बुधवार, 11 जुलाई 2012

सामयिक
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की खिंचाई
                                  कुमार संभव श्रीवास्तव

    संसद की लोक लेखा समिति द्वारा वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में व्याप्त् अनिमितताआें, लेट लतीफी, भ्रष्टाचार एवं लापरवाही को उजागर किए जाने के बाद जो तस्वीर उभरी है वह चौका देने वाली   है । देश की बहुमुल्य विरासत के प्रति बरती गई लापरवाही अक्षम्य है और दोषियों पर कड़ी कार्यवाई की अपेक्षा की जाती है । देखना है कि हमारी संसद और पर्यावरणविद् इसका अब क्या हल निकालते हैं ।
      संसद की लोक लेखा समिति ने लोकसभा के पटल पर रखी अपनी रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा है कि संघीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय देश के पर्यावरण को प्रभावशाली ढंग से संरक्षित कर पाने में असफल रहा है । इस रिपोर्ट में वनीकरण, जैव विविधता संरक्षण, प्रदूषण  नियंत्रण एवं पर्यावरण एवं  वन मंत्रालय के अंतर्गत पर्यावरणीय शिक्षा से संबद्ध पर्यावरणीय कार्यक्रमों के  क्रियान्वयन एवं संस्थानों की कार्यप्रणाली में गंभीर कमियों को दर्शाया गया है । समिति की रिपोर्ट वर्ष २००८-०९ में विभाग के कार्योंा का महालेखाकार द्वारा किए गए अंकेक्षण की उस रिपोर्ट पर आधारित है, जिसे नवम्बर २०१० में लोकसभा के पटल पर रखा गया था । भारतीय जनता पार्टी के मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली  इस समिति ने इस रिपोर्ट की विवेचना एवं मंत्रालय से प्राप्त् मौखिक जानकारी एवं दस्तावेजों के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की है । इसमें पर्यावरण संरक्षण हेतु मंत्रालय से तुरंत प्रभावशाली हस्तक्षेप करने को कहा गया है ।
    लोक लेखा समिति की रिपोर्ट के अनुसार मंत्रालय की विभिन्न योजनाआें के अंतर्गत परियोजनाआें की पूर्णता की दर बहुत ही कमजोर है । इतना ही नहीं इस बात की भी कम संभावना नजर आती है कि जारी किया गया धन का उपयोग उन्हीं कार्योंा के लिए किया गया हो जिसके लिए कि स्वीकृति दी गई थी । रिपोर्ट में इस ओर इंगित करते हुए बताया गया है कि वर्ष २००३ से २००८ के  मध्य मंत्रालय ने राष्ट्रीय वनीकरण एवं पर्यावरण विकास बोर्ड द्वारा ५९.४८ करोड़ लागत की ६४७ वनीकरण परियोजनाआें की स्वीकृति दी गई थी । इनमें से केवल २० परियोजनाएं पूरी हुई एवं इस मद से जारी कुल ४७.०३ करोड़ रूपए में से केवल ५.६५ प्रतिशत ही इन पूर्ण इुई परियोजनाआें पर खर्च किया गया । बाकी मामलों में जिन स्वैच्छिक संस्थाआें को इन परियोजनाआें का क्रियान्वयन करना था वे पहली ओर दूसरी किश्तें मिलने के बाद गायब हो गई ।
    वनीकरण के बहाने - मंत्रालय द्वारा गबन करने वाली सात संस्थाआें को काली सूची में डाला गया और पुलिस में एफआईआर दर्ज की गई वही दूसरी ओर केवल एक दोषी अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही हुई । रिपोर्ट में कहा गया है समिति को यह देख कर धक्का पहुंचा है कि वनीकरण के नाम पर सार्वजनिक धन   की लूट हुई और सरकार ने इन गबनकर्ताआें के खिलाफ मामला दर्ज करने हेतु बहुत ही कम ठोस प्रयास किए हैं । वर्ष २००१ में योजना आयोग ने वर्ष २०१२ तक वन/वृक्ष आच्छादन के लक्ष्य को बढ़ाकर ३३ प्रतिशत कर दिया था । जबकि  नवीनतम वन सर्वेक्षण बताता है कि वन आच्छादन मात्र २१ प्रतिशत ही   है ।
