 11 जुलाई 2012

प्रदेश चर्चा
महाराष्ट्र : ग्रामीणोंको वन के लाभ
                                                            सुश्री अपर्णा पल्लवी

    महाराष्ट्र सरकार ने १० गांवों को वन उत्पाद बिक्री में से उनका हिस्सा देने की प्रशंसनीय शुरूआत की है । लेकिन इसमें कुछ प्रक्रियागत कमियां भी सामने आई है । आवश्यकता इस बात की है कि इस हिस्सेदारी के हिसाब-किताब को और अधिक पारदर्शी बनाया जाए । इसी के साथ यह उम्मीद भी की जानी चाहिए कि संयुक्त वन प्रबंधन एवं हिस्सेदारी की यह योजना महाराष्ट्र के अन्य गांवों के साथ देश भर में शीघ्र ही क्रियान्वित हो ।
    महाराष्ट्र में अब तक किसी भी गांव को संयुक्त वन प्रबंधन के अन्तर्गत वन लाभों में से अपना हिस्सा प्राप्त् नहीं हुआ था । अपने तरह की प्रथम पहल में महाराष्ट्र वन विभाग ने संयुक्त वन प्रबंधन योजना के अन्तर्गत १० गांवों को लाभ में से उनका हिस्सा देने का निर्णय लिया है। इस संदर्भ में गढ़चिरौली जिले के आठ एवं  गोंदिया जिले के दो गांवों को कुल ७४,५१,०६३ रूपए की राशि प्रदान की जाएगी । यह राशि उन्हें वन उत्पादों की बिक्री से प्राप्त् धन पर लगने वाले ७ प्रतिशत वन विकास कर के माध्यम से प्रदान की जाएगी । संयुक्त सचिव द्वारा २४ मई को मुख्य वन संरक्षक को लिखे गए पत्र में यह जानकारी दी गई कि संयुक्त वन प्रबंधन योजना के अन्तर्गत ग्रामीणों को वन उत्पाद में से उनका हिस्सा दिया जाना अनिवार्य    है । हालांकि वर्ष १९९२ से लागू इस योजना से अब तक किसी भी गांव को कोई राशि प्राप्त् नहीं हुई है ।
    वन विभाग के प्रमुख सचिव प्रवीण परदेशी का कहना है कि यह कदम उठाने में देरी इसलिए हुई क्योंकि अप्रैल २००३ के एक शासकीय प्रस्ताव के अनुसार संयुक्त वन प्रबंधन समिति गांवों को तभी भुगतान करेगी जबकि यह सुनिश्चित हो गया हो कि उन्होनें कम से कम दस वर्षो तक वनों का संरक्षण किया हो । उनका कहना है कि चूंकि भुगतान सन् २०१३ में होना है । अतएव संयुक्त वन प्रबंधन के खाते से भुगतान नहीं किया जा सकता । इसलिए यह तय किया गया वन सरचार्ज जो कि वनों का जिला स्तरीय विकास कोष है, के माध्यम से भुगतान का निर्णय लिया गया है । संयुक्त वन प्रबंधन समितियां वन की सुरक्षा करती है । अतएव उनका ही इस पर पहला दावा है । इस योजना के अन्तर्गत आने वाले गांवों को विभिन्न चरणों में इसी तरह भुगतान किया जाएगा ।
    वन अधिकार समूहों ने इस पहल का स्वागत किया है । लेकिन वे इस तथ्य से असंतुष्ट है कि वन विभाग ने राज्य सरकार के १६ मार्च १९९२ के निर्णय की अवहेलना की है । क्षेत्र के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता एवं वरिष्ठ वन अधिकार कार्यकर्ता मोहन हीराबाई हीरालाल का कहना है कि सरकार का प्रथम निर्णय संयुक्त वन प्रबंधन गांवों के लिए बेहतर अवसर प्रदान करता था । इसके अन्तर्गत प्राकृतिक वनों को पांच वर्षो तक संरक्षित करने के बाद लाभ प्रािप्त् की पात्रता थी ।
    उनका कहना है कि वर्ष १९९२ एवं २००३ के मध्य गठित संयुक्त वन प्रबंधन समितियों को १९९२ के सरकारी निर्णय के हिसाब से लाभ दिया जाना चाहिए । वहीं दूसरे सरकारी निर्णय के अन्तर्गत संयुक्त वन प्रबंधन समितियों द्वारा प्राकृतिक वनों एवं रोपे गए वनों दोनों के लिए १० वर्ष  की प्रतीक्षा अवधि अनिवार्य कर दी गई है ।
    वहीं श्री परदेशी प्रथम सरकारी निर्णय को गांववासियों के लिए लाभप्रद नहीं मानतें  क्योंकि उनके अनुसार इसमें मुख्य लकड़ी पर भुगतान मिलने की पात्रता नहीं है । हालांकि सन् १९९२ के सरकारी प्रस्ताव की धारा ९ इस बात को अनुचित मानती है । इसमें साफ लिखा है कि संयुक्त वन  प्रबंधन  वनों के सभी उत्पाद जिसमें निरस्तार आवश्यकताएं एवं वन उत्पादों के इस्तेमाल से संबंधित सामुदायिक अधिकार शामिल हैं, प्राथमिकता के आधार पर समितियों को दिए जाएं । शेष ५० प्रतिशत समितियों को नकद प्रदान किया जाए ।
    मोहनभाई ने आरोप लगाया है कि विभाग जानबूझकर मूल सरकारी प्रस्ताव से खिलवाड़ कर रहा है और ग्रामीण को नुकसान पहुंचा रहा है । विभाग प्रत्येक गांव से वर्षानुसार एवं उत्पाद के हिसाब से अर्जित धन की विस्तृत जानकारी भी नहीं दे रहा है । उनका कहना है कि ग्रामीण को सिर्फ धन देना ही काफी नहीं है । सभी तरह के रिकार्ड में पारदर्शिता होनी चाहिए और ग्रामसभाआें को इस बात की जानकारी देना चाहिए कि इस धन की गणना किस प्रकार की गई है । इस संबंध में ग्रामसभाआें से अनुमति भी ली जानी चाहिए  ।

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