    समिति की रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि वनीकरण के राष्ट्रीय कार्यक्रम को महज स्वैच्छिक या गैर सरकारी संगठनोें के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है । यदि चाहे गए लक्ष्य की पूर्ति करना है तो संघीय सरकार के साथ ही साथ राज्य सरकारों के सभी विभागों एवं संस्थाआें और पंचायती राज संस्थानों को प्रभावशाली ढंग से इसमें शामिल करना होगा । समिति ने प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के संबंध में अनुशंसा करते हुए कहा है कि इस हेतु ऐसे तीसरे पक्ष को निगरानी का कार्य सौंपा जाना चाहिए जो कि सेटेलाइट के माध्यम से वनीकरण का सत्यापन कर पाने में सक्षम हो ।
    जैव विविधता -  जैव विविधता के संरक्षण वाले मोर्चे पर भी वन एवं पर्यावरण मंत्रालय असफल सिद्ध हुआ है । ४५५०० वनस्पति प्रजातियों एवं ९१००० जैव प्रजातियों की उपस्थिति भारत को विश्व के १७ व्यापक जैव विविधता वाले क्षेत्रों में शामिल करती है । ऐसी अपेक्षा थी कि राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण स्थानीय जैव संसाधनों की उपलब्धता एवं इससे संबंधित ज्ञान की परिपूर्ण जानकारी एकत्रित करने हेतु नागरिकों से सलाह मशविरा कर अपनी आंचलिक जैव विविधता प्रबंधन समितियों के माध्यम से जन जैव विविधता रजिस्टर तैयार करेगा । रिपोर्ट में कहा गया है कि गत अक्टूबर तक जहां इस प्रकार के १४००० रजिस्टर तैयार करने थे, इसके मुकाबलेे में महज १,१२१ रजिस्टरों का दस्तावेजीकरण हो पाया है । भूमंडलीकरण युग के प्रारंभ होने के १५ वर्षोंा में गुम या लूट ली गई  जैव विविधता के बारे में समिति के सवालों पर मंत्रालय के एक प्रतिनिधि ने बताया कि भारतीय वानस्पतिक सर्वेक्षण (बीसीआई) केवल ४६००० वनस्पतीय प्रजातियों एवं ८१००० जीव जंतु प्रजातियों की ही पहचान कर पाया है, जबकि भारत में यह लाखों की संख्या में पाई जाती हैं । इस तरह यह कुल संख्या के आस-पास भी नहींपहुंचा है ।
    रिपोर्ट में समिति के सदस्यों ने बेईमान विदेशी वैज्ञानिकों, वनस्पति विज्ञानियों और व्यापारियों द्वारा बहुमुल्य विविधता भरी जैव विविधता प्रजातियों के दुरूपयोग (ले जाने) पर दु:ख प्रकट करते हुए कहा है कि इससे जहां भारतीय जैव विविधता को न केवल गणनातीत नुकसान पहुंचा है बल्कि राष्ट्रीय खजाने को भी अपरिमित हानि हुई है । रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि राष्ट्रीय जैव विविधता बोर्ड की कार्यप्रणाली को देखकर दुख होता है क्योंकि यह अपने गठन के छ: वर्ष पश्चात भी कई महत्वपूर्ण विषयों जैसे जैव विविधता तक पहुंच, शोध परिणामों का हस्तान्तरण और बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के संबंध में यिमन बनाने एवं पर्याप्त् संख्या में वर्गीकरण करने वाले को भर्ती करने या उन्हें संविदा पर रखने एवं एक नियमित कानूनी सेल (एकांश) बनाने में असफंल रहा है ।
    लोक लेखा समिति ने यह भी पाया कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को भारत से बाहर ले जाए गए अनेक वानस्पतिक संसाधनों को लेकर दिए गए बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के संबंध में भी कोई जानकारी नहीं है । इसने अनुशंसा की है कि एनबीए इस पर निगाह रखने के लिए तुरन्त एक निगरानी सेल स्थापित करे और इसकी मदद के लिए एक कानूनी सेल भी स्थापित करे । समिति का यह भी कहना है कि भारतीय वानस्पतिक सर्वेक्षण भी वानस्पतिक प्रजातियों के दस्तावेजी-करण एवं निगरानी प्रक्रिया में अपर्याप्त्ता की वजह से जैव विविधता सम्मेलन के प्रावधानों के उद्देश्यों को पूरा कर पाने में असमर्थ रहा है । इतना हीं नहीं वर्ष १९९० के बाद बीएसआई ने विभिन्न वनस्पति प्रजातियों को लेकर विभिन्न जातीय समूहों जो कि अनेक कारणों से इनका प्रयोग करते हैं एवं इनसे जुडाव संबंधी कोई सर्वेक्षण नहीं किया है । समिति ने यह भी पाया कि वर्ष २००२ से २००९ के मध्य २१ राष्ट्रीय पार्क, चार जैव रिजर्व एवं २७ वन्य जीव अभ्यारण्यों का पहली बार लोक लेखा समिति द्वारा या तो पूर्ण या आंशिक अध्ययन किया गया । वर्ष २००९ तक ६४ प्रतिशत राष्ट्रीय पार्क, ५४ प्रतिशत जैव विविधता रिजर्व एवं ९४ प्रतिशत वन्यजीव अभ्यारण्यों का अध्ययन होना शेष है ।
    इसी प्रकार वर्ष २००९ तक देश में मौजूद कुल १५३९७ पवित्र उपवनों में से ३ पवित्र उपवनों का अध्ययन किया गया था । इस पर अपना मत देते हुए मंत्रालय ने बताया कि जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है पवित्र उपवनों को पवित्र इसलिए माना जाता है क्योंकि उनसे जुड़े  व्यक्तियों के धार्मिक विश्वास उन्हें पर लौकिक शक्तियों से जुड़ते हैं, अधिकांश मामलों में इस तरह के उपवनों का संरक्षण स्वयं लोग ही करते हैं । अतएव प्राथमिकता के लिहाज से ये उपवन संरक्षित क्षेत्रों, जैव विविधता प्रमुख स्थलों और नाजुक इकोसिस्टम से कम महत्व रखते हैं जिन्हें बाहरी तत्वों से जबरदस्त खतरा है । समिति का कहना है कि बीएसआई गंभीर वित्तीय एवं अधोसरंचनात्मक संकट एवं कर्मचारियों की कमी से जूझ रहा है और समिति ने इस मृतप्राय संस्थान को वित्तीय पोषण उपलब्ध करवाकर इसमें प्राण फूंकने को कहा है ।
    लोक लेख समिति ने केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के ३० करोड़ रूपए के ईको सिटी कार्यक्रम मेंभी चौका देने वाली अनियमितताएं पाई हैं । इस कार्यक्रम का क्रियान्वयन १०वीं पंचवर्षीय योजना (२००२-२००७) के मध्य ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व के बारह शहरों के पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए किया गया था । समिति ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि इस परियोजना के लिए धन जारी करना न केवल तयशुदा वित्तीय प्रक्रिया का उल्लघंन था बल्कि असंतोषजनक क्रियान्वयन की सूचना मिलने के बावजूद धन जारी कर दिया   गया । समिति ने रिपोर्ट में कहा है अतएव समिति सरकार से अनुरोध करती है कि लापरवाही के कारणों का पता लगाया जाए। अंत में केवल इतना ही वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से बार-बार अनुरोध किए जाने के बावजूद उन्होनें इस विषय पर किसी भी तरह की टिप्पणी नहीं की ।

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